मणिपुर पिछले सप्ताह हिंसा की आग में जलता रहा. स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो रहा बताया जा रहा है. लेकिन पिछले एक सप्ताह में करीबन 54 लोगों के मारे जाने की खबर है और मणिुपर को एक तरह से सेना व सुरक्षा बलों के हवाले कर दिया गया है. इस संवेदनशील मसले के प्रति देश का केंद्रीय नेतृत्व कितनी संवेदनशील है, वह इस बात से समझा जा सकता है कि देश के प्रधानमंत्री पिछले कई दिनों से कर्नाटक में रोड शो कर रहे हैं.
हिंसा भड़कने की तत्कालीन वजह मणिपुर हाईकोर्ट का राज्य सरकार को दिया गया वह दिशा निर्देश है जिसमें कहा गया है कि राज्य में रहने वाले गैर आदिवासी मेताई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की प्रक्रिया शुरु की जाये जिसकी अनुशंषा दस वर्ष पहले की गयी थी. इस खबर के सामने आते ही आदिवासी समुदाय की तरफ से विरोध प्रदर्शन शुरु हो गया, जिसका नेतृत्व आॅल ट्राईबल स्टयूडेंट यूनियन कर रही है.
यहां इस बात को रेखांकित करने की जरूरत है कि आदिवासी और मेताइ समुदाय मणिपुर में सैकड़ों वर्षों से साथ रहते आये हैं. उनमें कभी इतने बड़े पैमाने पर टकराव नहीं हुआ. राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के अभ्योदय के बाद टकराव की यह राजनीति शुरु हुई है, जैसा कि विभिन्न राज्यों में देखने को मिल रहा है. झारखंड में ही आदिवासी, कुड़मी सदियों से साथ रहते आये हैं और उनमें किसी तरह का टकराव नहीं था, जैसी टकराव की स्थिति भाजपा के परिदृश्य में आने के बाद बन गयी है.
गौरतलब यह है कि सामान्यतः राज्य सरकारें केंद्र सरकार के पास किसी समुदाय विशेष को जनजाति सूचि में शामिल करने की अनुशंषा राज्य विधान सभा में पारित कर या मंत्रिमंडल की बैठक में पारित कर भेजती हैं, लेकिन यहां मेताइ समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की अनुशंषा केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से की है. दरअसल, मेताइ समुदाय - जिसमें मूलतः हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग हैं, की आबादी राज्य में 64 फीसदी के करीब है, जबकि आदिवासी आबादी जिसमें मुख्य रूप से कुकी-जुमी आदिवासी समुदाय के लोगों की आबादी महज 35 फीसदी के करीब रह गयी है. जाहिर है विधान सभा में मेताइ समुदाय के विधायकों की संख्या जहां 60 में 40 तक पहुंच गयी है, वहीं आदिवासी समुदाय के करीबन 20 विधायक रह गये हैं.
अहम सवाल यही है कि मणिुपर में गैर आदिवासी आबादी इस कदर कैसे बढ़ गयी कि वहां रहने वाले आदिवासी अल्पसंख्यक बन गये? तो, इसे हम झारखंड की स्थिति को सामने रख कर देख सकते हैं, जहां किसी जमाने में आदिवासी आबादी साठ फीसदी से अधिक थी, अब 26 फीसदी रह गयी है. मणिपुर पहले असम का ही हिस्सा था. बाद में पर्वतीय क्षेत्र को अलग कर एक अलग राज्य बनाने की मांग आदिवासियों ने की और मणिपुर का गठन हुआ.
भौगालिक संरचना यह कि राज्य के केंद्र में इंफाल वैली और उसके चारो तरफ पर्वतीय क्षेत्र - जैसे किसी स्टेडियम की संरचना होती है. आदिवासी मूलतः पर्वतीय क्षेत्र में रहते हैं. इंफाल घाटी में भी उनकी उपस्थिति थी, लेकिन बाजार, स्कूल, कालेज, प्रशासनिक कार्यालय आदि के विस्तार के साथ इंफाल वैली पर अब एक तरह से गैर आदिवासी आबादी काबिज हो गयी है.
अब वे पर्वतीय क्षेत्र में भी बढ़ना चाहते हैं, लेकिन आदिवासी इलाकों में उनके बसने पर अब तक पाबंदी है. तो, सारी मशक्कत इसी बात को लेकर है कि उन्हें आदिवासी इलाकों यानि पर्वतीय क्षेत्र में भी बढ़ने फैलने का मौका दिया जाये और इसके लिए जरूरी है आदिवासी होने का दर्जा. हालांकि उनका तर्क यह है कि वे आदिवासी दर्जा पूर्वजों से हासिल अपनी जमीन, संस्कृति, भाषा और परंपरा को बचाने के लिए चाहते हैं. मतलब यह हुआ कि जिस समुदाय को भी अपनी भाषा, संस्कृति, परंपरा और संसाधन बचाना हो, उन्हें ‘आदिवासी’ कवच की जरूरत है!
आदिवासी समूहों को इस बात की गंभीर आशंका है कि एक बार मेताइ समुदाय, आदिवासी का दर्जा प्राप्त कर लेंगे तो साधन संपन्न होने की वजह से वे पर्वतीय क्षेत्रों में जमीन खरीदने में सक्षम हो जायेंगे, शिक्षा आदि के क्षेत्र में आगे होने की वजह से वे नौकरियों में आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण का भी लाभ तेजी से उठायेंगे, जबकि वे अन्य दर्जों को मिलने वाले आरक्षण व सुविधाओं का लाभ पहले से उठाते आ रहे हैं.
आदिवासी अपने आंदोलन को अपने अस्तित्व की लड़ाई मान कर चल रहे हैं. और उनका आक्रोश कितने विस्फोटक रूप में प्रकट हुआ, वह इस बात से समझा जा सकता है कि इससे निबटने के लिए पुलिस, अर्द्धसैनिक और सैनिक बल- तीनों का इस्तेमाल करना पड़ा है. मणिपुर एक सीमावर्ती राज्य है और यह एक संवेदनशील मसला. विडंबना यह कि भाजपा हर जगह सिर्फ और सिर्फ वोटों के ध्रुवीकरण की दृष्टि से लगी हुई है.
मणिपुर के एक अवकाशप्राप्त पदाधिकारी के पोस्ट से
मणिपुर में तीन प्रमुख समुदाय हैं- मेताई, नागा और कुकि.
‘मेताई’ समुदाय में अधिकतर लोग ‘हिन्दू’ हैं, करीब 10 फीसदी. ‘मेताई’ अपने पारंपरिक धर्म ‘स्नामाही’ को मानते हैं, करीब 10 फीसदी ‘मेताई’ मुस्लिम हैं जिन्हें ‘पंगाल’ कहा जाता है. गिने चुने अनुसूचित जाति के ‘मेताई’ ईसाई भी हैं.
‘कुकि’ समुदाय में 18 अनुसूचित जनजातियां हैं और वे ईसाई धर्म को मानते हैं.
‘नागा’ समुदाय में करीब 15 अनुसूचित जनजातियां हैं और उनमें करीब करीब सभी ईसाई धर्म को मानते हैं, कुछ नागा हैँ जो अपने पारंपरिक धर्म को मानते हैं.
मणिपुर की धार्मिक जनसंख्या इस प्रकार है-
हिन्दू-41.39 फीसदी, (मेताई)
ईसाई- 41.29 फीसदी,(नागा और कुकि)
मुस्लिम- 8.40 फीसदी (मेताई ‘पंगाल’)
अन्य धर्म जिसमें मुख्यतः ‘स्नामाही’ (मेताई) - 8.19 फीसदी
ईसाई आबादी में 18 कुकि और 15 अनुसूचित जनजातियां शामिल हैं.
मणिपुर में जातीय दंगों का इतिहास रहा है.
1992-93 में नागा- कुकि के बीच खूनी जातीय दंगे हुए थे जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई थी, सैकड़ों गाँव उजड़ गए और हजारों घर जला दिए गए थे.
1997-98 में ‘थाडाओ’ और ‘पैटे’ (दोनों ‘कुकि’ अनुसूचित जनजातियां ) के बीच जातीय दंगे हुए थे जिसमें करीब 400 लोग मारे गए और हजारों घर जला दिए गए थे.
मणिपुर में जो दंगे वर्तमान में हो रहे हैं वो ‘मेताई’ और ‘कुकि’ समुदायों के बीच हो रहा है. इस दंगे में ‘नागा’ समुदाय के लोगों का अभी तक कोई रोल नहीं है. ये दंगे जातीय दंगे हैं जिसमें एक पक्ष अनुसूचित जनजाति हैं और दूसरा पक्ष गैर आदिवासी. मणिपुर का तीसरा बड़ा समुदाय- ‘नागा’ समुदाय जो कि अनुसूचित जनजाति समुदाय है, अभी तक इन दंगो में शामिल नहीं है.