आदिवासी समाज अपने अस्तित्व के संघर्ष में एक निर्णायक दौर में है. वह अनादि काल से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता आया है और आज भी सतत संघर्ष में है. लेकिन उसके लड़ने का तरीका औरों से भिन्न रहा है. उसने युद्ध कभी भी भाड़े के सिपाहियों की मदद से नहीं लड़ा या युद्ध का ठीका आदिवासी समाज के किसी एक हिस्से का कभी नहीं रहा. वे साथ जीते हैं, साथ नृत्य करते हैं और एकजुट होकर पूरा समाज संघर्ष करता है.
सबसे पहले तो यह समझ लें कि आदिवासी अपने साथ तीर धनुष और कुल्हारी रखते हैं, बावजूद इसके वे हिंस्र नहीं. वे अपनी सुरक्षा के लिए ये हथियार अपने साथ रखते हैं, तीर धनुष उनकी पहचान का हिस्सा है. बावजूद इस तथ्य के अपने अस्तित्व के लिए आदिवासी समाज को निरंतर युद्धरत रहना पड़ा है और यह संघर्ष आर्य अनार्य युद्ध के जमाने से चला आ रहा है जो अंग्रेजों के जमाने में पहाड़िया विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह आदि के रूप में विख्यात है. तिलका मांझी, सिद्धो कान्हू, बिरसा मुंडा अंग्रेजों के खिलाफ चले उस युद्ध के शहीद पुरुष हैं. लेकिन युद्ध में भी वे गैर आदिवासी समाज से भिन्न हैं.
हमारी वर्ण व्यवस्था में युद्ध में भाग कुछ जातियां ही लेती थी और पूरा समाज तमाशीन होता था. युद्ध सामान्यतः भाड़े के सैनिक लड़ते थे और वे खुद के लिए नहीं, अपने राजा के लिए लड़ते थे.
कम्युनिस्ट आंदोलन भी एक पार्टी, एक अपनी लाल सेना के कनसेप्ट से चलता है, जो क्रांति के बाद बहुधा जनता के लिए ही मुसीबत बन जाता है.
लेकिन आदिवासी समाज जिस तरह शांति के दिनों में सामूहिक रूप से जीता है, उसी तरह युद्ध में भी समाज का बूढा, जवान, औरत, मर्द सभी भाग लेते हैं. यानी की पूरा समाज ही युद्ध के मैदान में खड़ा हो जाता है. सिद्धो कान्हू, तिलका मांझी या बिरसा मुंडा कोई राजा नहीं थे, न वे अपने रजवाड़े को बचाने के लिए लड़ रहे थे, ‘वे अपने देश में अपना राज’ के लिए लड़ रहे थे. और वे कैसे लड़ते थे?
सिद्धो कान्हू के विद्रोह के बारे में हंटर ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स आॅफ रूरल बंगाल’ में एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी, जिसने उस युद्ध में भाग लिया था, के हवाले से लिखा है.. टमक ..नगाड़ा उस वक्त तक बजता रहता जब तक एक भी योद्धा जीवित रहता..फिर वह शांत हो जाता..हम आगे बढते और किसी गांव में किसी घर के पीछे से नगाड़ा फिर बज उठता..फिर हमारे तरफ से चेतावनी, जबाब में तीरों की बौछाड़..नगाड़े की आवाज जो उस वक्त तक बजता रहता जबतक कि एक भी आदिवासी बचा रहता..
इस तथ्य को हम आजादी के बाद विभिन्न अवसरों पर और आंदोलनों के दौरान भी देखते रहे हैं. संघर्ष का तरीका बदल गया है, लेकिन मूल भावना वही है. कोई जन आंदोलन जब खड़ा होता है तो उसमें समाज के हर तबके के लोग शामिल होते हैं और सबसे आगे होती हैं पीठ पर बच्चा बांधे औरतें. और भविष्य इसी तरह के खुले जन आंदोलनों का है. पोस्को, नियमगिरि, कलिंगनगर, तपकारा, चांडिल, नेतरहाट में फायरिंग रेंज के खिलाफ चल रहा आंदोलन इस बात के गवाह हैं.
केंद्र सरकार इधर वनाधिकार कानून में संशोधन कर संघर्ष का एक नया मोर्चा खोलने की तैयारी कर रही है. उस वक्त इसी तरह के व्यापक भागिदारी वाले जन आंदोलन ही काम आयेंगे.