इस साल मानसून की कमी के कारण खरीफ की खेती पर असर पड़ रहा है. बारिश कम होने के कारण इस वर्ष धान की खेती में कमी नजर आएगी, जिससे लाखों किसानों के सामने संकट खड़ा कर दिया है. सभी किसानों ने समय पर बीड़ा तो बो दिया, लेकिन बीड़ा खेत में ही खराब हो जा रहा है.
खेती करने का जुनून तो किसानों में है, इसलिए जिनके लिए संभव हैं, वे पंप और पाईप की मदद से दूर दराज से पानी लाकर खेतों में डाल रहे हैं और खेत की जुताई कर रहे, तो कुछ लोगों ने तो बीड़ा को घर के आंगन में ही लगा दिया ताकि बारिश हो तो धान की रोपनी हो सके.
जुलाई से अगस्त बीत चला, लेकिन अभी तक धान की फसल सभी जगह नहीं लग पाई हैं. आसमान में काले बादल बेशक नजर आ रहे हैं, पर वह कभी कभार ही बरसाते हैं. ठीक से बारिश नहीं होने की वजह से खरीफ की फसलों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. मानसून के शुरू में हुई थोड़ी बारिश देखकर किसानों ने धान की फसल लगा दी थी, लेकिन तपती धूप ने धान के पौधे को पीला कर दिया. किसान बारिश न होने से काफी परेशान हैं. किसी तरह वह पंप सेट लगाकर सिंचाई कर रहे हैं. पंपसेट द्वारा 1 घंटे की सिंचाई की कीमत 150 से 200 रुपये लिये जा रहे हैं. एक खेत की सिंचाई करने में किसानों को कम से कम तीन-चार घंटा लग जाते हैं. किसान सिर्फ बारिश ना होने की वजह से परेशान नहीं हंै, खाद की बढ़ती कीमत, खेतों की जुताई ट्रैक्टर से करने में लगने वाला पैसा और मजदूरों की मजदूरी बढ़ने से भी किसानों को खेती करने में दिक्कत हो रही है. बढ़ती कीमत की वजह से 1 बीघा धान लगाने में 5000 से 7000 का खर्च आता है.
समस्या यह है कि जिस तरह कड़ी मेहनत करके पैसा खर्च करके धान की खेती तो कर लेते हैं, फसल भी हो जाती हैं, लेकिन अंत में जब उसे बेचने की बारी आती है तो उसकी कीमत बहुत कम मिलती है, जिसके कारण बहुत से किसान तो खेती करना ही छोड़ दे रहे हैं. लेकिन गांव के किसान इस विषम स्थिति में भी खेती करने में जुटे हैं, लेकिन शहर के कुछ इलाके में जो खेती होती थी, वह सब लुप्त होती जा रही है. अब कहीं खेत नजर नहीं आता. शहर के बीच की छोटी-छोटी बस्तियों में जो भी खेती होती थी, वह लुप्त होती जा रही है और खेत अब दलाल के माध्यम से गैर -आदिवासियों को बेचा जा रहा है.
विडंबना यह कि खेती की मुश्किलों को देख कर आदिवासी जमीन बेच तो रहा है, लेकिन उसे पूरा दाम भी नहीं मिल रहा है. लोगों को छोटी- छोटी रकम देकर जमीन उससे खरीद लिया जा रहा है और जहां एक जमीन बिका, धीरे-धीरे सभी लोगों ने जमीन बेचना शुरू कर दिया. पूरी कीमत तो तब मिलेगी जब जमीन की रजिस्ट्री होगी, इस बीच वह दलालों के आगे पीछे घूमता रहता है. और पूरा इलाका गैर - आदिवासियों के घरों, मोहल्लों से भरता जा रहा है. यह सब पूरा का पूरा भूमि कानूनों के रहते हो रहा है और दोनों पक्ष इसके लिए जिम्मेदार है.
आदिवासी समाज यह समझने के लिए तैयार नहीं कि जमीन बेचने से आगे की पीढ़ी को बहुत दिक्कत होगी. यह बात लोग नहीं समझ रहे हैं और सारी जमीन दलालों के हाथ शौंप दे रहे है.ं सभी आदिवासी किसानों से यह कहना चाहती हूं कि वह खेती करना ना छोड़ें नहीं तो एक दिन सारा जमीन दलालों के हाथ चला जाएगा और वह बड़ी-बड़ी कीमत पर गैर - आदिवासियों को बेच देगे और आदिवासी अपनी ही जमीन पर दूसरों के मकान बनाते नजर आयेंगे.