देश के प्रधानमंत्री अपने दल का प्रचार मंत्री बन कर्नाटक में लगातार चुनाव प्रचार करते रहे. जिस वक्त मणिपुर जल रहा था, लोग मर रहे थे, उस वक्त वे बेशर्मी से वहां रोड शो कर रहे थे. एक धर्मनिरपेक्ष देश के राजप्रमुख होने के बावजूद ‘जय बजरंगबली’ का नारा लगा रहे थे. विकास की बड़ी-बड़ी डींगे हांक रहे थे. लेकिन कर्नाटक की जनता ने उन्हें वह झटका दिया जिसे मुहावरे की भाषा में - जोर का झटका धीरे से- कहा जा सकता है. कर्नाटक में भाजपा इस कदर हारी की वह जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने का सपना भी नहीं देख सकती. यह जीत 2019 में झारखंड में झामुमो गठबंधन की जीत के ही समान है.

आपको याद होगा कि झारखंड में भी चुनाव के पहले भाजपा उसी तरह डींगे हांक रही थी जिस तरह इस बार कर्नाटक चुनाव के पहले. उनका दावा था कि वे अपने दम पर 65 सीटों पर जीत दर्ज करेंगे. लेकिन इस कदर पराजित हुई कि तोड़ फोड़ कर भी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं रही. वह महज 25 सीटों पर सिमट गयी. झारखंड की राजनीति में उसकी सहयोगी बनी आजसू भी बुरी तरह पिट गयी. भाजपा ने झारखंड बनने के बाद लंबे समय तक यहां राज किया है और अधिकतर दूसरी पार्टियों और निर्दलीय विधायकों को खरीद कर. लेकिन पिछले चुनाव में उनकी ऐसी पराजय हुई कि यह मुश्किल था. महागठबंधन स्पष्ट बहुमत में थी. हालांकि, चुनावी राजनीति में पराजित हो जाने के बाद भी वह केंद्रीय जांच एजंसियों के माध्यम और झूठ का प्रोपगेंडा कर हेमंत की सरकार को अस्थिर करने का प्रयास करती रही है.

तो कर्नाटक की इस शर्मनाक पराजय का पहला असर तो झारखंड की राजनीति पर यही पड़ेगा कि भाजपा अपनी क्षुद्र हरकतों से बाज आयेगी. उसके बेलगाम अहंकार पर थोड़ा अंकुश लगेगा. हेमंत सोरेन ने अब तक अपने खिलाफ भाजपा के प्रोपगेंडे का बहादुरी से मुकाबला किया है और एक बार भी उनके दबाब के सामने झुकते नजर नहीं आये हैं. आगे वे अधिक आत्मविश्वास से काम काज कर पायेंगे.

दूसरी तरफ महागठबंधन भी नई उर्जा के साथ भविष्य की राजनीति की तरफ अग्रसर होगी. कांग्रेस के प्रति जनता का विश्वास इस जीत से बढ़ेगा, जिसका लाभ महागठबंधन को आने वाले लोकसभा चुनाव और झारखंड के विधान सभा चुनाव में मिलेगा. कर्नाटक चुनाव परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा के समर्थक उच्च वर्ग के लोग ही हैं. गरीब जनता उनके फरेब को समझने लगी है और तेजी से उनसे विमुख हो रही है. शहरी मध्यम वर्ग का बेरोजगार युवा तबका भाजपा के साथ नहीं रह गया है. झारखंड में भी इसका असर दिखेगा. सबसे बड़ी बात यह दिखी कि घार्मिक मुद्दे या प्रोपगेंडा कर्नाटक में काम नहीं कर सकी. दक्षिण भारत के लोग भी धर्मपरायण हैं, लेकिन धर्म और धर्म की राजनीतिक में फर्क करना जानते हैं. बजरंग बली की नारेबाजी से वे अप्रभावी रहे. वैसे, उत्तर भारत में उनकी राजनीति का आधार धार्मिक उन्माद पैदा कर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण ही है, फिर भी इस पराजय से उन्हें इस बात का एहसास तो हो ही गया होगा कि धर्म की राजनीति कमजोर पड़ रही है और जनता जमीनी विकास के पैमाने पर उन्हें तौलेगी.

कर्नाटक के इस पराजय से भाजपा के लिए दक्षिण का प्रवेश द्वार बंद हो चुका है. उत्तर भारत में भी उनकी उल्टी गिनती शुरु हो सकती है. बस जरूरत इस बात की है कि इस जीत से कांग्रेस बौड़ा न जाये और जमीनी वास्तविकता को घ्यान में रखते हुए विपक्षी एकता के लिए ईमानदारी से काम करे.