संसदीय चुनाव और उसके आस पास होने वाली विधानसभा चुनावों के मुहाने पर खड़ी झारखंड की धरती तप रही है. ‘ग्लोबल वार्मिंग’ तो वजह है ही, झारखंड की दो प्रमुख सामाजिक शक्ति आदिवासी और कुड़मी विवाद की वजह से भी यह तपिष बढ़ गयी है. सोशल मीडिया में दोनों पक्षों के सूरमा भिड़े हुए हैं. तमाम अन्य मुद्दे गौण पड़ चुके हैं. आगे के जीवन का सारा दारोमदार इसी सवाल पर केंद्रीत हो चुका है.

मजेदार तथ्य यह कि इस पूरी लड़ाई के सूत्र दोनों समुदाओं के सूरमाओं के पास नहीं. इस लड़ाई का सबसे ज्यादा राजनीतिक फायदा उठाने वाली भाजपा के शीर्ष नेताओं के हाथ में है. उन्हें ही इस सवाल को हल करना है कि वे इसे कैसे और कब हल करेंगे. चाहे आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक कोड का मामला हो या फिर कुड़मियों को जनजाति सूचि में शामिल करने का मामला, फैसला उन्हें करना है.

आप कहेंगे, नहीं, पहले राज्य सरकार इसका अनुमोदन करे, विधानसभा में इसे पारित कर केंद्र सरकार को भेजे, उसके बाद ही केंद्र सरकार कुछ फैसला लेगी. लोग भूल जाते हैं कि केंद्र में बैठी भाजपा सरकार नियमों, कायदों की उतनी पाबंद नहीं. सरना कोड का प्रस्ताव तो राज्य सरकार विधानसभा में पारित कर केंद्र को भेज चुकी है. उस पर कहां कोई फैसला सरकार ने अब तक लिया है? दूसरी तरफ मणिपुर में गैर आदिवासी मेताई समुदाय को जनजाति सूचि में शामिल करने के सवाल पर उसने अपना स्टैंड ले लिया और उनके पक्ष में खड़ी हो चुकी है.

यह सवाल उठता है कि केद्र की भाजपा सरकार और भाजपा के शीर्ष व स्थानीय नेता इस सवाल पर खुल कर कुड़मी समुदाय के पक्ष में क्यों नहीं. दरअसल, उन्हें लगता है कि कुड़मी/कुर्मी समुदाय के नेता और लोग तो पहले से उनके साथ हैं. रामटहल चैधरी, रीतलाल वर्मा, सुदेश महतो जैसे नेता तो वर्षों से उनके साथ हैं और झारखंड में उनकी मदद की बदौलत ही तो वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं.

लेकिन कई आदिवासी नेताओं के पाले में आने के बावजूद आदिवासी जनता उनके पीछे गोलबंद नहीं. इसलिए वे तत्काल कोई जोखम नहीं उठाना चाहते. इससे बेहतर तो यही है कि इस मुद्दे को लेकर झारखंड की दोनों प्रमुख ताकतें आपस में लड़ती रहे. दोनों के संबंध इतने बिगड़ जायें कि उनके करीब आने का कोई रास्ता ही न बचे. बचे खुचे कुड़मी, जो अब भी राजनीतिक रूप से झामुमो के साथ जुड़े हैं, भी टूट कर उनके पाले में आ जायें.

और वे अपनी रणनीति में बुरी तरह सफल होते जा रहे हैं. हद तो यह कि एक जमाने में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़ कर अपने नामों से जाति सूचक उपनाम हटाने वाले कल के अनेक युवा भी इस राजनीति में शामिल हो चुके हैं.