9 अगस्त को अब आदिवासी दिवस मनाने की परंपरा और आदिवासी संस्कृति के गुणगान की परिपाटी चल पड़ी है. और यह नितांत जरूरी है, ताकि उन्हें आदिवासियों के वजूद का एहसास हो. मैंने अपनी कंपनी में 36 वर्ष काम किया हैं, जहां बड़ी संख्या में आदिवासी अधिकारी-कर्मचारी काम करते थे. और मैंने यह पाया कि सारी योग्यता के बावजूद उन्हें बराबरी कि दृष्टि से नहीं देखा जाता है. इस संदर्भ में मुझे एक घटना याद आती है.

उस दिन विभाग में यह मेरा पहला दिन था, और जैसे ही मैं अपने चैंबर में पहुंची, एक प्यारी सलोनी सी लड़की ने मेरा स्वागत किया और अपना परिचय देते हुए बोली, “मैं काली हूँ.“ यह क्या परिचय हुआ? मैं कुछ बोलने वाली ही थी कि, वह कह उठी- “मेरा नाम है.” ये कैसा नाम हुआ? मैं काली हूँ न इसलिए? चलो ठीक है. मैं भी मुस्कुरा पड़ी थी और मुझे बताया गया कि काली मेरी सहायक है.

उस दिन के बाद से मेरे ऑफिस में मेरी मुलाकात काली से हर दिन होने लगी. मुलाकात क्या होती, जब भी मेरी गाड़ी ऑफिस पहुँचती वह बाहर ही मेरा इंतजार करती दिखती, और मेरे साथ ही मेरे चैंबर तक आती. मेरी हर सुविधा के बारे में पुछती. धीरे-धीरे मुझे भी उसका सबेरे-सबेरे इस तरह से मिलना अच्छा लगाने लगा था. उसके साथ काम करते हुए पता चला कि हमारे कंपनी के प्रावधानों के तहत उसके पिताजी के देहांत के बाद उसे यह नौकरी अनुकंपा के आधार पर मिली है. वह मेरे विभाग में दैनिक मजदूर थी. पूरे ऑफिस के लोग बड़ी ही हीनता के साथ उसे देखते थे. हमारे देश की जाति प्रथा का आलम यह है कि अगर यही सुविधा उच्यवर्ग के लोगों को मिले, तो अन्य लोगों की उनके प्रति सहानुभूति पूर्ण दृष्टि हुआ करती है.

मैंने कई बार चर्चा में उन्हें गंभीरता से बताने का प्रयास किया कि सभी को नौकरी तो कंपनी के प्रावधानों के तहत ही मिलती है, फिर यह विभेद पूर्ण नजरिया क्यों? कोई नियम कानून के खिलाफ तो किसी को नौकरी नहीं मिलती है न? मेरी बातों का वे सामने कोई जवाब तो नहीं देते थे लेकिन मैं समझती थी मेरे पीछे वो मेरी इस बात के लिए आलोचना ही किया करते थे.

एक दिन काली मेरे सामने अपने एक लोन ऐप्लीकशन को स्वीकृत करने के अनुरोध के साथ आई. मैंने उसके लोन ऐप्लीकशन को जब देखा तो पता चला कि उसने बारहवीं की परीक्षा 88 प्रतिशत अंकों से पास किया है और वह पाँच वर्षों से नौकरी कर रही है. उसका नाम भी काली नहीं था. उसका नाम ममता होरो था. लेकिन ऑफिस के लोग उसका मजाक उड़ाने के लिए उसे इस नाम से पुकारते थे. उसने भी सहजता से इस नाम को ओढ़ लिया था. मैं आश्चर्य से भर गई थी. उस दिन के बाद हर किसी को हिदायत थी कि कोई उसे काली नहीं कहेगा. सभी उसे उसके अपने असली नाम से पुकारेगा. मैंने लोगों को सख्त हिदायत दी कि किसी को भी इजाजत नहीं है कि उसके नाम को बिगाड़ कर पुकारे.

मैंने उसका लोन अप्लीकेशन तो स्वीकृत किया ही, साथ में उसे कंपनी के प्रावधानों के तहत विभागीय कर्मचारियों के ऊच्य पदों पर होने वाले नियुक्तियों के लिए आवेदन देने के लिए कहा था. वह हर तरह से उस पद के लिए उपयुक्त पात्र थी. मेरे कहने के अनुसार उसने उस पद के लिए आवेदन दिया और सफल भी हो गई.

जिस दिन ऑफिस में उसकी उच्च ऑफिस के पद पर चयनित होने कि मिठाई पार्टी चल रही थी, मैंने सुना- विभाग के बड़ा बाबू दूबे जी कह रहे थे- “अभी तो तुम्हारा उच्च पद पर चयन आरक्षण के कारण मिल गया, लेकिन क्या तुम्हें ऊपर जाने पर स्वर्ग में भी है आरक्षण के बल पर जगह मिल जाएगी?

मैं स्तब्ध थी. सोचे जा रही थी, ये लोग कितनी आसानी से, आदिवासी, दलित, स्त्री और अन्य वंचितों का अपमान कर जाते हैं और इनके चेहरे पर एक शिकन भी नहीं पड़ती.