संघ परिवार और भाजपा के शीर्ष नेता नितीन गडकरी ने ट्विटर पर आदिवासी समाज की दारुण अवस्था के बारे में लिखा है. पहली प्रतिक्रिया तो यही होती है कि उनकी स्थिति में सुधार करने के लिए केंद्र सरकार कर क्या रही है? कम से कम पिछले आठ दस वर्षों से तो उन्हीं का शासन देश में है. इसके अलावा समस्या की समझ उनकी क्या है? उनके पोस्ट से तो यही लगता है कि आदिवासी होने की वजह से आदिवासी किसानों को सरकार से उचित मुआवजा, कर्ज आदि नहीं मिल पाता है? यानि प्रकारांतर से वे यह कहते हैं कि आदिवासी को गैर आदिवासी बन जाना चाहिए, तभी सरकार उनकी मदद कर पायेगी. इसका दूसरा अर्थ यह भी हुआ कि आदिवासी इलाकों में आदिवासियों के लिए जो विशेष भूमि कानून है, उसे खत्म किया जाना चाहिए ताकि आदिवासी भी जमीन के बदले कर्ज आदि ले सकें. यह बात तो गडकरी के वर्षों पूर्व बाबूलाल मरांडी कह चुके हैं कि सीएनटी एक्ट में संशोधन कर देना चाहिए ताकि आदिवासी अपनी जमीन बेच कर धन्ना सेठों की तरह रह सके.
आईये अब वे आदिवासियों की बुरी अवस्था के विषय में मुख्य बात क्या कहते हैं, यह जाने. वे कहते हैं कि दिल्ली के सुलभ शौचालयों में काम करने वाले सभी कर्मचारी आज की तारीख में आदिवासी हैं. इसलिए असली दलित तो आदिवासी बन गया है. बात सुनने में सही होने का भ्रम पैदा करती है. हम रांची शहर में भी सड़कों की सफाई आदि कार्य में आदिवासी समुदाय के लोगों को देखते हैं. जमीन छिन जाने के बाद जीवन का कोई जनाधार नहीं रह जाने के बाद वे इस काम को करने लगे हैं. लेकिन सफाई कार्य तो दुनिया के तमाम मुल्कों में होता है. आदिवासी समाज के लोग भी अपना घर, गांव की सफाई नियमित रूप से करते हैं. लेकिन दुनिया में या आदिवासी गांवों में सफाई काम करके आदिवासी दलित नहीं बन गया. सफाई कार्य करने वाला हिंदू वर्ण व्यवस्था में ही दलित और अछूत बना दिया जाता है. यह समस्या हिंदू वर्ण व्यवस्था/मनुवादी व्यवस्था की है जिसमें श्रम की कोई प्रतिष्ठा नहीं, उल्टे उन्हें सबसे न्यूनतम पारिश्रमिक पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है.
एक बात वे यह भी कहते हैं. वह यह कि आदिवासी खेती बाड़ी करने वाला देश का दूसरा सबसे बड़ा समुदाय है. यह एक अधूरा सत्य है. आदिवासी पठारी क्षेत्र में रहता है. गैर आदिवासी समुदाय समतल क्षेत्र में. आदिवासी अर्थ व्यवस्था इसलिए पूरी तरह खेती पर निर्भर है ही नहीं. वह खेती और वनोत्पाद दोनों पर निर्भर है. तथाकथित विकास योजनाओं के लिए वन और पहाड़ काटे जा रहे हैं. आदिवासियों को औद्योगिक विकास के नाम पर उनके घर,गांव से उजाड़ा गया. देश में कम से कम एक तिहाई आदिवासी विकास योजनाओं के नाम पर विस्थापित किये गये. इसके लिए कौन जिम्मेदार है? अभी भी वनाधिकार कानून के बावजूद उन्हें वनों से निकाला जा रहा है. और उन्हें नक्सली कह कर तबाह कौन कर रहा है?
पहले यह सुनिश्चित कीजिये कि आदिवासी की बर्बादी के लिए जिम्मेदार कौन है, क्योंकि उन्होंने तो ‘आदिवासी’ होना ही उनकी तबाही का कारण बता दिया है? क्या आप भी यही मानते हैं?