स्त्री-पुरुष संबंधों का सहज और नैसर्गिक सौंदर्य अजीबोंगरीब हादसों से गुजर रहा है इन दिनों. तरह-तरह के वाकये हर दिन अखबार की सुर्खियां बनते हैं. कभी वे आधुनिकता का बोध कराते हैं, कभी बर्बर युग में लौटने का. और कभी मानवीय रिश्तों के ठंढ़े-सर्द पानी में आकंठ डूब जाने का. घर, परिवार, समाज का जैसे अस्तित्व ही नहीं रहा, और न मनुष्य की आत्मा से बद्धमूल किसी तरह के नैतिक मूल्यों का. कसमें, वादे, प्यार, वफा, परस्पर विश्वास और भरोसा अर्थहीन शब्द बन गये हैं. और नितांत भावनात्मक निजी मामले भी अब देश की अदालते निबटाती हैं. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है की जगह ‘कानूनी प्राणी’ ज्यादा नजर आता है और अदालतंे सबसे बड़ी नियामक शक्ति.

ऐसे में आदिवासी समाज, वह समाज जिसे आदिम और पिछड़ा समझा जाता है, में अभी भी हालात इस कदर बद्तर नहीं हुए हैं. प्रेम, आस्था, परस्पर विश्वास आज भी कायम है. यह समाज भी अपसंस्कृति का शिकार हो रहा है, लेकिन अभी भी सापेक्षिक दृष्टि से यहां स्त्री-पुरुष का नैसर्गिक-सहज प्रेम और परस्पर विश्वास व भरोसा कायम है. और यदि कभी संबंध बिगड़े भी तो उसे मिल बैठ कर आपस में निबटा लिये जाते हैं. अदालतों का दरवाजा खटखटाने की नौबत नहीं आती.

सहजीवन/ लिविंग रिलेशन एक आधुनिक अवधारणा मानी जाती है. सहजीवन, यानि विवाह की परंपरागत पद्धति को अपनाये बगैर स्त्री पुरुष का साथ रहना. शरुआती दिनों में इसमें भी अनेक अड़चने थी. अक्सर यह महानगरों में ही संभव था. पुलिस प्रशासन इस तरह के मामले में बेखटके हस्तक्षेप करती थी. लंबे संघर्ष के बाद अदालतों ने यह माना कि दो बालिग स्त्री-पुरुष का साथ रहने का मामला उनका निजी मामला है और यह उनके व्यक्तिगत अधिकार के क्षेत्र में आता है.

लेकिन कानूनी मान्यता मिलने के बावजूद अक्सर इस तरह के संबंधों का अंत बेहद त्रासद रूप में सामने आने लगा है. जिसका विद्रूप रूप कि वर्षों स्वैच्छा से साथ रहने के बाद स्त्री अदालत में यह फरियाद लेकर जाती है कि उसके साथ लगातार बलात्कार करता रहा है उसका पुरुष मित्र. दूसरी तरफ जिस स्त्री से प्रेम किया, सहवास किया, उसे ही निर्ममता से मार कर, उसे टुकड़े-टुकड़े कर दूर दराज के कचड़ादानी में फेंक आने की घटना, या फिर निर्जन स्थान में ले जाकर हत्या और शव को जला देने की लोमहर्षक घटनाएं. और सामान्यतः इस तरह के संबंधों को परिवार और समाज स्वीकार नहीं करता.

लेकिन आदिवासी समाज में विवाह की औपचारिकता के बगैर भी स्त्री-पुरुष का साथ रहना सहज स्वीकार्य होता है. कोई लड़का किसी लड़की को यदि अपने साथ लेकर आ गया तो कोई तूफान नहीं मचता. या तो बाद में विवाह की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं. मेरे सामने कई दृष्टांत है जिसमें बगैर विवाह की औपचारिकता के लड़की को बहु के रूप में घर वाले स्वीकार कर लेते हैं. उन दोनों का बच्चा उन सबका दुलारा बन जाता है. हां, यदि लड़की किसी दूसरी बिरादरी या समुदाय की हुई तो उतनी सहजता से स्वीकार्य नहीं होती. दिक्कत थोड़ी तब भी होती है जब एक ही ‘कील’ के लड़के लड़की प्रेमपाश में बंध जाते हैं. कभी-कभार ऐसे जोड़ों को समाज से वहिष्कृत कर दिया जाता है.

दरअसल, आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष संबंध बेहद सहज होते हैं. दैहिक आकर्षक तो रहता ही है युवा जोड़ों में, लेकिन वह उद्दीपन के हद तक नहीं जाता. कहा जाता है कि दनिया के साहित्य का बड़ा हिस्सा स्त्री सौंदर्य और उसके नख-शिख वर्णन का है, लेकिन आदिवासी गीतों में स्त्री के शारीरिक सौंदर्य के गीत नही ंके बराबर मिलेंगे. क्योंकि उनके लिए स्त्री सौंदर्य सिर्फ उसकी देह में नहीं, उसके कुल व्यक्तित्व से प्रस्फुटित होता है. उसका स्वभाव, उसकी कार्य कुशलता, लोगों से उसका व्यवहार आदि.

इसका यह अर्थ नहीं कि स्त्री सौंदर्य की कविताएं हैं ही नहीं, आधुनिक युवा आदिवासी कवियों का भावबोध बदला है और छिटपुट स्त्री सौंदर्य की भी कविताएं देखने को मिल जाती हैं, लेकिन जब वह अवतरित होती है तो संपूर्ण प्राकृतिक परिवेश के साथ. डा. रामदायाल मुंडा की कविता की चंद पंक्तियों को देखिये-

मैंने तुम्हें बचपन में देखा था

तुम सुकान पहाड़ की तरह उंची हो गयी हो

मैंने तुम्हें छुटपन में देखा था

तुम बंुडू बांध की तरह गहरी हो गयी हो.

प्रेम और सौंदर्य के इस उदात्त रूप में संकीर्ण बातों के लिए जगह कहां?