सदियों से हमारे समाज में लड़कियों को “अच्छा” बनने का उपदेश दिया जाता रहा हैं. धार्मिक ग्रंथ इस तरह के उपदेशों से भरे पड़े हैं. देश के आज के राजनीतिक माहौल में तो विशेष रूप से मनुवादी सोच का न केवल प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, बल्कि शिक्षा के सेलेबस में भी इसे डालने की कोशिश हो रही है.

दरअसल, होता यह है कि हमारे समाज में लड़के और लड़कियों का साँचा अलग-अलग बनाया हुआ है. हमें करना केवल इतना होता है कि इनमें रांगा पिघला कर डालते हैं और स्त्री-पुरुष बना डालते हैं. स्त्रियों में उपदेश रूपी नमक-मिर्च कुछ अलग किस्म का होता है. जैसे- सीना तान कर नहीं चलना है, मुंह खोल कर, ठठा कर नहीं हँसना है, अकेले कहीं रात में नहीं जाना हैं, इसी से शादी करो, सती हो जाओ, ये करो, वो न करो आदि-आदि.

पता नहीं इस ‘डू और डोंट’ की लिस्ट कितनी लंबी है. एक जरूरी छौंक तब लगाई जाती है जब शादी के बाद विदा होकर लड़कियां ससुराल जाती है- “इस घर से तुम्हारी डोली उठी है, अब अर्थी ही यहाँ आ सकती है”. वहां (ससुराल में) सबको खुश रखना तुम्हारी पहली जिम्मेवारी है. आज डोली, सती प्रथा और भी बहुत कुछ कम हो रहे हैं, खतम हो रहे हैं, लेकिन इसकी मौलिकता आज भी हमारे समाज की सोच में बरकरार है. तभी तो सिमेन द वोयुया कहती हैं, कि ‘स्त्रियाँ पैदा नहीं होतीं बनाई जाती हैं’. और तभी लड़कियां अकेली पड़ जातीं हैं.

यह सवाल बहुत पहले से उठता रहा है कि आखिर लड़कियों का अपना घर कौन सा है. जहां वे जन्म लेतीं है, पलतीं हैं, खेलती हैं, जहां उनकी पढ़ाई लिखाई होती है, जहां वे बड़ी होती है. लेकिन उस घर में तो उन्हें बार -बार एहसास दिलाया जाता है कि यह घर उनका नहीं है, वे एक पराया धन हैं जिसके कस्टोडियन माँ-बाप हैं. यहाँ वह टाइम पास कर रही है. उसको एक अच्छी ट्रेनिंग देकर, अच्छी परवरिश ( ? ) कर उसके पति के लिए, उसके घर के लिए तैयार किया जा रहा है. जहां वह ब्याह कर जाएंगी वो घर उनका होगा.

जिस घर में वे ब्याह कर जातीं हैं, जहां वे अपनी पूरी जिंदगी बितातीं हैं, उस घर में उन्हें बताया जाता है कि तुम तो पराए घर से आई हो. लड़कियों को हमेशा यह याद दिलाया जाता है कि तुम्हारा कोई घर नहीं है. तुम एक धान का रोपा हो. एक जगह बीज डाला जाता है, तो दूसरी जगह पौधा लगाया जाता है, तभी उनका जीवन सार्थक होगा. हमारे समाज ने ससुराल और मायके के बीच “अपने घर” की तलाश में एक स्त्री के जीवन को पेंडूलम बना दिया है. और तभी लड़कियां अकेली पड़ जातीं हैं.

बड़े शहरों में आज कल एक नया ट्रेंड का चलन प्रचलित हो रहा है. लिव-इन रिलेशनशिप का. पढ़ें- लिखे, नौकरी करते लड़के-लड़कियां अब शादी में रहने के बजाय, अपने संबंध को कोई वैधानिक आधार दिये बगैर पति-पत्नी के रूप में रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं. कहने को इस रिलेशनशिप में कोई किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं होता. कोई बड़ा या छोटा नहीं होता, पर ऐसा नहीं है. इस संबंध में भी लड़कियों की स्थिति वही पत्नी वाली ही होती है. यहां भी लड़की के साथ जबरदस्ती संबंध बनाया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कि शादी के बाद पति द्वारा. यहां भी दोनों में लड़ाई झगड़े होते हैं. यहां भी घरेलू काम ज्यादातर लड़कियों के जिम्मे ही आता है. और फिर सालों साथ रहने के बाद कई रिश्तों का एक दिन दर्दनाक अंत होता है, जिसे सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. और एक हंसती खेलती जिंदगी खत्म हो जाती है.

ससुराल की शिकायत भी जब लड़की अपने घर वालों से करती है तो उसे उसके घर वाले इग्नोर करने को कहते हैं और लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली लड़की तो किसी से कह भी नहीं पातीं. पर कई बार तो कहने पर भी कोई ध्यान नहीं देता. श्रद्धा वालकर का केस इस बात का उदाहरण है कि किस तरह वो लड़की तीन-तीन बार पुलिस के पास रिपोर्ट लिखवाने गई थी, पर पुलिस ने बजाए उसकी रिपोर्ट लिखने के उल्टे उसे ही समझा बुझाकर कर भेज दिया था और नतीजा सबके सामने है.

हम अपनी लड़कियों को सिखाते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, पर लड़कों को खुली छूट होती है. आज जरूरत है कि हम लड़को को सिखाए, उन्हें बताए कि उन्हें किस तरह लड़कियों की इज्जत करनी चाहिए. उनका व्यवहार लड़कियों के साथ कैसा होना चाहिए? ताकि लड़कियां अकेली न पड़ जायेँ.
मैं यहाँ इस सबंध (लिव-इन रिलेशनशिप) की अच्छाई-बुराई की चर्चा नहीं करना चाहती, न कोई सवाल उठाना चाहती हूँ. मकसद केवल लड़कियों के सम्मान पूर्ण जीवन जीने के अधिकार का है, आज इस पर विस्तार से सोचने की जरूरत है. लिव इन रेलेशनशिप हो, परंपरागत हो, कोई रेलेशनशिप की बात न हो, लेकिन लड़कियां के नागरिक अधिकार, मानव अधिकार की बात जरूर हो. ताकि लड़कियां अकेली न पड़ जायें.