भारत को अपना मानता हूँ. इससे लगाव भी है. तथ्य यही है कि यह मेरा देश है. भारत का मानचित्र देख कर आह्लादित होता रहा हूँ. बेशक प्रकृति ने इसे नायाब रूप दिया है. एक ओर उत्तर में हिमालय, नीचे तीन तरफ समुद्र. इस भूखंड की बनावट भी ऐसी कि इसकी एक शक्ल है, मानो किसी शिल्पकार ने गढ़ा हो. नक्शे पर मुझे अन्य कोई ऐसा देश नहीं दिखता. भारत के अतीत की कथित महानताओं पर भी कभी गर्व की अनुभूति होती थी. अब नहीं होती. इसलिए कि उस अतीत में बहुत कुछ ऐसा भी है, जिन पर गर्व नहीं कर सकता, शर्मिंदगी होती है. भारत में करीब सात लाख गांव हैं. गांधी की कल्पना थी कि हर गाँव आत्मनिर्भर और स्वायत्त इकाई बने. पर कड़वा सच यह है कि अधिसंख्य गाँव आज भी ऊंच -नीच में विभाजित हैं. सामाजिक भेदभाव और शोषण के गढ़ बने हुए हैं. पर जैसा भी है,यह मेरा देश है. कुछ गड़बड़ है, तो उसे दुरुस्त करने का जिम्मा मेरा भी है.

लेकिन सवाल सिर्फ मेरी या हम भारतीयों की पहचान का नहीं है. डॉ लोहिया ने कभी विश्व नागरिक की कल्पना की थी. इच्छा जाहिर की थी कि बिना पासपोर्ट और वीजा के पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकूं. आज यह जितना भी नामुमकिन लगता हो, पर इस कल्पना-चाहत में कोई खोट है? हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात करते हैं. शायद ही कोई धर्म देश की सीमा की बात करता है. सभी मानव मात्र के कल्याण की बात करते हैं. कोई महापुरुष या विचारक भी देश की सीमा से बंधा नहीं होता. न ही वैज्ञानिक. यह ‘देश’ है, और उनके शासक हैं, जो ज्ञान और विज्ञान का भी सिर्फ अपने हित में इस्तेमाल की बात करते हैं.

अब जरा उन मानव समूहों की स्थिति पर गौर किया जाये, जिनका कोई देश नहीं है. ऐसा ही एक समुदाय है रोहिंगिया. कोई देश इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता. हर देश में इनकी पहचान शरणार्थी की है या घुसपैठिये की. हर जगह संदिग्ध. उन कबीलों पर गौर कीजिये, जिनको जबरन खींच दी गयी सीमाओं ने दो देशों में बाँट दिया. भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के सीमा क्षेत्र में भी ऐसे समुदाय हैं, जो भारत और म्यांमार दोनों में है. कुछ अन्य में भी होंगे. उनकी श्पहचानश् क्या है? श्रीलंका के तमिलों की स्थिति क्या है? पाकिस्तान में एक अहमदिया समुदाय है. पकिस्तान सरकार और मुस्लिम धार्मिक संगठन उसे ‘मुसलमान’ ही नहीं मानते. उनके अधिकार भी सीमित हैं. फिर भी वे ‘पाकिस्तानी’ हैं!

अफ्रीका के राजनीतिक नक्शे को गौर से देखिये. साफ दिखेगा कि किसी ने इंच से नाप कर पेंसिल से कागज के नक्शे पर सीमा खींच दी है. देश की सीमा ऐसी होती है? जाहिर है, ऐसा उपनिवेशवादियों ने किया. जिस भी मंशा से. नतीजा? एक ही कबीला दो देशों में बंट गया. अब भी उनकी मूल पहचान तो कबीले की है, किसी देश में उनकी निष्ठा कैसे और कितनी हो सकती है. इस स्थिति के कारण अनेक देशों में गृहयुद्ध के हालात हैं. इसी तरह कुर्द अनेक देशों में बंटे हुए हैं. ‘कुर्दिस्तान’ की मांग को लेकर लड़ रहे हैं. मजहब से मुसलमान हैं. पर कोई इस्लामी देश या संगठन उनका साध नहीं देता, उनका इस्तेमाल भले ही कर लेता हो. डच, सर्ब्स, अरबी और स्लाव भी एक से अधिक देशों में फैले हैं. इनकी मूल पहचान उनकी नस्ल ही है. जहां बहुमत में हैं, वहां श्देशश् की पहचान हो जाती है. कभी यहूदी इसी हालत में थे.

दूसरी ओर यूरोप के अनेक देशों में सीमा बेमानी हो गयी है. वे बिना पासपोर्ट और वीजा के किसी देश में जा सकते हैं. क्यों नहीं इसका विस्तार होना चाहिए? कितना अच्छा हो कि आदमी बिना किसी पासपोर्ट और वीजा के कहीं जा सके. आज कितना भी कठिन लगता हो, पर कितनी शानदार है यह कल्पना. तकनीक और विज्ञान ने तो वैसे भी दूरियां कम कर दी हैं. ‘गोब्लाइजेशन’ के पीछे मंशा भले ही दुनिया को बाजार बना देने की हो, मगर ‘वैश्वीकरण’ या ‘विश्वग्राम’ जैसे शब्द अपने आप में बुरे नहीं हैं.

कविगुरु रवींद्र विश्वदृष्टि वाले महामानव थे. अमर्त्य सेन को भी उस धारा का माना जा सकता है. संकीर्ण राष्ट्रीयता का विरोध मेरी समझ से राष्ट्र को नकारना नहीं है. जालियांवाला नरसंहार के प्रतिवाद में श्नाइटहुडश् की पदवी लौटाना एक मानवतावादी कदम था, संकीर्ण राष्ट्रीयता को स्वीकार करना नहीं. दृष्टि व्यापक उदात्त हो तो राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता में टकराव या अंतर्विरोध नहीं होना चाहिए. राष्ट्रवादी होते हुए भी कोई समस्त विश्व के कल्याण का पक्षधर हो सकता है. मैं भी यदि पूरी दुनिया के खूबसूरत-मानवीय होने की कल्पना करता हूं, तो उस दुनिया में भारत भी शामिल है. और दुनिया बदलने की शुरुआत तो हमें अपने देश से ही करनी होगी. यदि सभ्य होने का मनुष्य का दावा सही है, तो यह यह दुनिया वैसी ही होनी चाहिए, जैसी कल्पना लोहिया जी ने की थी या कोई भी मानतावादी करेगा. मैं उस स्वप्न के साथ हूँ, उसके साकार होने की कामना करता हूँ. अफसोस कि इस मुद्दे पर पर्याप्त गंभीरता से विचार नहीं हो पा रहा है. शायद अभी समय उपयुक्त नहीं है.