वादीः पेसा नियमावली आज तक क्यों नहीं बनी? क्यों नहीं बनती?
संवादी: इसके जवाब के लिए हम इस सवाल पर विचार करें कि आखिर पेसा कानून क्यों बना? उसे संसद में पारित कराने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
वादीः यह तो झारखंड के हम आदिवासी जानते हैं। देश के अन्य राज्यों के पढ़े-लिखे आदिवासी भी इतना जानते ही हैं कि पेसा कानून लोकतंत्र में ग्रामसभा की भूमिका और महत्व को रेखांकित करता है। झारखंड सहित देश के लगभग हर आदिवासी समाज में ‘ग्रामसभा’ की विविध परंपराएं जिंदा हैं। ग्रामसभा स्वशासन की प्रणाली है, जो क्षत-विक्षत होने के बावजूद आज भी चलती है। उसमें गांव के अधिसंख्य परिवारों की श्रद्धा है। यह श्रद्धा इस बात का संकेत है कि आदिवासी समाज की जीवन-शैली के केंद्र में आज भी ‘सामूहिकता और सहभागिता’ की भावना है। उसको सशक्त करने की सोच के तहत ही 1996 में पेसा अधिनियम को सूत्रबद्ध किया गया।
संवादी: हां, आपका कहना सही है कि आदिवासी समाज में स्वशासन की ग्रामसभा-परंपरा सामूहिकता और सहभागिता’ की भावना की ओर इशारा करती है! यानी आदिवासी समाज ‘लोकतंत्र’ के सहभागी पद्धति में विश्वास करता है। लेकिन आज तो देश में ‘प्रातिनिधिक’ लोकतंत्र है, सहभागी लोकतंत्र नहीं। इसलिए पेसा कानून पारित करने के पूर्व और उसके पारित होने के बाद आज तक भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालक, नियामक और नियंत्रक प्रभु लोग सहभागी लोकतंत्र की सोच, विधि और प्रक्रिया को विकसित करने के प्रति उदासीन हैं। उदासीन के बजाय उन्हें विरोधी कहना असंगत नहीं होगा, क्योंकि 1996 से आज तक अपने कृत्यों से वे यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि वे देश के प्रचलित ‘प्रातिनिधिक’ लोकतंत्र को ‘सहभागी’ लोकतंत्र में बदलने में कतई रुचि नहीं रखते। उनको इससे अपने हाथ से सत्ता फिसल कर जनता के हाथ में जाने का डर या खतरा सताता है। इसलिए वे सहभागी लोकतंत्र के लिए ग्रामसभा की भूमिका विषयक एजेंडा को अपनी सत्ता-राजनीति में लाना ही नहीं चाहते।
वादीः अरे! आप क्या बोल रहे हैं? जब लागू करना नहीं था, तो फिर पेसा कानून बना ही क्यों?
संवादी: इसका जवाब तो यही फैक्ट है कि 1996 में पारित पेसा कानून पर अमल के लिए आज तक पेसा नियमावली नहीं बनी।
वादीः क्या!! इसका माने तो यह हुआ कि प्रातिनिधिक लोकतंत्र के हिमायती प्रतिनिधियों ने पेसा कानून इसलिए पारित किया कि उसे लागू करना नहीं है?
संवादी: हां, अब तो प्रातिनिधिक लोकतंत्र के महारथियों ने ‘चुनाव’ को ‘उत्सव’ से ‘युद्ध’ में बदल दिया है। सो पेसा कानून भी देश-दुनिया में ‘युद्ध-विराम’ के लिए बने कानून जैसा ही है।
वादीः क्या? पेसा कानून युद्ध-विराम के कानून जैसा है? ये आप क्या कह रहे हैं? लगता है, आप भी मामला को उलझा कर रफा-दफा कर देना चाहते हैं?
संवादी: फिलहाल, ‘पेसा कानून’ के संदर्भ में इतना तो जाहिर है कि यह संसद में पहल्रे स्वीकृत पंचायती-राज कानून के एक्स्टेंशन (कड़ी या पूँछ!) के रूप में पारित हुआ। इतना कर के हमारे जन-प्रतिनिधियों ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। इससे हुआ यह कि विभिन्न प्रदेशों की राज्य-सरकारों ने कुछ प्रशासनिक आदेश (एजिक्यूटिव ऑर्डर्स) जारी कर के पहले से चालू पंचायती राज की प्रणाली को नया जीवन दे दिया। जबकि सब जानते हैं कि यह पंचायती-राज प्रणाली शुरू से कहीं निकम्मी है, कहीं दोषपूर्ण है, और विवादास्पद है। इससे हुआ क्या? पेसा कानून की नियमावली बनाने के बजाय प्रदेश की सरकारों ने अपने आदेशों से ‘पेसा कानून’ को अपनी सत्ता को शक्ति देने वाला शस्त्र बना लिया। यहाँ तक कि पेसा कानून बनाये जाने की सोच के आधारभूत मकसद को ही हिला दिया! इसलिए पैसा नियमावली नहीं बनी। अगर देश में लोकतंत्र की यही स्थिति-परिस्थिति बनी रही, तो आगे भी बनने की आशा नहीं।
वादीः तो ग्राम-स्वशासन अभियान के तहत हम क्या करें? परम्परागत ‘ग्राम-सभा’ प्रणाली को कैसे जीवंत करें? उनका पंचायती-राज व्यवस्था में परिभाषित ग्रामसभा (जो निर्वाचित मुखिया के अधीन संचालित और नियंत्रित है) से क्या सम्बंध हो? क्या परम्परागत ग्रामसभा को सरकारी ग्रामसभा के समानंतर खडी करना है या उसकी कड़ी या पूँछ बनाना है?
संवादी: यही तो यक्ष-प्रश्न है! इसका समाधान पेसा नियमावली के निर्माण के बिना सम्भव नहीं। सरकार बनायेगी नहीं। तो उपाय यही है कि हम पैसा नियमावली का प्रारूप बनाकर सरकार पर दवाब डालें। इसके लिए परपरागत ग्राम-सभा में दिलचस्पी रखनेवाले मिल-बैठ कर सोचें-विचारें और नियमावली को सूत्रबद्ध करें। लेकिन इसके लिए भी पहले परंपरागत ग्रामसभाओं के वर्तमान स्वरूप समझना होगा और उनकी ऐतिहासिक भूमिका को उनके उपलब्ध ‘‘इतिहास’ से सीखना होगा।