परिदृश्यः एक

देश के पढ़े-लिखे समाजों में जो लोग नये प्रभाव और नये विचार ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं, उनको भी यह महसूस होने लगा है कि अब, खास कर ‘महामारी’ (कोविड-19) के बाद से - उनकी पुरानी आशाएं और पुरानी आस्थाएं बेतरह और भयानक रूप से हिलने लगी हैं। दीवार पर लटके घड़ी के पेंडुलम की तरह मन में हो रहे आलोड़न की गति इतनी तेज है कि उनको लगता है कि यह किसी बड़े परिवर्तन का संकेत है। लेकिन परिवर्तन किस रूप में हो रहा है, यह उनके ‘अनार्टिफिशियल’ इंटेलिजेंस की पकड़ में नहीं आ रहा है! ‘अनार्टिफिशियल’ इंटेलिजेंस माने, निश्छल या निष्कपट बुद्धिमत्ता! उनकी नजर में इसी बुद्धिमत्ता ने उनमें ब्रह्मांड में अन्य ‘प्राणियों की तरह बने रहने की ‘प्रकृति’ का निषेध करने की ‘प्रवृत्ति’ का विकास किया और ‘मनुष्यता’ और ‘पशुता’ के बीच के फर्क को पहचानना सिखाया। वस्तुतः यह बुद्धिमत्ता ही ‘मानव-सभ्यता’ के निर्माण और विकास की असली बुनियाद है। लेकिन देश में कोरोना काल की ‘आपदा’ को अमृत-काल का ‘अवसर’ बनाने के आर्टिफिशियल (कृत्रिम या फर्जी!) प्रभु-प्रयासों के बीच उन्हें महसूस होने लगा , “अरे, ये तो गजबे हो रहा है! इंटेलिजेंस के हमारे बुनियादी अर्थ को ही ‘बेमानी’ करार दिया जा रहा है!”

दरअसल, सबको लगने लगा है कि उनके जीवन की घड़ी में सुइयों के नियमित वृत्ताकार घूमने की और झूलते ‘लोलक’ यानी ‘पेंडुलम’ के दोलन की आवर्तक क्रियाओं और बजनेवाली ‘घंटी’ यानी अनुनाद में अब कोई ताल-मेल नहीं रह गया है। लगता है, जीवन-घड़ी का पेंडुलम ‘दोलन’ नहीं, बल्कि ‘आंदोलन’ कर रहा है। उसमें नियमित बजने वाली घंटी का ट्रिंग-ट्रिंग ‘स्वर’ अनियमित घंटा का टन्-टन्-ट्रांग ‘शोर’ बन गया है! यह किस परिवर्तन का सूचक है? अच्छे दिन के नये खतरे का? या पुराण-काल के काल्पनिक ‘खराब’ दिनों का यथार्थ में ढलने का?

25 मई, 2020 के बाद से देश के लोग खुद को सभ्य माननेवाली असहाय ‘प्रजा’ और दूसरों को असभ्य माननेवाले समर्थ ‘प्रभु’ भी - तकलीफ के साथ महसूस करने लगे थे कि इस समय जो कुछ चल रहा है, वह और भी ज््यादा डराने वाला है। असीमित सम्पन्नता के बोझ से जनमता नया उग्रवाद! धार्मिक आतंकवाद को सत्ता का राजनीतिक संरक्षण! करोड़ों की तादाद में रोजगार से वंचित होते लोग। इलाज के अभाव में अस्पतालों की सीढ़ियों पर दम तोड़ते लोग। और फिर, महामारी के जद में आनेवालों और मौत की नींद सोने वालों की गिनती करना बेमानी हो गया! बहुसंख्यक प्रजा गूंगी-सी हो गयी और अल्पसंख्यक प्रभु बहरे-से!

राष्ट्रीय मीडिया संस्थान खम ठोंक कर उन लोगों, संस्थाओं और प्रभु-पिता (गॉड फादर) के ‘माउथ पीस’ बन गये, जो देश में ‘लोकतंत्र’ को मजाक बना कर मजा ले रहे थे, तकलीफ को तमाशा बना रहे थे। वह भी तब जब आम नागरिकों में किसी तरह का विरोध या असहमति व्यक्त करने का साहस ही नहीं बचा था!

यूं ‘लॉक डाउन’ लोकतंत्र में कोरोना-वायरस के हमले से आक्रांत भारतीय समाजों को यह बुझाने लगा था कि उनके दिल-दिमाग पर पहले से ही कई ‘वायरस’ काबिज हैं। ये वायरस अतीत से अब तक चिपके हुए हैं, जिन्हें जीवन-रक्षक मान कर वे खुद उनका पोषण करते आ रहे हैं। लेकिन 300 दिन बाद भी उन्हें यह समझ में नहीं आया कि कोरोना वायरस के अर्थमेटिक प्रोग्रेशन (संख्यात्मक वृद्धि) के साथ हो रहे ‘ज्यामेट्रिकल प्रोग्रेशन’ (गुणात्मक वृद्धि) की मारक-क्षमता में उनके दिल-दिमाग पर काबिज सदियों पुराने वायरस किस तरह के एक्टिव ‘कैरियर’ (वाहक) की भूमिका निभा रहे हैं? जीवन के हर क्षेत्र को त्रस्त-पस्त, और क्षत-विक्षत करने में नये वायरस को ये पुराने वायरस कैसा ‘घातक’ सहयोग कर रहे हैं?

परिदृश्य: दो

यूं हर परिवर्तन हर ‘इंडिविजुअल’ व्यक्ति के स्वभाव और परिस्थिति पर निर्भर है, लेकिन किसी न किसी रूप में परिवर्तन का उक्त एहसास आज सार्वत्रिक है। परिवर्तन के इस एहसास का एक प्रमुख कारण रही - ‘महामारी’। लेकिन सिर्फ एक प्रमुख कारण। कुछ परिणाम या प्रभाव जो सार्वत्रिक रूप में आज भी प्रकट हो रहे हैं, उनसे एक जैसी समझ यह बन रही है कि हमें अपनी वैयक्तिक आशाओं और आस्थाओं सहित समष्टि के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक जीवन का अमूल ‘पुनर्निर्माण’ करना होगा। वह भी बड़े पैमाने पर। यानी इसके लिए ‘लोकतंत्र’ पर ‘पुनर्विचार’ करना होगा, 90 साल के लम्बे संघर्ष के बाद हासिल 75 वर्षीय लोकतंत्र को अब ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ नहीं माना जा सकता।

सो, इसके लिए देश में पढ़े-लिखे लोग विचार-विमर्श का मंच बनाने की सोचने लगे। या ऐसे विविध मंचों पर एकत्रित होना चाहने लगे। कुछ जगह हुए भी। लेकिन पहले कदम पर ही वे इस सवाल में फंस गये कि ‘लोकतंत्र’ में किसी ‘विचार’ को वे अच्छा या बुरा विचार कब कहते हैं? अब तक तो उन्हें यह समझ में आता था कि वह विचार ‘अच्छा’ है जो जिज्ञासा के ‘बौद्धिक’ आवेग से उत्पन्न होता है और जानने और समझने की इच्छा की ओर ले जाता है। लेकिन अब कहा जाने लगा है कि आज तक लोकतंत्र में जिन्हें ‘विचार’ कहा जा रहा था, उनमें से अधिकांश किसी न किसी ‘अ-बौद्धिक’ आवेग द्वारा प्रेरित हैं!

आजादी के बाद से देश-समाज के अधिकांश बुद्धिजीवी घास-फूस के अपने-अपने शैक्षणिक ‘घोसलों’ से इस शास्त्रीय ज्ञान की उड़ान भर रहे थे कि आवेग तो मुख्यतः दो हैं। एक, सृजन का आवेग और दूसरा स्वामित्व का आवेग। लेकिन दोनों में दो आधार कॉमन हैं। एक, किसी चीज को प्राप्त करने का या अपने पास रखने का आवेग, जिसके उपयोग में किसी दूसरे को सम्मिलित न किया जा सके। दूसरा, देश-दुनिया को कोई ऐसी चीज देने का आवेग, जिस पर किसी का निजी स्वामित्व संभव न हो। सृजनात्मक आवेग मूलतः सामंजस्यपूर्ण होते हैं, क्योंकि वह चीज जिसका सृजन कोई एक आदमी करता है, उस चीज में बाधक नहीं हो सकती जिसका सृजन कोई दूसरा आदमी करना चाह रहा है। सृजनात्मक आवेग में निजी स्वमित्व की संभावना का निषेध है।

लेकिन जब से घास-फूस के शैक्षणिक घोंसलों को ईंट-गारे से पक्का किया जाने लगा, तो वे महसूस करने लगे कि स्वामित्व के आवेग और सृजन के आवेग के बीच ‘संघर्ष’ है, रगड़-घस है, विवाद है। राजनीतिक दृष्टि से हो या आध्यात्मिक दृष्टि से, या फिर नैतिक दृष्टि से, सृजन और स्वामित्व के आवेग परस्पर विरोधी दीखते हैं, लेकिन संस्थागत स्थाइत्व लिए दोनों को यह द्वन्द्वात्मक स्थिति मान्य है।

लेकिन ‘लॉकडाउन’ लोकतंत्र में जब पक्के घोंसले ‘पिंजरों’ में तब्दील होते दिखने लगे, तो अपनी ‘तटस्थता को ‘निष्पक्षता’ का पर्याय करार देने के लिए एडी-चोटी का पसीना एक करने वाले बौद्धिकों को भी यह समझ में आने लगा कि सृजनात्मक आवेग की जड़ें भी स्वामित्व के आवेग में हैं। और इससे बड़ी बात यह कि ‘सृजन’ और ‘स्वामित्व’ के आवेग के आधार ‘टाइम’ (समय) के धरातल पर ‘टाइमिंग’ (‘आपदा’ और ‘अवसर’) के अनुसार बड़ी आसानी से एक दूसरे में बदल जाते हैं।

और अब? आज तो लगता है कि देश में बरसों से आवेगहीन जीवन जीता बहुसंख्यक पढ़ा-लिखा अबौद्धिक-वर्ग भी ‘टाइम और टाइमिंग’ के इस चक्कर में फंस गया है! खासकर, जब से देश में ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ के जाल के आकर्षण और आतंक को लेकर सृजन के स्वामित्विक आवेग और स्वामित्व के सृजनात्मक आवेग से बंधे बौद्धिक ‘प्रभुओं’ के बीच बहस छिड़ी है, इस बहुसंख्यक पढ़े-लिखे अ-बौद्धिक ‘लोक’ को ‘चक्कर में चमत्कार’ का मजा आने लगा है।

परिदृश्यः तीन

बहरहाल, देश के बहुसंख्यक पढ़े-लिखे अ-बौद्धिक ‘लोक’ को अब यह समझ में आने लगा है कि लोकतंत्र में किसी समाज की प्रगति और विकास की ही नहीं, बल्कि दुर्गति और विनाश की भी अनिवार्य शर्त होती है - न्यूनतम सामाजिक सहमति। यह तो अब जग जाहिर है कि किसी भी समाज के पास अपने हर सामाजिक प्रश्न और समस्या का उत्तर नहीं है, होता भी नहीं। लेकिन दूसरी ओर अब ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ टेक्नॉलॉजी से लैस कम्यूनिकेशन-क्रांति के चलते हर समाज के सामाजिक और मानसिक ‘फ्रेम-वर्क’ में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। ये परिवर्तन ऐसे नये प्रश्नों और नई समस्याओं को जन्म दे रहे हैं, जिनका समाधान परंपरा की परिधि में पा सकना अमूमन कठिन होता जा रहा है।

देश का बौद्धिक ‘प्रजा-वर्ग’ तो यह पहले से जानता-समझता आया है और पाठ्यपुस्तकों से ‘डार्विन’ को निकालने को उद्धत प्रभु-वर्ग भी इससे अनजान नहीं है - कि मनुष्य जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी तब बना, जब सांस्कृतिक अभिवृत्तियों, मूल्यों और व्यवहार-प्रकारों का इवोल्यूशन, निर्माण और विकास शुरू हुआ। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि संस्कृति का इवोल्यूशन, रिवोल्यूशन और विकास मनुष्य के जैविकीय से सामाजिक प्राणी बनने और उसके उत्थान-पतन की प्रक्रिया का प्रमाण है।

लेकिन कालांतर में यह बात भी स्पष्ट नजर आने लगी कि समाज के विकास के तहत ‘विसमाजीकरण’ की प्रक्रिया भी चलती है। ‘विसमाजीकरण’ का अर्थ है समाजीकरण का उल्टा - समाज में परंपरा से चली आ रही रीति-नीति का अवमूल्यन और ‘पुनर्समाजीकरण’ - नई मान्यताओं और मूल्यों की उत्पत्ति, स्वीकृति एवं ग्रहण करने की क्रिया-प्रतिक्रिया।

इन प्रक्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के तहत यह सवाल पहले भी विचारणीय रहा है कि ‘सत्ता’ (संचालन, नियमन और नियंत्रण के संदर्भ में) जिनके हाथ में है वे ‘समाजीकरण’ की किस प्रवृत्ति के पोषक हैं? विसमाजीकरण के या पुनर्समाजीकरण के? सत्ताधीशों (प्रभुवर्ग) की ‘प्रवृत्ति’ और भोक्ताओं (प्रजा-वर्ग) की ‘प्रकृति’ में क्या फर्क या फासला है? इस फर्क या फासले की पहचान कैसे हो? समाज की परंपराओं, रीति-नीति और संस्कृति के संदर्भ में उनकी इच्छा, आशा, और अपेक्षाएं क्या मायने रखती हैं?

लेकिन आज भारत में हो यह रहा है कि यहां के समाज-जीवन में पहले जो प्रश्नाकुल घड़ियां बरसों या पीढियों बाद आती थीं वे अब हर साल या कहें चंद महीनों के अंतराल में चैंकाने या स्तब्ध करने वाले रूप में सामने आ रही हैं। इसके चलते देश के लोकतांत्रिक समाज के लिए पल-पल अपने सामाजिक लक्ष्यों और उन्हें पाने के साधनों के बारे में नये सिरे से सोचना आवश्यक हो रहा है, लेकिन बदलाव की तेज रफ्तार और सवालों-समस्याओं की बौछार में समाज को एक पल से दूसरे पल के बीच सहभागी चिंतन करने और न्यूनतम सामाजिक सहमति जुटाने भर का ‘टाइम’ नहीं मिल पा रहा।

यूं एक तरफ कम्युनिकेशन तकनीक के जादुई विकास से यह संभव दिखता है कि इससे सहमति की चर्चा के लिए ‘टाइम’ क्रिएट किया जा सकता है। ऐसी चर्चा से देश-समाज की स्थितियों और समस्याओं को व्यापक सामाजिक परिदृश्य में समझने में सहायता मिल सकती है। इस तरह की चर्चा वह सामूहिक ‘विवेक’ उत्पन्न करने में मददगार हो सकती है, जो समस्याओं के संभव हल के संबंध में सामाजिक सहमति और प्रयत्नों को जन्म देता है। लेकिन दूसरी तरफ तकनीक के विकास के साथ अब यह अनुभव आम हो रहा है कि कम्युनिकेशन तकनीक पर निर्भर चर्चा सामूहिक विवेक उत्पन्न करने में मददगार नहीं हो पा रही। तकनीक के साथ उठने और गिरने वाली चर्चा से वह सामाजिक वातावरण या स्पेस नहीं बन रहा जिससे सामूहिक विवेक के जन्म के प्रति समाज में आस्था या भरोसा हो। ऐसे में, देश का आवेगयुक्त अल्पसंख्यक बौद्धिक वर्ग क्या ‘करे’ और आवेगहीन बहुसंख्यक अबौद्धिक क्या ‘भरे’?