अँग्रेजी आज विश्व की श्रेष्ठ भाषा हो न हो, लेकिन लोगों के बीच संवाद स्थापित करने वाली विश्व की एक महत्वपूर्ण भाषा तो हैं ही. भारत की मान्यताओं की माने तो यहाँ अँग्रेजी का महत्व लोगों के दिलो दिमाग पर इतना छाया है कि कोई अगर हिन्दी या अन्य स्थानीय भाषा का प्रकांड विद्वान भी हो और उसे अँग्रेजी ठीक से नहीं आती है, तो वह पढ़ा-लिखा नहीं माना जाता है.
मैंने जब अपनी नौकरी जॉइन की उस समय मुझे ठीक से इंग्लिश बोलने की प्रक्टिस नहीं थी. हिन्दी माध्यम से पढ़ाई करने वालों को अँग्रेजी बोलना सीखने के लिए विशेष प्रयास करने पड़ते हैं. हमें मौका भी तो नहीं मिलता है कि हम अँग्रेजी बोलते रहें. अँग्रेजी लिखना, पढ़ना, बोलना अलग-अलग बात होती है. तो मैं भी कोशिश में लगी थी.
तभी मुझे अपने विभाग के एक मेडिकल कमिटी के मेम्बर के रूप में कोलियरी में जाने का मौका मिला. सरकारी नियमों के तहत सभी क्षेत्र से कमिटी के सदस्यों का चुनाव किया जाता है. महिला प्रतिनिधि, विभाग के व्यक्ति तो विशेष क्षेत्र के साथ ही अल्पसंख्यक और एससी, एसटी, अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रतिनिधि भी कमेटी के सदस्य होते हैं. मैं कार्मिक विभाग की प्रतिनिधि के रूप में कमिटी की सदस्य थी.
मेरे साथ हेमंत कुजूर, जो मेरे वरीय अधिकारी भी थे, उस समिति में एससी, एसटी, एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में थे. उनकी शिक्षा रांची के जेवियर कॉलेज, जो अँग्रेजी मेडियम का है, वहाँ से हुई थी. इतनी भूमिका का मतलब यह है कि कारपोरेट जगत में हिन्दी दिवस तो प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को मनाया जाता है, लेकिन व्यवहार में अगर आप अधिकारी हैं, और अँग्रेजी में बात नहीं करते, तो आप तो योग्य अधिकारी नहीं हैं. लोगों का आपके प्रति सम्मान भी कम हो जाता है.
अगर आप कर्मचारी की श्रेणी में हैं, तो फिर आपके साथ यह वाध्यता नहीं होती है कि आप अँग्रेजी बोलंे. अगर कोई कर्मचारी अँग्रेजी बोलने लगता है, तो उसका भी मखौल उड़ाया जाता है. यहाँ भाषा के आधार पर यह विभेदीकरण हर जगह पर मौजूद रहता है. यह भिन्नता और श्रेष्ठता के कारण मुझे तो बड़ी परेशानी हो रही थी, लेकिन मेरा साथ हेमंत कुजूर सर ने हर-पल दिया. उन्हें मेरी कमजोरी का अंदाजा लग गया था.
तो, मुझे उन अधिकारियों के बीच भाषा के कारण अपमानित न होना पड़े, इसके लिए उन्होंने वे मुझे शेल्टर करते हुए, पूछे गए हर जानकारी का जवाब खुद ही दे दिया करते थे. वैसे भी मुझसे कोई व्यक्तिगत सवाल तो पूछे नहीं जा रहे थे, तो मेरे सीनियार होने के नाते वो विभाग से जुड़े सवालों का जवाब खुद ही दे रहे थे और किसी को मेरी कमजोरी का पता भी नहीं चल पा रहा था. मैं या कुजूर सर ही जान पा रहे थे.
हमारा समाज क्या, ऑफिस क्या सभी जगह लोग आदिवासियों के साथ असंवेदनशील तरीके से पेश आते है, लेकिन बदले में आदिवासी समाज कभी भी उन्हें अपमानित करने के बारे में नहीं सोचता. बाद के दिनों में मैं भी अंग्रेजी बोलने में परिपक्व हो गई और मेरा सामंजस्य भी कुजूर सर से बहुत अच्छा बन गया. तो मैंने उनके द्वारा मेरी नौकरी के शुरुआत में किए गए सहयोग के प्रति जब अपनी कृतज्ञता जाहिर करनी चाही, तो वो केवल हँस कर रह गए, और बात को टाल दिया.
लेकिन ऑफिस में मेरे और उनके साथ अच्छे संबंध बनने का परिणाम यह हुआ कि ऑफिस के कुछ लोग मुझे आदिवासी तो नहीं लेकिन दलित समझने लगे. आज भी यह बात याद आती है तो मुझे हँसी आती है कि लोगों के सोचने का दायरा कितना संकीर्ण होता है.