स्त्री विमर्श शब्द वैसे तो नया है, लेकिन स्त्रियों का अपने अस्तित्व की पहचान का संघर्ष कोई नई बात नहीं है। इतिहास की बात करें या साहित्य की, मीरा से लेकर रजिया सुल्तान तक सभी ने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी और अपनी अस्मिता को एक पहचान दी।

आज से 40 वर्ष पहले जब मैं मगध महिला कालेज, पटना की छात्रा थी, उस समय यह शब्द सुना भी नहीं था। मेरे पापा जी को कहानियां सुनाने की आदत थी, और वे अक्सर हमें तरह -तरह की कहानियां सुनाते थे। कभी इतिहास की बात होती तो कभी महिलाओं के संघर्ष की। महाराणा प्रताप के द्वारा घास की रोटियों के खाने से लेकर, पृथ्वी राज चौहान के द्वारा संयोगिता के अपहरण और उनके साथ शादी की। कहानियां ढेरों हुआ करती थीं। पहली बार उनकी कहानियों से ही हमने जाना कि महिलाओं के साथ अत्याचार होते रहे हैं और इसके कई रूप हैं। इसकी शुरुआत कहां से हुई, क्यों हुई, मातृसत्ता क्या थी और आज की पितृसत्ता क्या है, कि इसका विरोध होना ही चाहिए, कैसे होना चाहिए आदि, आदि।

बचपन से सुनी इन कहानियों का समाज और समाज में स्त्रियों की स्थिति की मेरी समझ बनाने में खासा योगदान रहा। उस समय यह पता नहीं था कि आगे चल कर यह “स्त्री विमर्श” जैसे गंभीर विषय की समझदारी बनाने में भी कोई भूमिका अदा करने वाला है। बाद में छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी से जुडने के बाद पाया कि स्त्रियों के मुद्दों पर चर्चा अलग से होनी चाहिए। ऐसी बात हर बैठक में होती थी, क्योंकि महिलाओं की समस्याएं विशेष हैं, इसे समझने की जरूरत है। इनके साथ होने वाले दुहरे व्यवहार विशेष ध्यान देने की मांग करते हैं। कुछ दिनों की चर्चा के बाद इस शब्द के अर्थ, इसकी गहनता से परिचित हुई।

आज अगर इसे एक परिभाषा में कहा जाये तो, ‘स्त्री विमर्श’ उस साहित्यिक आंदोलन को कहा जाता है, जिसमें स्त्री अस्मिता को केंद्र में रख कर संगठित रूप से स्त्री साहित्य की रचना की गई। हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श अन्य अस्मितामूलक विमर्शों की भांति ही मुख्य विमर्श रहा है, जो लैंगिक विमर्श पर आधारित है। सरल शब्दों में कहें तो, लैंगिक भेदभाव का विरोध ही ‘स्त्री विमर्श’ है।

स्त्रीवादी विमर्श संबंधी आदर्श का मूल कथ्य यही रहता है कि बराबरी की बात हो और लिंग गैरबराबरी का आधार न बने। स्त्री विमर्श भले ही बीसवीं सदी का शब्द हो, लेकिन इस पर काम बहुत पहले से होता रहा है।

नारी-विमर्श ( फेमिनिज्म/ फेमिनिस्ट डिस्कोर्स) का प्रारंभ कब हुआ, इसके संबंध में विद्वानों में सुनिश्चित एक राय नहीं है। आम तौर पर मान्यता यह है कि इसका प्रारंभ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ, जब पश्चिम में स्त्रियों के मताधिकार और पाश्चात्य संस्कृति में स्त्रियों के योगदान पर चर्चा होने लगी थी।

कुछ लोग इसे बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बुआ की पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ (1949) के प्रकाशन और मैरी एलमन की पुस्तक ‘थिकिंग एबाउट वीमन’ (1968) के प्रकाशन से मानते हैं। लेकिन अधिकतर विद्वान इस तरह के किसी वर्ष-विशेष को स्त्री-विमर्श के पहचान बिंदु के रूप में मानना उचित नहीं समझते, क्योंकि बीसवीं शताब्दी से पहले भी स्त्री की अलग पहचान, उसके स्वतंत्र अस्तित्व और उसके अधिकारों की बात होने लगी थी, उनकी समस्याओं को उठाया जाने लगा था। उदाहरण के लिए, वर्जीनिया वुल्फ ने अपनी पुस्तक ‘ए रूम ऑफ़ वंस ओन’ (अपना निजी कक्ष’ ) 1929 में लिखा था।

आंदोलन के रूप में इसकी शुरुआत ब्रिटेन और अमेरिका में हुई। 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के दौरान कई किस्म के संघर्ष हुए। उनमें एक संघर्ष स्त्री-पक्ष ने भी किया। उन्होंने धर्मशास्त्र और कानूनों के द्वारा खुद को पुरुषों के मुकाबले शारीरिक और बौद्धिक धरातल पर कमजोर मानने से इनकार कर दिया।

फ्रांसीसी क्रांति के दौरान भी महिलाओं की बराबरी की मांग सामने आई थी। 1848 ई. में कुछ प्रखर महिलाओं ने बाकायदा एक सम्मेलन करके नारी मुक्ति से संबंधित एक वैचारिक घोषणा पत्र जारी किया। इन महिलाओं में ऐलिजाबेथ कैन्डी, स्टैण्टन, लुक्रसिया काफिनमोर प्रमुख थीं। इस सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि स्त्री को सम्पूर्ण और बराबर का कानूनी हक दिया जाए। उन्हें पढ़ने के मौके, बराबर मजदूरी और वोट देने का अधिकार इत्यादि कई क्रान्तिकारी मांग इस सम्मेलन में पारित की गयी। यह आंदोलन तेजी से सारे यूरोप में फैल गया, लेकिन असली सफलता 1920 में जाकर मिली। जब अमेरिका में स्त्रियों को वोट डालने का अधिकार मिला।

विश्व के अनेक देशों में इस आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन 1951 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने जब भारी बहुमत से महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों का नियम पारित किया, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी मुक्ति के आन्दोलन का प्रारम्भ तभी से माना जाता है।

1975, पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया, जिसके परिणामस्वरूप कोपहेगन में पहला अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन, नैरोबी में दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन 1985 में और शंघाई में तीसरा 1995 में सम्पन्न हुआ।

हम अपने देश भारत की बात करें तो सुव्यवस्थित रूप में राजा राममोहन राय के द्वारा 1818 में सती प्रथा का विरोध और इसके परिणामस्वरूप 1829 में सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया जाने, बाल-विवाह, विधवा-विवाह और बहुपत्नी प्रथा के विरुद्ध कानून बनने को स्त्री संघर्ष की शुरुआत के रूप में माना जा सकता है। आगे चल कर कई समाज सुधारकों ने स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उनमें ज्योतिराव फुले, सावित्री बाई फुले, रमाबाई, ताराबाई शिंदे, फातिमा शेख आदि महत्वपूर्ण हैं।

इन लोगों ने न केवल नारी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, अपितु पुरुष वर्चस्व की लक्ष्मण-रेखा लांघ कर काफी तादाद में देश की आजादी की लड़ाई में भी भाग लिया। 20वीं सदी तक आते-आते एनी बेसेंट, सरला देवी, सरोजिनी नायडू, और इंदिरा गांधी जैसी महिलाएं राजनीति में सक्रिय हुईं तथा वहां अपनी दखल से अपनी अमिट छाप छोड़ी।

हिंदी साहित्य जगत में नारी-विमर्श ने बीसवीं शताब्दी के लगभग अंत में ज़ोर पकड़ा और अनेक लेखिकाएं उसमें शामिल हुई हैं। आधुनिक स्त्रीवादी विमर्श की आलोचना हमेशा से इस कारण की जाती रही है कि इसके सिद्धांत एवं दर्शन मुख्य रूप से पश्चिमी मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित रहे हैं। तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या कोई चीज केवल पश्चिमी होने से बुरी हो जाती है?

इस तरह हम पाते हैं कि हमारे देश में एक तरफ “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमंते तत्र देवता“, की चर्चा होती है तो दूसरी तरफ “जिमि स्वतंत्र होहिं, बिगरहिं नारी” की अवधारणा है। इन उपदेशों के बीच झूलती एक स्त्री को न खुद समझ में आया कि वह क्या है, न समाज ने उसे समझने दिया कि वह है क्या? कभी देवी, कभी दासी बनी वह पेंडुलम की तरह झूलती रही। उसने जाना कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ, सभी वंचितों को हाशिये पर धकेल दिया गया है। इस विकट परिस्थिति से निकालने के लिए विशेष प्रयास करने की जरूरत है। इस तरह स्त्री विमर्श का शब्द चर्चा में आया। आज इस शब्द ने समाज में अपनी जगह बनाई है। आज यह एक महत्वपूर्ण विषय है।

स्त्री विमर्श, स्त्री अस्मिता की स्थापना के लिए किया गया संघर्ष था। इसकी आलोचना पश्चिमी सभ्यता की देन कह कर की गई। यह बेतुकी आलोचना थी। स्त्री अस्मिता की पहचान के लिए संघर्षरत स्त्रियों को नारीवादी कह कर समाज में उनकी छवि नकारात्मक बनाने की कोशिश की गई, जबकि नारीवादी सिद्धांतों का उद्देश्य लैंगिक असमानता की प्रकृति एवं कारणों को समझना तथा इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले लैंगिक भेदभाव की राजनीति और शक्ति संतुलन के सिद्धांतों पर इसके असर की व्याख्या करना था। इन आलोचनाओं के प्रभाव में न आते हुए स्त्री विमर्श संबंधी राजनीतिक प्रचारों का जोर स्त्रियों के प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा, मातृत्व अवकाश, समान वेतन संबंधी अधिकार, यौन उत्पीड़न, भेदभाव एवं यौन हिंसा पर रहा। लैंगिक आधार पर होने वाले भेदभाव को किसी सभ्यता में सही नहीं ठहराया जा सकता है।

हमारे देश में स्थिति यह है कि एक तरफ तकनीकी विकास ने “टेस्ट ट्यूब बेबी” को एक यथार्थ बना दिया है, तो दूसरी ओर आज भी औरत बड़े कष्ट से स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में बच्चों को जन्म देती है। आज भी लड़कियों का पैदा होना स्वागत योग्य नहीं माना जाता है। लेकिन इन स्थितियों से महिलाएं डरी नहीं हैं। वह आज भी स्त्री अस्मिता की पहचान बनाने में प्रयासरत और आंदोलनरत है। कई तरह की आलोचनाओं के बीच संघर्षरत है। स्त्रियों ने चुनौतियां ली। संघर्ष को जीता। स्त्री के इस तरह से किए गए सतत संघर्ष का परिणाम है कि समाज की सोच और संस्कृति बदल रही है।

स्त्रियों ने अपने अस्तित्व के खिलाफ होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई है। अपनी पहचान बनाई है। आज भी उनका संघर्ष जारी है। आज, न केवल यह शब्द “स्त्री विमर्श” स्त्री अस्मिता की पहचान सकारात्मक रूप से बना रहा है, बल्कि समय के साथ स्त्री संबंधी कई जड़ताएं को भी कमजोर कर रहा हैं।