प्रधानमंत्री मोदी जब लालकिले से उद्घोषणा करते हैं कि अब महिलाओं के नेतृत्व में देश उन्नति करेगा, तो महिलाओ की वर्त्मान स्थिति में यह बात कुछ असहज और चुनावी स्लोगन ज्यादा लगा. आज संसद मे महिला सांसदों की संख्या 103 है. लोकसभा के 554 सांसदों में मात्र 78 महिला सांसद हैं और राज्यसमा में 245 में इनकी संख्या केवल 25 है. लोग इसी बात पर खुश हैं कि निर्वाचन दर निर्वाचन इनकी संख्या बढ़ रही है. आजादी के 76 वर्ष बाद भी यदि 662.9 मिलियन महिलाओं के देश में र्यादि लोकसभा में 14 फीसदी तथा राज्यसभा में 10 फीसदी इनका प्रतिनिधित्व हो तो इसे संतोषप्रद तो नहीं कहा जा सकता और फिर महिला नेतृत्व में देश की उन्नति की बात सोची भी नहीं जा सकती.

महिलाओं के इस पिछडेपन के पीछे गृहकार्यों की जिम्मेदारी, अशिक्षा तथा राजनीतिक चेतना का अभाव बताया जाता है. महिलाओं को इस पिछडेपन से उबारने तथा उसे मुख्यधारा में लाने की जिम्मेदारी तो मुख्यतः प्रभुवर्ग पर ही है. इस तरह के जो भी प्रयास हुए, उन्हें अपर्याप्त ही कहा जायगा. इसके विपरीत जब महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई तब पुरुष उसमें बाधक ही बने.

1997 में लोकसभा की महिला सासदों ने अपने दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर लोकसभा में 33 फीसदी आरक्षण का बिल लेकर आयीं तो कई पुरुष सांसदो ने बेतुका तर्क देकर इसे कानून नहीं बनने दिया. लोकसभा में 14 फीसदी महिला प्रतिनिधियों में से 41 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जो राजनीति में कई दशकों से सक्रिय परिवारो से आती है. इसलिए उनको अवसर भी है और समर्थन भी है. इंदिरा गांधी इसका उदाहरण है. उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका भी मिला

इस तरह पुरुष प्रधान संसद में महिला नेतृत्व कल्पनातीत लगता है. फिर भी महिलाओं के हितैषी प्रधानमंत्री ससद में महिला आरक्षण कानून बनाकर कम से कम महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व दे सकते हैं. लालकिले के भाषण में प्रधानमंत्री महिलाओं के प्रति अपनी सहृदयता का प्रदर्शन करते हुए मणिपुर में महिलाओं के साथ हुए यौन अत्याचार पर खेद प्रकर किया. उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह की घटनाओं से बचाव का दायित्व सरकार का है. जब यह दायित्व बोध है तो प्रायः हर दिन देश के विभिन्न जगहों पर महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार की घटनाओं मे कमी क्यों नहीं आ रही?

कडी सजा का प्रावधान करने या सीसी टीवी से इन घटनाओं मे कमी नही आई, बल्कि बढ ही रही हैं. बलात्कार की घटनाओं में जल्दी न्याय मिलने की सम्भावन नहीं होती है. इसलिए महिलाओं से संबंधित समस्यायें चुनावी मुद्दे बनकर ही नहीं रह जाय. उनका उचित समाधान निकालने का दायित्व सरकार पर ही है.