‘हनुमान चालीसा’ के सामूहिक पाठ के भव्य आयोजन का उद्घाटन करने शास्त्री जी पहुंचे. उनके पहुंचते ही मंच पर काबिज रामभक्तों ने जै श्रीराम और जै हनुमान का नारा ऐसे लगाया कि पंडाल सहित पूरा परिसर गूंज उठा. पंडाल में उमड़ी भीड़ के बीच एक कोने में सिमटी बैठी महिला-समूह को निहार कर शास्त्री जी गदगद हो उठे. उन्होंने मुदित-मन उद्घाटन-वाचन शुरू किया- “जब रामजी पुष्पक विमान में सीताजी को लेकर अयोध्या पधारे, तब हनुमान आदि भी उनके साथ थे. जब सबको विदा करने का समय आया, तो दरबार लगा. राम सबसे गले मिले और सीताजी ने सबके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया. सबकी आंखें भीग गईं. सबको पारितोषिक दिये गये. अब हनुमानजी की बारी आई. सीताजी ने अपने गले की मणिमाला उतारकर हनुमानजी को पहना दी और उन्हें गले लगाया. किंतु हनुमानजी को मणिमाला से क्या मतलब? उन्होंने उसे तोड़ा और मणि के हर दाने को दांत से फोड़-फोड़कर फेंकने लगे, क्योंकि उसमें रामनाम नहीं था.
यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ. सीताजी द्वारा अपने गले से उतारकर दी गई मणिमाला का यह हाल! सीताजी ने हनुमान से इसका कारण पूछा.
हनुमान बोले: ‘माता, जिस मणिमाला में रामनाम न हो उसे पहनकर मैं क्या करूंगा? मुझे रामनाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए.‘ सब लोगों को और भी आश्चर्य हुआ.
किसी ने कहा - ‘यदि ऐसी बात है तो तुम्हारे शरीर में भी रामनाम दिखाई नहीं देता, उसका क्या होगा?’
हनुमान ठठाकर हंसे और बोल उठे - ‘ठीक है, तो फिर देखो’ यह कहकर अपनी छाती फाड़ डाली और उससे रक्त का झरना गिरने लगा, जिसकी बूंद-बूंद में सबको रामनाम दिखाई दिया.
सब लोग एक साथ चिल्लाने लगे - ‘बस, बस, हमने देख लिया, हमने देख लियाय कृपा करो, कृपा करो.’
हनुमान ने फटी हुई छाती को बंद कर लिया और राजसभा में जयघोष हुआ. सीताजी ने उन्हें गले से लगा लिया और हर्ष के आंसुओं से नहला दिया…
इतना बोलकर शास्त्री जी ने गदगदायमान मुद्रा में सामने बैठी भीड़ को निहारा. तब तक शास्त्री जी के वाचन से चमत्कृत भीड़ में से कुछ युवा श्रोताओं ने नारा लगाया - शास्त्री की जय हो. इस पर मंच पर काबिज रामभक्तों ने फिर नारा लगाया - जै श्रीराम और जै हनुमान….
शास्त्री जी विधिवत हनुमान चालीसा का पाठ शुरू करने के लिए उठने को हुए, लेकिन तभी पंडाल के एक कोने में अब तक चुप बैठी महिलाओं के बीच से एक स्त्री उठी. वह चिल्ला कर बोली - “बाबा, यह तो गढ़ी हुई कहानी है. ‘रामायण’ में यह नहीं मिलती.”
सबकी नजर उस महिला की ओर मुड़ी. शास्त्री जी कुछ बोलते इसके पहले ही मंच पर बैठा एक रामभक्त बोला - अरे, माता जी, भक्ति का स्वरूप बताने के लिए यह कहानी गढ़ी गई है. लेकिन इससे रामायण अशुद्ध तो नहीं हो गया..”
“हां, बेटे लेकिन हनुमान को अपनी छाती फाड़कर दिखाने की क्या आवश्यकता थी? और हम इससे क्या शिक्षा ग्रहण करें?
“माताजी, आप भी हमारी तरह जै श्री राम नारा लगाओ तो समझ में आएगा कि भक्ति में कितनी शक्ति है.
“बेटे, हमने रामायण कथा में हनुमान को जय सियाराम जपते सुना. लेकिन शास्त्री जी ने अपनी गढ़ी हुई कहानी में तो हनुमान के मूल चरित्र को बदल दिया. अगर हनुमान को पारितोषिक जैसी किसी चीज की आवश्यकता नहीं थी और उनके लिए उनकी राम की सेवा ही पारितोषिक के समान थी, तो मणिमाला को आदर के साथ सीता माता को लौटा देते. खुद को सबसे बड़ा रामभक्त सिद्ध करने के लिए राम की अर्द्धांगिनी सीता के प्रेम-प्रतीक को दांतों से तोड़ कर फेंकने की क्या आवश्यकता थी? इसे उद्धतता कहें कि धृष्टता? शास्त्री जी मणिमाला को दांतों से तुड़वाकर हमें क्या यह शिक्षा देना चाहते हैं कि हनुमान की भक्ति दिखावे की भक्ति नहीं थी. मौखिक भक्ति भी नहीं थी? लेकिन तब तो, हम जैसी स्त्रियों को लगता है कि शास्त्री जी ने रामायण के हनुमान की इस छवि को ही गायब कर दिया कि सेवा ही उनकी भक्ति थी? उनके रोम-रोम में, श्वासोच्छवास में राम बसा हुआ था. उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते उन्हें राम की ही धुन लगी रहती थी. उन्होंने अपना मन, वचन और काया रामजी को अर्पित कर दी थी. उनकी शक्ति उनकी भक्ति पर आश्रित थी. वह उसीमें से विकसित हुई थी…”
स्त्री की बातें सुन मंच पर विराजमान शास्त्री सहित रामभक्त युवाओं को जैसे सांप सूंघ गया. लेकिन पंडाल के कोने में सिमटी बैठी महिलाएं एक साथ तालियां बजाने लगीं. सब महिलाएं एक साथ उठ खड़ी हुईं और पंडाल से बाहर निकल गयीं. उनके साथ निकलते हुए स्त्री तेज आवाज में बोलीं - “सीता बिना मै राम न पूजूं! शास्त्री जी, जय सियाराम!”