बच्चे - खास कर गांव के बच्चे - अक्सर चक्का चलाने का खेल खेलते हैं। कभी समूह में, कभी अकेले। बच्चा पुराना टायर या साइकिल रिम का चक्का डंडे से हांकता है। गली का रास्ता समतल और पक्का हो, तो चक्का चलने लगता है। उसके साथ बच्चा दौड़ता है। अमूमन होता यह है कि ढलान पर चक्का सरपट चलने लगता है। उसे डंडा से हांकने की जरूरत नहीं होती। बच्चा डंडा थामे रुक जाता है, लेकिन चक्का अपनी गति से आगे बढ़ने लगता है। इसी में बच्चे को आनंद आता है। आज खास हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की आम स्थिति और उनके ‘संपादकों’ की भूमिका ऐसी ही नजर आती है।

कई लोग अब यह साफ तौर से कहते हैं कि “यह तथ्य अब ‘अर्द्धसत्य’ साबित हो चुका है कि आजाद भारत के आजाद प्रेस को बड़े पूंजीपतियों ने अपने कब्जे में कर रखा है। पूर्ण सत्य यह है कि अब देश का ‘आजाद प्रेस’ ऐसा बड़ा उद्योग बन चुका है, जो बड़े पूंजीपतियों के अधीन रह कर ही अपना अस्तित्व कायम रख सकता है।”

क्या हिंदी समाज का कोई भी पढ़ने-लिखने वाला समूह, समुदाय या वर्ग आज इस ‘पूर्ण सत्य’ को ‘एकमात्र’ सत्य मानने से इनकार कर सकता है?

इस बीच पत्रकारिता के ‘पॉवर’ से वर्तमान राजनीति की ‘मोदी-सत्ता’ कृपा से सिंहासन के करीब एक उप-आसन पर बैठे रहने में सफल श्रीयुत हरिवंश नारायण सिंह अपने लेखन में ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ के विस्फोटक-बम जैसे आतंक में आकर्षण का रस-रंग घोलने में लग गये हैं। जाहिर है हिंदी पत्रकारिता का ‘भविष्य’, जो अब तक कई तरह के पुराने सवालों के आतंक में घिरा है, अब अब नये संदेहों के आकर्षण के घेरे में आ गया है।

क्या आज की हिंदी पत्रकारिता व पत्र-उद्योग का गतिशास्त्र उन्हीं मूल्यों और उद्देश्यों का संवाहक है, जिनके आलोक में भारत में हिंदी पत्रकारिता का उद्भव हुआ?

आम धरणा है कि हिंदी पत्रकारिता के मूल्य बदल गये हैं। अतीत के मूल्य और परंपरा की धारा में, उसकी मौलिकता में, वह ‘फ्लशिंग कैपासिटी’ नहीं रही, जो उसे निरंतर प्रवहमान रख सके। धारा प्रवहमान नहीं, तो वह ‘धारा’ कैसी? जो बहती नहीं, उस धारा की पहचान क्या? परंपरा की ऐसी धारा को रुकने या सूखने से कोई बचा सकता है? कौन बचा सकता है? क्या पूंजीवाद की कृपा (उदार अर्थनीति और विदेशी पूंजी निवेश) के सहारे परंपरा की धारा में ‘कृत्रिम’ फ्लशिंग क्षमता पैदा करने की कोशिश फलदायी होगी?

अब तक श्रम, पूंजी और प्राकृतिक संसाधनों पर टिके भविष्य की कल्पना का विराट रूप ‘सुनिश्चित’ दिखता रहा था। लेकिन अब भविष्य की कल्पना ‘दिमाग’ - ज्ञान - पर टिक गयी है। कम्प्यूटर, इंटरनेट और रिमोट कंट्रोल प्रणाली का चमत्कार सामने है! प्रौद्योगिकी के हाथों का खिलौना बन कर भविष्य अब महीने-महीने या कहें दिन-प्रतिदिन अपना चेहरा बदल रहा है।

श्री अरुण शौरी जैसे विद्वान पत्रकार तो बीस साल पहले ही यह फरमा चुके हैं कि “अब भविष्य का अतीत से सर्वथा भिन्न होना तय है। अतीत की सफलता का भविष्य की सफलता के लिए कोई अर्थ नहीं है। बीते हुए कल की सफलता के सूत्र करीब-करीब निश्चित रूप से आने वाले कल की विफलता के सूत्र हैं।”

पिछले 20 सालों में हिंदी अखबारों ने यांत्रिक प्रगति और उत्कृष्ट छपाई के मामले में ऊंची छलांग लगायी है। उनके चेहरे चमक रहे हैं। वे भी अंगरेजी अखबारों की तरह सर्कुलेशन और मुनाफा अर्जित करने की होड़ में समाज से निकलकर बाजार में आ गये हैं। हिंदी पत्रकारिता इस बाजार तक आजादी के संघर्ष की अपनी परंपरा, विरासत और गौरवमय अतीत के बल पर पहुंची है, लेकिन यह तय नहीं कर पा रही कि वह यहीं के लिए चली थी या कि अपने रास्ते से भटक गयी है?

20वीं सदी में न सिर्फ पत्र-उद्योग बल्कि सभी उद्योगों में ‘पूंजी की सत्ता’ ही ‘ड्राइविंग फोर्स’ रही। श्रम की सत्ता से पूंजी की सत्ता का अनवरत संघर्ष चलता रहा। ज्ञान उस संघर्ष में पूंजी और श्रम के बीच ‘टपले’ खाता रहा। या वह मध्यस्थ जैसी भूमिका निभाता रहा। उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं बनी। बहुत हुआ तो दूसरी सत्ता का आश्रय पाकर जिस कुर्सी पर बैठा उससे सत्ता का गुमान पा लिया! कुल मिलाकर पूंजी से ‘ज्ञान’ और ‘श्रम’ खरीदना आसान था।

इसी रास्ते से राजनीतिक सत्ता हासिल करने वाले इंटेलिजेंट पत्रकार श्री हरिवंश सिंह अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विशेषज्ञों के हवाले से कहते हैं- “भविष्य अब इलेक्ट्रिक कारों का है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से बिल्कुल सटीक ड्राइविंग होगी। ऐसे हालात में पुरानी कार इंडस्ट्री, उसके कारखाने-कर्मचारी नहीं टिक पाएंगे। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में इस नई कार के कारखाने भी बेंगलुरु जैसे जगह ही होंगे। जहां पहले से ‘नॉलेज इंडस्ट्री’ है। विकसित शहर नए रोजगार केंद्र बनेंगे। संदेश स्पष्ट है कि समय के अनुसार जो नहीं बदलेंगे, वे अतीत बन जाएंगे। भविष्य उनका होगा, जो समय की करवट से तालमेल बैठा पाएंगे। टेक्नोलॉजी बदलाव के इस ज्वार-वेग में सरकारों की नीतियां निर्णायक होंगी। …देश के विकसित राज्य या हिस्सा, पढ़े-लिखे लोग, सामर्थ्य वर्ग इससे और लाभान्वित होंगे। इसी तरह संसार स्तर पर दुनिया के विकसित मुल्क पीछे छूटे देशों को कोलोनाइज करेंगे। नए ढंग से। नए संदर्भ में। अपनी इस टेक्नोलॉजी के बल दुनिया के मौजूदा सामाजिक तानाबाना पर गहरा असर पड़ेगा। असंख्य बदलावों की दहलीज पर खड़ा है, इंसान और संसार। टेक्नोलॉजी के बदलाव की यह गति धीमी नहीं हो सकती। बदलाव के भूचाल से देश को तालमेल बनाना होगा, ताकि हम उसी गति से नई दुनिया में, नई ताकत से जगह बना सकें।”