बहुधा यह भ्रम बनाया जाता है कि नक्सली आंदोलन, जो वर्तमान में माओवादी संघर्ष के रूप में ही बचा है, आदिवासी संघर्ष ही है. इसका भीषण खमियाजा आदिवासी समाज और आदिवासी आंदोलनों को भुगतना पड़ा है. भावना के अतिरेक में सदियों तक चला आर्य अनार्य संघर्ष, अंग्रेजों के जमाने में चला ‘हूल’ और ‘उलगुलान’ और आजादी के बाद भी जल,जंगल,जमीन को बचाने के लिए चले आंदोलनों को भी नक्सल आंदोलन से जोड़ दिया जाता है. इस भ्रम को सत्ता पक्ष भी बनाता है और नक्सलबाड़ी आंदोलन से भावनात्मक रिश्ता बनाने वाले और उसे ‘ग्लोरीफाई’ करने वाले लोग भी. इससे सत्ता पक्ष को हिंसक आंदोलन-संघर्ष के नाम पर शांतिमय संघर्ष के दमन का अवसर मिल जाता है और नक्सल समर्थकों को भी यह भ्रमजाल बनाने का मौका कि नक्सल आंदोलन अभी भी चल रहा है.
आईये पहले हम इस गुत्थी को साफ करें कि क्या आदिवासी संघर्ष परंपरा किसी भी तरह से नक्सल आंदोलन या माओवाद से जुड़ता है? तो जवाब स्पष्ट रूप से ‘नहीं’ है. नक्सल आंदोलन का इतिहास महज 70-75 वर्ष पहले शुरु होता है. उसे कम्युनिस्ट आंदोलन से जोड़ कर भी देखें तो वह सौ वर्ष पहले तक जाता है. जबकि आदिवासी समाज का संघर्ष शताब्दियों पुराना है. पुराने दौर में यदि उसके संघर्ष को हम सदिंयों तक चलने वाले आर्य, अनार्य संघर्ष के रूप में देखते हैं तो आधुनिक काल में ‘हूल’ और ‘उलगुलान’ से होते हुए महाजनी शोषण के खिलाफ शिबू सोरेन, एके राय और विनोद बिहारी महतो के नेतृत्व में चले ‘धनकटनी आंदोलन’, ‘कोयलकारो’, ‘तपकारा’, ‘सुवर्णरेखा परियोजना के खिलाफ चले आंदोलन’, वर्तमान में भी जारी नेतरहाट फायरिंग रेंज के खिलाफ चल रहे आंदोलन के रूप में देखते हैं.
आदिवासियों के तमाम संघर्ष व्यापक जनभागिदारी वाला खुला संघर्ष रहा है और उसकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रही. वे सिर्फ जल, जंगल, जमीन पर आमजन के अधिकार का संघर्ष रहा है. जबकि नक्सली या माओवादी के लिए हर छोटे-बड़े संघर्ष, जनता को गोलबंद कर राजसत्ता पर काबिज होने का माध्यम हैं. भविष्य का कोई ब्लू प्रिंट सामने नहीं. उनके समाज में मनुष्य और प्रकृति के बीच कैसा रिश्ता होगा? विकास की उनकी अवधारणा क्या है? वे बड़े कारखानों या बांधों के समर्थक होंगे या विरोधी? कुछ भी स्पष्ट नहीं, उसका बस एक ठोस रूप सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर पार्टी के चंद खुर्राट नेताओं की तानाशाही है.
संघर्ष के तरीके में भी भिन्नता है. आदिवासी संधर्ष जनता की ताकत के भरोसे चलता है. वे अपने संघर्ष के लिए कोई ‘हिरावल दस्ता’ या ‘लाल सेना’ नहीं बनाते. संघर्ष के दौरान पूरा समाज - औरत, मर्द, युवा, बूढ़े, सभी संघर्ष के सिपाही होते हैं.
आदिवासी अपनी सुरक्षा के लिए तीर धनुष रखते हैं. इससे उनकी यह छवि बनायी जाती है कि वे हिंसक प्रवृत्ति के हैं. जबकि वे कभी अतिक्रमणकारी नहीं होते. संथाल संघर्ष यानि ‘हूल’ की शुरुआत के पहले आदिवासी समाज कोलकाता जाकर अंग्रेज शासकों से फरियाद करना चाहता था कि देखो, तुम्हारे हिंदू जमींदार, कारिंदे हम पर जुल्म कर रहे हैं. वे हमसे हमारी जमीन छीन रहे हैं. हमारी औरतों के साथ दुराचार कर रहे हैं. आंदोलन हिंसक तब हुआ जब सिपाहियों ने सिदू, कान्हू को गिरफ्तार करने की कोशिश की.
यह भी सभी जानते हैं, कि वे कभी छिप कर वार नहीं करते थे. वे जिस इलाके पर आक्रमण के लिए निकलते, वहां पहले संदेश भेजते कि हम आ रहे हैं. तुम हमारे इलाके से निकल जाओ.
महाजनी शोषण के खिलाफ संघर्ष में भी छिटपुट हिंसा की घटनाएं हुई. ज्यादातर आंदोलनकारियों ने शहादत ही दी. और तो और अलग झारखंड आंदोलन कुल मिला कर न्यूनतम हिंसा के सहारे चला और अपने मुकाम तक पहुंचा.
जबकि नक्सल, माओवादी हिंसा के दौरान अब तक असंख्य लोग मारे गये. माओवादियों ने कुछ अपवादों को छोड़ अधिकतर पुलिस का मुखबिर और महाजन बता कर गांव के गरीब लोगों को ही मारा या फिर सुरक्षा बल के जवानों को जो किसान मजदूर या फिर निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से आते थे.
आदिवासी संघर्ष से हासिल क्या हुआ? जल, जंगल, जमीन पर आदिवासी अधिकार अब भी बना हुआ है, भले उसे छीनने के प्रयास जारी हैं. तमाम विशेष भूमि कानून, पांचवी और छठी अनुसूचित क्षेत्र, पेसा कानून, अलग झारखंड राज्य आदि आदिवासी संघर्ष के ही परिणाम हैं. इसकी तुलना में नक्सल या माओवादी आंदोलन से क्या हासिल हुआ, इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
याद रखिये, आदिवासी संघर्ष परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान ‘अखड़ा’ का होता है. जहां बैठ पूरा गांव सामूहिक निर्णय लेता है. जबकि माओवादी या नक्सली संघर्ष के कार्यक्रम, नीतियां ‘पोलित ब्यूरो’ जैसी कमेटियों में ली जाती है जिसके मुट्ठी भर सदस्य होते हैं. वे मान कर चलते हैं कि जनता मूढ़ होती है. अपना हित नहीं समझती. उनके भले, बुरे के बारे में हमे ही सोचना है और निर्णय लेना है.