एक अमेरिका पुलिस अधिकारी के घुटने के नीचे दम तोड़ते दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश अमेरिका के अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लायड द्वारा मरने के चंद मिनट पहले उच्चरित एक शब्द ‘क्लाॅसट्रोफोबिक’ मुझे बेचैना किये हुए है कई दिनों से. पूरा वाक्य है- आई एम क्लासट्रोफोबिक, यानि मैं क्लासट्रोफोबिया का शिकार व्यक्ति हूं. इसकी हिंदी है ‘संवृतिभीत’. लेकिन उससे इस शब्द की पीड़ा और त्रासदी स्पष्ट नहीं होती, न इस शब्द के पीछे छिपे अश्वेतों के लंबे बर्बर शोषण के इतिहास का ही कोई अंदाजा होता है. मैंने अंग्रेजी हिंदी डिक्शनरी देखी. गुगल पर सर्च किया और अर्थ और उसके पीछे का दारुण इतिहास खुलता चला गया.

क्लाॅसट्रोफोबिया दो शब्दों के मेल से बना है. लैटिन शब्द क्लाॅसट्राम और ग्रीक शब्द फोबिया. लैटिन शब्द क्लाॅसट्राम का अर्थ है एक छोटी सी बंद जगह. और ग्रीक शब्द फोबिया का अर्थ हुआ फीयर- भय. पूरे शब्द का अर्थ बताया गया है - ‘एबनाॅर्मली एफरेड आॅफ क्लोज्ड इन-प्लेस.’ एक और आशय बताया गया है ‘द क्लासट्रोफोबिया आॅफ टिनी हाउस.’ एक छोटा सा कमरा जिसमें खिड़कियां न हों, का भय. इस रोग के लक्षण क्या हैं?

पसीना और कंपन, बेहोशी और सर में चक्कर, मुंह सूखना, तेज सांस लेना, सरदर्द, छाती में कसाव, दर्द और सांस लेने में कठिनाई, पेशाब आना आदि.

जिन्हें बंद कमरे में रखा जाता है, वे इस रोग के शिकार हो सकते हैं. बंद कमरे में रखे जाने की कल्पना से भी रोग बढ़ता है. यह भय ‘जेनेटिक फैक्टर’ से भी हो सकता है.

अंदाजन पांच फीसदी अमेरिकन इस रोग के शिकार है. जाहिर है, उनमें से अधिकांश अश्वेत हैं.

मैं यह सब पढ़ता रहा और मेरी आंखों के समक्ष चलचित्र की तरह घूमता रहा अफ्रिकन देशों के विभिन्न बंदरगाहों से गुलाम बना कर लाये जाने वाले अश्वेतों का इतिहास. एक खास तरह के जहाजों पर लाद कर उन्हें यूरोपीये देशों के विभिन्न बंदरगाहों पर लाया जाता. अमानवीय परिस्थितियों में समुद्री यात्रा करते जंजीरों में जकड़े लोग, जिनमें से बहुतेरे यात्रा के दौरान ही मर जाते, अमेरिका और अन्य यूरोपीये देशों के बंदरगाहों पर जिनकी नीलामी होती और बड़े-बड़े लैंडलौर्डस जिन्हें खरीद कर अपने साम्राज्य में ले जाते. हां, इसी क्रम में उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा भी दे दी जाती. गन्ने और तंबाकू के खेतों में उन्हें जानवरों के तरह जोत दिया जाता. रहने के लिए दिये जाते अंधेरे, बंद बदबूदार कमरे. भागने पर तहखानों में बंद किया जाता. मारा पीटा जाता. कहा जाता है कि गुलामों के बर्बर शोषण से ही वह पूंजी पैदा हुई जिससे औद्योगिक क्रांति हुई और संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का जन्म भी.

लेकिन अफ्रीकन देशों से लाये गये अश्वेतों को ईसाई बन जाने के बावजूद अपनी गुलामी से मुक्ति के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा और आज भी उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं. उन्हें समानता का संवैधानिक अधिकार तो मिला, लेकिन उनके जीवन की परिस्थितियां बहुत नहीं बदली हैं. उनके रहन सहन के स्तर में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. वे सामान्यतः महानगरों के हासिये पर रहते हैं. कठोर श्रम करने के बावजूद उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं. सबसे गंभीर बात यह कि प्रच्छन्न रूप से वे नस्ली नफरत की धीमी आंच से हर वक्त घिरे रहते हैं.

और नस्ली नफरत की आंच कैसी है?

महज सौ वर्ष पहले ओमहा नस्ली दंगों के दौरान पहले एक अश्वेत शिकार की लिंचिंग की गयी और फिर उसे जलाया गया. नफरत की पराकाष्ठा यह कि जलते हुए बिल ब्राउन के साथ गोरो ने तस्वीर खिंचवायी. उस जमाने में इस तरह के पोस्टकार्ड बना कर वितरित करना एक लोकप्रिय तमाशा था. यह घटना 1919 की है. और नफरत की वह आग अभी बुझी नहीं जिसके ताजातरीन गवाह बने जार्ज फ्लायड. इसलिए कोरोना संकट से आक्रांत अमेरिका में विद्रोह प्रबल हुआ और उस दौरान गूंजता रहा है नारा - ‘ब्लैक लाईव्स मैटर’.

आप पूछेंगे कि यह इन सब बतों का प्रसंग क्या है? तो प्रसंग यह कि अमेंरिका में लाये गये अधिकांश आदिवासी अब ईसाई हैं और उन पर जुल्म ढ़ाने वाले भी ईसाई. लेकिन धर्म बदल लेने या एक हो जाने के बावजूद नस्ली नफरत कम नहीं होती है.

और संदर्भ है मणिपुर में हुई भीषण घटनाएं. कुछ मित्रों को लगता है कि चूंकि वहां के आदिवासी चूंकि ईसाई बन गये, इसलिए वे जुल्म के शिकार हुए. मत भूलिये कि धर्म बदलने से नस्ल नहीं बदलता. अमेरिका और पश्चिमी देशों की नस्ली हिंसा इस बात का ठोस प्रमाण है. मणिपुर में हमला ईसाईयों पर नहीं आदिवासियों पर हुआ है.