अपने देश के कुछ आकाशी बुद्धिजीवी अभी भी माओवादी हिंसा को जस्टीफाई करते नहीं हिचकते. उन्हें लगता है कि माओवादी दलित आदिवासी जनता की नुमाइंदगी करते हैं और सत्ता से टकराते हैं. लेकिन यह बात कभी नहीं समझ में आयी कि उन्होंने कामरेड महेंद्र सिंह, विधायक रमेश सिंह मुंडा और झामुमो सांसद सुनील महतो जैसे जन नेताओं की क्रूरता पूर्वक हत्या क्यों की? वे जब भी किसी की हत्या करते हैं तो उसे पुलिस का मुखबिर, गरीब जनता का दुश्मन, महाजन आदि की संज्ञा देते हैं, लेकिन ये तीनों तो न गरीब जनता के दुश्मन थे, न महाजन और न पुलिस के मुखबिर, फिर उनकी हत्या क्यों की?

दरअसल, इधर मैं टुंडी स्थित पोखड़िया आश्रम के श्यामलाल मुर्मू की शहादत के बारे में लिख रहा था, जिनकी हत्या माओवादियों ने कर दी थी. उसी क्रम में मुझे इन तीनों के बारे में भी एकबारगी खयाल आया. आखिर माओवादियों को इनसे दुश्मनी क्यों थी? महेंद्र सिंह की हत्या चुनाव प्रचार के दौरान 16 जनवरी 2005 को हुई थी. झामुमो सांसद सुनील महतो की हत्या माओवादियों ने 4 मार्च 2007 को की थी. रमेश सिंह मुंडा की हत्या 9 जुलाई 2008 को उनके दो अंगरक्षकों और एक आम नागरिक के साथ कर दी गयी थी. इन तीनों की हत्या माओवादियों ने की, यह तो सभी जानते हैं, लेकिन क्योंकि यह सवाल अनुत्तरित रह गया है. और माओवादी हिंसा का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन करने वाले लोग भी इस बात की कोई सफाई नहीं देते.

मूल बात तो यह है कि माओवादी मूलतः असहमति को बर्दाश्त नहीं कर सकते, क्योंकि वे लोकतंत्र में ही विश्वास नहीं करते. यदि आप उनसे असहमत हैं और उनके प्रभाव क्षेत्र में हैं तो वे आपकी हत्या कर देने में किसी तरह का नैतिक हिचकिचाहट महसूस नहीं करते हैं. उनका एक तकियाकलाम यह भी है कि ‘कभी-कभी गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है.’ इसके अलावा वे अपने प्रभाव क्षेत्र में किसी दूसरे जन संगठन को, या किसी अन्य लोकप्रिय जननेता को बर्दाश्त नहीं कर सकते. और यदि वह उनकी उपस्थिति का विरोध करे, तब तो वह उन्हें निश्चित रूप से मार डालेंगे.

सबसे खतरनाक नया ट्रेंड यह उभरा है कि वे हत्या का काम दूसरों के लिए भी करते हैं. यानि, भाड़े के हत्यारों की तरह. किसी शोषक-उत्पीड़क या फिर प्रतिद्वंद्वी राजनीतिज्ञ के इशारे पर. अपने प्रभाव क्षेत्र में उन्हें राजनीतिक संरक्षण की जरूरत होती है और जिनसे उन्हें संरक्षण मिलता है, उसके लिए वे न सिर्फ वोटिंग करवाते है या फिर वोटों का वहिष्कार और जरूरत हुई तो किसी एक के फायदे के लिए दूसरे की हत्या. रमेश सिंह मुंडा की हत्या के बाद हुई जांच में यह खुलासा हुआ था कि एक राजनीतिज्ञ के फायदे के लिए उन्होंने उनकी हत्या की. सुनील महतो उनकी हिंसा की राजनीति का विरोध करते थे. महेंद्र सिंह तो अपने क्षेत्र के लोकप्रिय नेता थे और उनकी कार्यशैली का विरोध करते थे. एक बार उन्होंने विशाल जन समूह लेकर माओवादियों के गढ़ झूमड़ा पहाड़ी पर चढ़ाई की थी. लेकिन यह पुरानी बात थी, चुनाव के वक्त तो उनकी हत्या किसी बड़े षडयंत्र का हिस्सा था जिसमें टूल की तरह इस्तेमाल किये गये माओवादी.

इसके बाद भी यदि आप माओवादियों को बदलाव का वाहक मानते है, तो यह मानसिक असंतुलन है.