यह बात मोदी जी के ‘अमृत-काल’ के तुरंत पूर्व के ‘टाइम’ की है। मीडिया ‘टाइमिंग’ के हिसाब से, संभवतः वह सत्याग्रह पर स्वच्छाग्रह का झाडू चलाते मोदी जी की सत्ताग्रही ‘छवि’ यानी मोदी-राजनीति के ‘लार्जर देन लाइफ फोटोफोबिया के प्रथम प्रकटीकरण के समय की घटना है। कुछ और ठीक-ठीक कहें, तो उन दिनों मुख्यधारा का मीडिया ‘गुलामी बरतने की आजादी’ के सुख का स्वाद चखने लगा था, लेकिन देश में वह गोदी मीडिया के नाम से सर्वत्र चर्चित नहीं हुआ था। और, ठीक से समझना हो तो, वह व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के खुलने और ट्रोल आर्मी की बहाली का शुरुआती चरण था।
तो, उन्हीं दिनों उच्चस्तरीय प्रशासनिक पदों के लिए आयोजित एक प्रतियोगिता-परीक्षा में एक ऑब्जेक्टिव सवाल पूछा गया - 1942 में ‘भारत छोड़ो’ (क्विट इंडिया) का नारा किसने दिया? कांग्रेस के नेता ‘जवाहरलाल नेहरू’ ने या ‘हिंदू-राष्ट्र के हिमायती ‘वीर सावरकर’ ने या आरएसएस के नेता ‘हेडगेवार’ ने या कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेता ‘यूसुफ मेहर अली’ ने?
मीडिया में यह खबर यूं छपी कि जिन प्रत्याशियों ने ‘यूसुफ मेहर अली’ के नाम पर ‘टिक’ (सही का निशान) लगाया, उन्हें गलत करार दिया गया! तब इस बात का रहस्योदघाटन हुआ कि आज की नयी पीढ़ी तो क्या, देश के शासन-प्रशासन के नियमन-संचालन-नियंत्रण के साथ-साथ ‘शिक्षा-ज्ञान’ को डिक्टेट-कंट्रोल करने वाले ‘प्रभुओं’ का ‘इतिहास’ से कितना मतलब रह गया! उनका ‘इतिहास बोध’ क्या है और जो है उसका मकसद क्या है?
हाल में भाजपा से ‘एनडीए’ गठबंधन के प्रधानमन्त्री बने श्री नरेंद्र मोदी जी ने प्रतिपक्ष के ‘इंडिया’ के नेता राहुल गांधी के खिलाफ 1942 के गांधीयाना दौर के जिस ‘क्विट इंडिया’ का उल्लेख आरएसएस के सनातनी लहजे में किया, उससे फिर यही जाहिर हुआ कि उक्त ऑब्जेक्टिव सवाल के सही जवाब की जानकारी आज के हिंदुस्तान की नयी पीढ़ी से भी कम देश के शासन-प्रशासन का नियमन-संचालन-नियंत्रण करने वाले वर्तमान ‘प्रभुओं’ को है।
वैसे, पिछले नौ साल के मोदी शासन में जो कुछ ‘मुमकिन’ हुआ, उसका भव्य प्रमाण प्रस्तुत करने वाले गोदी मीडिया से यह तो जाहिर हो ही चुका है कि आज की नयी पीढी के युवा इतिहास में ‘पड़ने’ या इतिहास को ‘पढ़ने’ से परहेज करते हैं। जिन विद्वान चिंतकों और इतिहासकारों के लिए गांधी नाम ही ‘अस्पृश्य’ है उन्हें आजादी के आंदोलन के गांधियाना दौर को ‘गांधी बनाम अम्बेडकर’ और ‘गांधी बनाम भगत सिंह’ आदि-आदि का खेल बनाने-बताने में विशेष मजा आता है। और आज तो गोदी मीडिया इस दिव्यांग ज्ञान से लैस हो चुका है कि किसी ‘तकलीफ को तमाशा’ में व्यक्त करने का कौशल ही उसे जिंदा रख सकता है। गांधी से जुड़े किस्सों में ‘मजा’ और ‘मजाक’ के फर्क को मिटा दो, तो मोदी-शासन की मौन और प्रशासन की मुखर कृपा की पक्की गारंटी!
खैर। आजादी की लड़ाई के 1942 के ऐतिहासिक दौर के प्रामाणिक ‘दस्तावेज’ बिहार में मौजूद हैं। उनके कुछ अंश यहां प्रस्तुत करना प्रासंगिक होगा।
देश में दमघोंटू शून्यता
1942 में अगस्त के पहले के तीन महीने - मई, जून, जुलाई दृ में भारत को दम घोटने वाली भयानक शून्यता का अनुभव होने लगा था। भारतवासी हताश प्रतीत होते थे। ब्रिटिश सेनानायक, संयुक्त राज्य के जनरल स्टिलवेल की बची-खुची सेना और हजारों भारतीय शरणार्थी, जीतते हुए जापानियों से बचने के लिए बर्मा से भाग रहे थे। जापान भारत के दरवाजे तक आ पहुंचा था। भारत को धावे से बचाने के लिए इंग्लैंड के पास शक्ति नजर नहीं आ रही थी। … भारतवासी अपनी नितांत असहायता से झुंझला रहे थे और तंग आ गये थे। राष्ट्रीय संकट उपस्थित था, तनाव बढ़ता जा रहा था, खतरा सामने था, मौका पुकार रहा था…।
गांधीजी के लिए यह स्थिति असह्य थी। उन्होंने 28 मई, 1942 को अपने ‘सत्याग्रही’ सहयोगियों से कहा कि वे जल्दी ही आंदोलन शुरू करना चाहते हैं, लेकिन वे जल्दी में नहीं हैं। उनके दिमाग में कई और योजनाएं हैं। वे उचित वातावरण बनाने और जनता को शिक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने घनश्यामदास बिड़ला से कहा कि उनका दिमाग तेजी से काम कर रहा है, उन्होंने संघर्ष की रणनीति लगभग तय कर ली है और वे कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक का इंतजार कर रहे हैं। 14 जुलाई को गांधी जी ने अपने मन की बात कांग्रेस के करीबी नेताओं को बताई कि वे खुले अहिंसात्मक विद्रोह की बात सोच रहे हैं। अगले दिन उन्होंने कुछ विदेशी संवाददाताओं को बताया कि यह उनका सबसे बड़ा आंदोलन होगा। अगर उन्हें और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार किया गया तो आंदोलन ठप्प नहीं पड़ेगा, बल्कि वह जोर पकड़ेगा।
उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया, तो वे आमरण अनशन करेंगे। लेकिन उन्होंने अपने सहयोगियों से कहा कि अगर वे उनकी सोच में जल्दबाजी अथवा दूसरा कोई दोष देखें तो उन्हें बता दें। अगर प्रमुख कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गए, तब (गिरफ्तारी होने के बाद) क्या होगा?
इसके जवाब में गांधी जी ने प्रतिरोध की भावना पर जोर दिया। और कहा दृ “जब नेताओं को पकड़ लिया जाएगा तो प्रत्येक भारतीय अपने को नेता मान कर बलिदान देगा और इस बात की परवाह नहीं करेगा कि उसके काम से अराजकता पैदा होगी। अराजकता का दोष सरकार पर लगेगा जो अराजकता के बहाने या किसी और बहाने से अपनी अराजकता को मजबूत कर रही है। हमारी अहिंसा तब तक लंगड़ी रहेगी, जब तक हम अराजकता के डर से पीछा नहीं छुड़ा लेते। यह मौका यह सिद्ध करने का है कि दुनिया में अहिंसा से ताकतवर कोई चीज नहीं है।”
जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि उनके आह्वान पर मुसलमानों की क्या प्रतिक्रिया होगी तो उन्होंने उत्तर दिया दृ “मैंने अंग्रेजों से यह नहीं कहा है कि वे भारत को कांग्रेस या हिंदुओं को सौंप दें। उन्हें हिंदुस्तान ईश्वर को या आधुनिक शब्दावली में ‘अराजकता’ को सौंप देना चाहिए। तब सभी पक्ष आपस में कुत्तों की तरह लड़ेंगे या जब वे वास्तविक उत्तरदायित्व के आमने-सामने होंगे तो आपस में मिल-बैठकर समझौता करेंगे। मैं अव्यवस्था से अहिंसा के प्रादुर्भाव की उम्मीद करता हूं।”
अगस्त आते-आते तो ऐसी परिस्थिति हो गयी कि सभी एक स्वर से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने की आवश्यकता पर जोर देने लगे। सबों को विश्वास हो गया कि “अंगरेजी सरकार राजी-खुशी अपने पंजे से हिन्दुस्तान को निकलने न देगी, वह मिट जाएगी, पर अपने साम्राज्यवादी शिकंजे को ढीला न करेगी, अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति न छोड़ेगी, हिन्दुस्तानियों को एक न होने देगी, ताकि हम आजाद हो सकें । यदि सरकार जीत गयी तो हम जैसे पामाल हो रहे हैं, होते रहेंगे । यदि हार गयी तो विजेता आयेगा, वह हमारी फूट का फायदा उठा, हमें पामाल करना शुरू कर देगा। इसलिए आवश्यकता है कि हम तुरंत अंगरेजी सरकार को हटायें…।” अगले अंक में जारी