यह कमोबेश मेरे जैसे हजारों एक्टिविस्ट मित्रों का कॉमन अनुभव है, जो मीडिया-कम्युनिकेशन कर्म को किसी भी अन्य क्षेत्र, राजनीतिक, अर्थनीतिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक क्षेत्र - की तरह समाज-कर्म मानते हैं। और जो इस कर्म में ‘सेवा का व्यवसाय’ या ‘व्यवसाय की सेवा’ में किसी न किसी ‘भूमिका’ का निर्वहन करते हैं।
मैं मीडिया के भविष्य और भविष्य के मीडिया पर सोचता हूं। मैं इस विषय पर सोचता हूं क्योंकि मैं इसका एक हिस्सा हूं - क्रियाशील हिस्सा। हाथ जैसा हिस्सा, पांव जैसा हिस्सा, आँख या कान या नाक जैसा हिस्सा, जीभ या जुबान जैसा हिस्सा, सिर या मस्तिष्क अथवा दिल जैसा हिस्सा।
हाथ या पांव जैसा हिस्सा (कर्मेन्द्रियों जैसा) होकर मैं जब भी ‘काम’ करता हूं, तब यह महसूस करता हूं कि मैं मीडिया रूपी शरीर का अविभाज्य हिस्सा होकर ही जिंदा हूं। अलग से हाथ या पांव होना मेरे जिंदा रहने को कोई अर्थ नहीं देता। दिमाग सोचता है, लेकिन उसे अमल में लाना हाथ-पांव के बिना संभव नहीं। ‘सोच’ को ‘साकार’ कर हाथ-पांव अपने अस्तित्व के होंने की सार्थकता सिद्ध करता है।
मैं ‘दिमाग’ जैसा हिस्सा होकर भी मीडिया-कर्म करता हूं। और अक्सर इस सवाल से टकराता हूं कि मैं न रहूं तो शरीर के अन्य हिस्से क्या कर पायेंगे!
मैं जब-तब या कहूं तो हर रोज यह महसूस करता हूं कि मैं ‘दिमाग’ होकर अपने को ‘अनिवार्य’ साबित करने के फेर में मीडिया शरीर के दूसरे अंगों को ‘बेमानी’ या ‘गैरजरूरी’ साबित करता हूं और उनके अनिवार्य और अविभाज्य ‘होने’ के प्राकृतिक अर्थ में कटौती करता हूं।
मैं देखता हूं और महसूस करता हूं कि जब-तब मैं अपने दिमाग का वर्चस्व सिद्ध करने के लिए अपने ही हाथ-पैर, कान-आंख, जैसे अंगों पर प्रहार करता हूं - कभी-कभी इस हद तक कि ऑपरेशन से उनको काटकर फेंकना जरूरी हो जाए। और अब पाता हूं कि मैं भी अपने एक अनन्य मित्र-सा हो गया हूं, जो दुर्घटनाग्रस्त होकर अपने दोनों हाथ गंवाने को मजबूर हुआ, फिर भी जिंदा रहने के लिए संघर्ष करने को अपने जीवन का ‘मकसद’ बना चुका है!
हां, मैं देखता हूं कि मेरी तरह ‘मीडिया’ के ‘मस्तिष्क’ बनकर जमें मेरे कई मित्र अब यह महसूस करते हैं - ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू! लेकिन अपने ‘वर्चस्व’ को स्थापित रखने के लिए ‘मीडिया’ शरीर के अन्य अंगों की उपयोगिता और ‘सार्थकता’ को नकारते हुए खुद ‘मस्तिष्क’ होने के ‘सत्य’ पर खुद वार कर रहे हैं - घायल हो रहे हैं - चिल्ला रहे हैं, मरहम की खोज कर रहे हैं - डॉक्टरों को बुलवा रहे हैं - लेकिन अपने पर खुद वार करने की क्रिया पर रोक नहीं लगा पा रहे।
उनमें से कई लोग तो यह समझ रहे हैं, लेकिन महसूस कर रहे हैं कि अब उस क्रिया को रोक पाना उनके बस में नहीं, उन हाथों के बस में हैं, जिन्हें उन्होंने अपने होने के लिए अनिवार्य नहीं माना - अनिवार्य होने के प्रकृति-सत्य को ठुकराने को ही अपने विकास एवं वर्चस्व के लिए जरूरी ‘कार्य’ के रूप में स्वीकार किया। कहने का मतलब यह कि मैं मीडिया का हिस्सा होकर भी, उसके हिस्से के रूप में कार्य करते हुए, उसी में अपना एवं अपने परिवार के भरण-पोषण की ‘सुनिश्चता’ तलाशते हुए भी, उस ‘सुनिश्चता’ की जमीन को निरंतर पोली और संकीर्ण होते देख रहा हूं। फिर भी, सोचता हूं कि आज भी ‘मीडिया’ में मेरा रहना मेरे लिए आसान है। मैं ऐसी सुनियोजित प्रक्रिया अपना सकता हूं जिसमें ‘गुलामी’ बरतने की आजादी’ को मजबूरी के रूप में ढोना भी अमान्य होगा। और उसके लिए अपने जैसे अन्य साथी-मित्रों से ऐसा ‘सहयोग’ पा सकता हूं, जो सहयोग देनेवाले को न ‘नौकर’ बनाएगा, और न वह ‘नौकरी या गुलामी’ की सुविधाभोगी मानसिकता को स्वीकार करेगा।
यूं पहले भी मैं जितना आजाद था, उसको सम्पूर्ण रूप में पहचान नहीं पाता था, सिर्फ इतना सोचता था कि उसके लिए मैं कोई भी कीमत दूं, वह कम होगा। लेकिन, आज-कल इस आजादी को बरतते हुए ‘डर’ लगता है - जान जाने का डर। जब कभी इस डर से दूर होता हूं तो महसूस करना चाहता हूं कि मुझमें ‘डर’ से लड़ने का कुछ हौसला है, उसीने डर को भगाया। लेकिन अक्सर महसूस होता है कि मेरे बच निकलने की ‘स्ट्रैटजी’ के कारण डर मुझे अपने प्रहार के जद में नहीं ले सका। मैं नहीं समझ पाता कि मेरे हौसले में हिम्मत का स्रोत कहां है, है भी या नहीं? या बच निकलने की यह स्ट्रैटजी कितनी सही है?