विधि आयोग ने अपने 279वें रिपोर्ट में बहु विवादित राजद्रोह कानून की सिफारिश की है. उसने कहा कि राजद्रोह का कानून, जो इंडियन पेनल कोड की 124ए की धारा है, को और भी कठोर बनाना है. उसने मुख्यतः तीन बातों पर जोर दिया है. पहला, राजद्रोह के कानून का दायरा बढाना. दूसरा, राजद्रोह की सजा को और कठोर बनाना. तीसरा, इस कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश बने.
देशद्रोह से संबंधित केंद्र सरकार की यह मंशा सुप्रीम कोर्ट के देशद्रोह कानून के स्थगन के लगभग एक वर्ष के बाद आया है. उस समय उच्चतम न्यायालय में 124 ए की धारा को चुनौती दी गई थी और उसी के सम्बन्ध में कोर्ट मे सुनवाई हो रही थी, जो मुख्यतः इस बात पर आधारित थी कि इस कानून के द्वारा नागरिकों के बोलने की आजादी को बाधित किया जा रहा है.
इस केस को एसजी वोमबटकेरे बनाम केंद्र सरकार का केस कहा गया है. उस समय केद्र सरकार खुद सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट इस केस के संबंध में कोई निर्णय लेने के पहले उसकी बात को भी सुने. केन्द्र सरकार भी मानती है कि बोलने की आजादी बहुत महत्वपूर्ण अधिकार है और वह खुद चाहती है कि औपनिवेशिक कानूनों को पूरी तरह से हटा दे.
उसने इस बात पर जोर दिया कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा ही उसकी प्रथमिकता है और संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के इन अधिकारों की रक्षा करना उसका कर्तव्य है. देश जब अपनी आजादी के पचहत्तर वर्ष पूरा कर अमृतकाल में प्रवेश किया है तो इस समय प्रधानमंत्री मोदी जी चाहते हैं कि इस औपनिवेशिक बोझ को उठा कर फेक दंे. लेकिन इसकी एक शर्त भी है. इस प्रक्रिया में सरकार अपने देश की संप्रभुता तथा एकता को कोई आँच आते नहीं देख सकती है. इसलिए केन्द्र सरकार देशद्रोह कानून पर पुनर्विचार के लिए समय चाहती है.
केंद्र सरकार के इन विचारों की ही पुष्टि विधि आयोग ने अपने रिपोर्ट में किया है. उसके अनुसार देश में नक्सलवाद, उत्तरपूर्व राज्यों में विद्रोह की स्थिति, जम्मू कश्मीर में आतंकवाद, देश के अन्दर अलगावादी आंदोलन तथा सोशल मीडिया का रुख आदि ऐसी चुनौतियां हैं जिसका सामना सरकार को करना पड़ता है. इसलिए एक प्रभावकारी राजद्रोह कानून की आवश्यकता पर आयोग जोर देता है.
देशद्रोह कानून को नागरिकों के बोलने तथा अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश मान कर चुनौती देने वालों का तर्क है कि देश के आतंकवाद से देश की रक्षा करने के लिए सरकार के पास आतंकवादी विरोधी कई कानून हैं. जैसे, यूएपीए 1969, एनएसए 1978, और जम्मू कश्मीर नागरिक सुरक्षा कानून 1978 आदि कानून, जो केन्द्र सरकार को आतंकवाद से निपटने के लिए अतिरिक्त शक्ति प्रदान करते हैं. फिर एक देशद्रोह कानून की जरूरत क्या? यह लोगों के अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मौलिक अधिकार पर चोट करता है. फिर यह प्रश्न भी उठता है कि क्या देशदोह का कानून औपनिवेशवाद की देन नहीं है क्या?
इस प्रश्न के उत्तर में आयोग का कहना है कि भारत के संपूर्ण कानून व्यवस्था की रुपरेखा अंग्रेजों का दिया हुआ है. तब क्या किसी कानून को मात्र इस आधार पर खत्म कर दिया जाय? भारत मंे देशद्रोह का कानून उसी समय प्रयोग होता है जब परिस्थितियां देश में हिंसा तथा अशांति का कारण बनती हैं.
इस कानून के साथ इसके गलत प्रयोग का प्रश्न बार बार उठता रहा है. सब को विदित है कि इस कानून का प्रयोग विद्यार्थियों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं तथा बुद्धिजीवियों पर कर उनको जेल भेज दिया गया था. उनका अपराध यही था कि उन्होने अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग कर सरकार की किसी नीति का विरोध किया था. इससे कोई हिंसा या अशान्ति नहीं फैली थी. फिर भी इसकी आशंका से उनको जेलों में डाल दिया गया.
इस संबंध मे आयोग का कहना है कि ऐसे गलत प्रयोग की संभावना नहीं है. ऐसा कभी हुआ हो तो इसका कारण कानून नहीं है, बल्कि पुलिस है जिन्होंने कानून की गलत व्याख्या कर इसका प्रयोग किया है. इसलिए इस कानून के प्रयोग के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश होने चाहिए.
विधि आयोग की इस रिपोर्ट के बाद केन्द्र सरकार के द्वारा इस कानून का पुनर्विचार क्या होगा, यह अन्दाज लगाया जा सकता है. इस कानून का प्रयोग देश मे कानून व्यवस्था बनाये रखने में न होकर केवल राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए भी हो सकता है. सरकार किसी स्वस्थ् आलोचना को भी देश के लिए अहितकर बताकर देशद्रोह कानून का प्रयोग कर सकती है. ऐसे में हम आप जैसे लागों के बोलने की आजादी का क्या होगा?