वेस्ट बंगाल के बीजेपी लीडर दशरथ तिरकी हो या झारखण्ड के बाबुलाल मरांडी, सबको आदिवासी महिलाओं का ख्याल आया गया इस फिल्म के रिलीज होते ही कि इनको यह दिखाया जाए।
कोई पूरी हॉल आदिवासी महिलाओं के लिए राँची में बुकिंग कर रहा तो कोई अलीपुरद्वार से असम ले जाकर बस में यह फिल्म दिखाने को बेताब हुए बैठे हैं।
आदिवासी महिला का सवाल जैसे इस फिल्म में खूब बारीकी से दिखाया गया है।
धिक्कार है ऐसे नेताओं पर जो अपनी आदिवासी महिलाओं को गाय-बकरी समझ कर चाय बागानों से उठा कर असम में केरला स्टोरी दिखाने ले जा रहे।
तो कोई कॉलेज की आदिवासी लड़कियों को फ्री में यह दिखाने के लिए टिकट खरीदे बैठे हैं।।
आदिवासी महिला के सवाल केरला स्टोरी में नहीं बल्कि निर्मला पुतुल की कविताओं में देखिए। ग्रेस कुजूर और रोज केरकेट्टा की लेखनियों में देखिए। जसिंता केरकेट्टा के लेखन में देखिए। पूनम वासम की चिंताओं में देखिए। उज्ज्वला ज्योति तिग्गा की कवितई में देखिए।
पर आप भगवाधारी पढ़ने लिखने के शौक से तो कोई वास्ता रखेंगे नहीं।
आदिवासी स्त्री के सवाल नहीं है तथाकथित श्लव जिहादश्.
आदिवासी स्त्री का सवाल नहीं है उनको इस्लामिक स्टेट में टार्चर करने की कहानी।
एक काल मिथकों का था जब आप सभी तथकथित सभ्यों ने महाकाव्य (रामायण, महाभारत आदि) लिखकर आदिवासियों को नीचा दिखाया।
अब नए युग के ये युगपुरुष फिल्मों के हवाले से अपना प्रोपेगंडा फैला रहे हैं।
इस्लाम के प्रति जो फोबिया है, मनगढ़ंत उसको हवा देती हुई इस घटिया वाहियात फिल्म को बैन किया जाना चाहिए।
और आदिवासी महिलाओं को इस फिल्म दिखाने के पीछे का सीधा अर्थ है कि आदिवासी महिलाएं जो आज तक धर्म के नाम पर कभी हिंसक नहीं रही उन्हें इस फिल्म के बहाने से एक खास सम्प्रदाय के प्रति घृणा से भरा जाए।
उनको भी मुस्लिम हैट्रेड का एक प्याला दिया जाए।
आदिवासी महिलाएं क्यों आखिर इतनी लिबरल दिखें।
कट्टर हिन्दू महिलाओं की भांति क्यों न ये सभी भी तलवार, भाला, और हथियार उठाये। दुर्गावाहिनी, काली सेना, आदि संगठनों की तरह यह भी हिन्दू राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका तय करें।
क्यों आखिर ये आदिवासी महिलाएं यह उच्चारण तख्तियां लेकर करें कि - ष्आदिवासी हिन्दू नहीं हैं।
‘आदिवासी धर्म का कॉलोम जनगणना में देना होगा.’
‘आदिवासी सरना कोड लेकर रहेंगे।’
परेशानी का सबब मुख्यतः यही है।
आदिवासी महिलाओं ने इस हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को नकारा है।
आदिवासी महिलाओं ने प्रेम की महत्ता को हमेशा स्वीकारा है।
अदिवासी महिलाओं के मन मस्तिष्क में आज तक धार्मिक उन्मादी बनने की कोई इच्छा आज तक नहीं दिखी है।
आदिवासी समाज आज तक इस्लामोफोबिया के गिरफ्त में नहीं आया है।
आदिवासी महिलाओं के सवाल से कोई वास्ता न रखने वाले यह नेतागण 2024 में लोकसभा इलेक्शन की तैयारी में अपने आकाओं को खुश करने के लिए इस तरह के आयोजन में लिप्त है।
आदिवासी समाज को इस तरह के लॉलीपॉप बेचने वाले नेताओं का सामाजिक राजनैतिक बहिष्कार करने चाहिए।
हम आदिवासी महिलाएं जहाँ कंही हैं अपनी आदिवासी पहचान के कारण शोषित हैं, चाहे वह जंगल हो, चाहे वह विश्वविद्यालय हो, चाहे वह सरकारी दफ्तर हो, चाहे वह डोमेस्टिक हेल्प के नाम पर महानगरों में हों।
मानसिक हिंसा से वह लगातार त्रस्त है। शारीरिक हिंसा से भी वह त्रस्त है।
सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर डालने वाली सत्ताएं आज आंख मूंदकर सिनेमाघरों का हवाला दे रही हैं।
मणिपुर को जलता छोड़कर मल्टीप्लेक्स में अपने अय्याशी का पैसा उड़ा रही है।
आदिवासी महिलाएं इतनी नासमझ नहीं कि आपके एक फिल्म दिखा देने से वे आपके हत्यारी मंसूबों का औजार बन जाएंगी।
फूलों-झानो, सिनगी दई- कईली दई की वंशज हैं हम।
आपकी मंशाओं पर पानी फेरकर रहेंगी।