8.8.79 बोधगया आंदोलन का एक महत्वपूर्ण दिन है. इसी दिन मस्तीपुर में गोली चली थी जिसने आंदोलन को एक निर्णायक मोड़ पर ला दिया. पूरे देश में इसकी चर्चा हुई और बिहार सरकार का ध्यान खींचा. 77 के सतत सत्ता परिवर्तन के बाद वाहिनी ने जेपीसी के कहे अनुसार गांव जाकर काम करना शुरू किया.
बोधगया शहर का एक ऐतिहासिक महत्व है. उस समय तक हमें पता नहीं था कि यहां महंत धनस्सु गिरी जयराम गिरी इत्यादि ने अपना साम्राज्य फैला रखा है. सबसे पहले हमने सर्वे का काम किया. सर्वे से पता चला कि 12000 एकड़ जमीन पर उनका अधिकार है. यह फर्जी बेनामी है. खेती का सारा काम वहां के गरीब गुरबा ज्यादातर हरिजन करते हैं और उन्हें भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता. वाहिनी ने वहां शांतिमय संघर्ष करने का निर्णय लिया. काम बहुत कठिन था. पूर्व में मार्क्सवादी व सर्वोदय के साथियों ने भी काम किया था. थोड़ा बहुत समझदारी एवं हिंसात्मक संघर्ष के अलावा कुछ हासिल नहीं हो पाया था. हमारी रणनीति, जेपी का दिशानिर्देश एवं काम के प्रति समर्पण ने वह कर दिखाया जो किसी ने सोचा ना था.
आजाद भारत में पहली बार शांतिमय आंदोलन के द्वारा हजारों एकड़ जमीन मजदूर किसानों को बांटी गई एवं वर्षों पुराने महल को ध्वस्त किया गया. हमें उनकी प्रवृत्ति और स्थिति को जानने समझने में लगा. फिर उनके बीच एक विश्वास पैदा करना भी कठिन पर महत्वपूर्ण काम था. औरतों की पिटाई एक आम बात थी. पति द्वारा पिटना को उन्होंने अपनी नियति मान लिया था. हमने उनके बीच संगठन बनाकर अलग से बैठक करना शुरू किया. धीरे-धीरे औरतें खुलने लगी समझने लगी. अब उनको लगता था कि पति द्वारा पिटाई गलत है. उन्होंने ही तय किया कि जब भी किसी औरत की पिटाई होगी सारी औरतें उसे बचाने जाएंगी. पुरुषों को भी अपनी गलती का एहसास हुआ.
एक बड़ी लड़ाई जमीन के लिए छोटी-मोटी समस्याओं से निपटना जरूरी था. जातिगत भेदभाव भी सामने आने लगे. हरिजनों में भी कई उपजातियां थी और वह भी एक दूसरे को अपने-अपने को श्रेष्ठ मानने वाले. इस विषय पर भी हमें सचेत होना पड़ा. समितियों में इसका ध्यान रखा जाता था कि सभी का प्रतिनिधित्व हो. यह सब बड़ी लड़ाई की पृष्ठभूमि को मजबूत बनाने के लिए जरूरी था. फिर जमीन संघर्ष को तेज करने का निर्णय.
छात्र युवा संघर्ष वाहिनी एवं मजदूर किसान समिति के सम्मिलित बैठक में तय किया गया कि महंत के जमीन पर कोई काम नहीं करेगा. जमीन उनकी है तो वह खुद काम करें. ज्यादातर जमीनों को परती छोड़ दिया गया. इधर महंत और उनके समर्थक लोग बाहर से मजदूर बुलाकर खेती करने का निश्चय किया. 8 अगस्त की सुबह मस्तीपुर एवं पिपरपाती में सभी कार्यकर्ता जुटे. एक आवेदन तैयार किया गया, जिसे एक साथी को थाना में रिपोर्ट करना था. सुबह अनजान अजनबी चेहरे मस्तीपुर के चारों ओर दिखाई दे रहे थे. एक अनहोनी की आशंका हमने महसूस किया था. मैं और प्रभात जी कटोरवा पत्थर घर जिंदापुर इत्यादि गांव की ओर निकले, ताकि वहां के लोगों को मस्तीपुर बड़ी संख्या में आने को कहा जा सके.
कई गांव से संपर्क करते जब हम लौटने लगे तभी चार मुहान के पास गोली की आवाज आई. भागे भागे हम खेत की ओर गए तो खौफनाक आलम था. कई साथी गिरे पड़े थे. बदहवास हम दौड़ने लगे. हम लोग इसको बचाए की किसको बचाए. लोग घबराकर भागने की तैयारी में थे कि हमें देख भी रुक गए. रामदेव और पंचू माझी मरणासन्न अवस्था में थी. रामदेव की अतरिया दिख रही थी. पाचु जी को भी गोली लगी थी और जानकी मांजी के पैर में गोली लगी थी. एक दो जिंदा बम भी गिरे थे. मैं जापानी मंदिर (बौद्ध) फोन करने को बढ़ी, पर वहां का तार काट दिया गया था. मैं घायल साथियों को बचाने के लिए रोड पर हाथ देकर गाड़ियों को रुकवा रही थी तभी एक पुलिस की गाड़ी कुछ मजदूरों के साथ प्रभात जी को भी उठाकर ले गई.
तभी अरुण आनंद दिखा. जान में जान आई. मैदान में एक विरानी सी छाई हुई थी. सभी लोग अपने-अपने घर लौट गए थे और उनके घरों से घायल मजदूरों के परिवार वाले रो रहे थे. उनके चीत्कार की आवाज आ रही थी. शाम ढलने वाली थी. उसी समय बाजार की तरफ से कंचन और सुशील जी दिखे. पुलिस सभी साधुओं को गया अस्पताल ले गई. सुशील जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया. मैं और कंचन जी एक बस द्वारा गया चले गए.
दूसरे दिन पूरे शहर में ही नहीं पूरे बिहार में इसकी चर्चा होती रही. जेल में बंद साथियों से मिलने पटना से लोगों का आना-जाना लगा रहा. कंचन जी सुबह होते ही पटना चली गई थी और वहां के कई लोगों से बुद्धिजीवियों से संपर्क कर रही थी. सर्वोदय मंडल के कई साथी केशव मिश्रा, प्रमोद कुमार , प्रेम इत्यादि कई लोग वहां मिलने आए थे. इन्होंने जेपी से मिलकर आंदोलन के बारे में जानकारी दी. जेपी ने कहा संघर्ष को वापस लेने का कोई सवाल नहीं, परंतु संघर्ष को शांतिमय और अहिंसक बनाने की हर कोशिश की जानी चाहिए.
करीब 1 वर्ष के बाद आंदोलन का नक्शा साफ हो गया. फर्जी बेनामी जमीन को वहां के लोगों में बांटने का समय भी आ गया. हर गांव में महंत की ओर से बनाया गया कचहरी बंद हो चुका था. गुमास्ता, बराहिल इत्यादि का अस्तित्व खत्म हो चुका था. वैसे, बाद के दिनों में जानबूझ कर कार्यकर्ताओं एवं आंदोलन के साथियों को विभिन्न धाराओं में फंसाने के कारण कोर्ट कचहरी का चक्कर काटना पड़ा. पर सारी परेशानियों के बाद अंततः जीत हमारी हुई और हजारों की संख्या में हजारों एकड़ जमीन बांटी गयी.
आरंभ में जमीन के कागजात पर पुरुषों के नाम दिये जा रहे थे, क्योंकि यह ऐसी ही व्यवस्था चली आ रही थी. पर महिलाओं ने कहा हमने भी संघर्ष किया है, अतः जमीन हमारे नाम भी होगी. कुछ जगह तो ऐसा करने में हम सफल भी रहे. जमीन स्त्री-पुरुष दोनों के नाम रहा, पर जब दिक्कत आने लगी तब तब जमीन पुरुषों के नाम कराया गया. एक अच्छी शुरुआत को आगे नहीं बढ़ाया जा सका. फिर भी शांतिमय संघर्ष की सफलता के लिए बोधगया भूमि संघर्ष को हमेशा याद किया जाएगा.