आज कल संविधान और कानून की बहुत दुहाई दी जाती है. उस समाज के लोग भी जिनता अपना समाज सदियों से बिना किसी लिखित के चलता रहा है, वे भी संविधान और कानून का हवाला देते तरहते हैं. पेसा कानून में यह है, सीएनटी एक्ट में वह और उसका पालन नहीं हो रहा. सारा जोर कानून के प्रावधानों की व्याख्या में खर्च कर दिया जाता है. और तथाकथितत सभ्य समाज तो बिना संविधान, कानून और सजा के प्रावधान के बगैर चल ही नहीं सकता. हर समस्या का इलाज यह कि एक नया कानून, पहले से ज्यादा कठोर कानून बना दो, लेकिन अपराध हैं कि रुकते ही नहीं.

आज के हालात देख कभी-कभी आश्चर्य होता है कि बिना किसी लिखित संविधान और शहर कोतवाल के सिर्फ आपसी समझदारी से आदिवासी समाज कैसे सदियों तक चलता रहा? क्या वहां चोरी नहीं होती थी? संपत्ति के झगड़े नहीं होते थे? उन्हें सुरक्षा की जरूरत नहीं थी? सेक्स अपराध नहीं होते? शायद होते होंगे, लेकिन यकीनन कम. नहीं के बराबर. क्योंकि सही गलत का बोध मनुष्य की चेतना में बद्धमूल होता है. इसलिए वहां न पुलिस की जरूरत थी और न जेल की.

वहां अपराध होते भी तो समाज वहां नियामक है. संविधान की मोटी किताब की जगह सहज विवेक प्रबल है. इसलिए अखड़ा में बैठ उनका निपटारा भी हो जाता था. और अपने तरीके से सजा भी दे दी जाती थी. अब नई दुनिया से उनका साबका पड़ रहा है. तो कुछ मामले अदालतों में भी जाते होंगे. लेकिन अपवाद स्वरूप ही.

यहां तो हर रोज एक नये कानून की जरूरत पड़ रही है. किसी के बेडरूम में कोई झांके नहीं, किसी के साथ बलात्कार न करे, पत्नी को अपमानित कर घर से निकाले नहीं, दहेज न ले और पत्नी को जलाकर मारे तो नहीं ही, कन्या भ्रूण की हत्या न करे, भ्रष्ट आचरण न करे, यानि हर कुकर्म को डिफाईन करो, उसके लिए सजा मुकर्रर करो, फिर अपराध के रोकथाम के लिए पुलिस-प्रशासन की व्यापक व्यवस्था करो. पूरे शहर में कैमरे लगा दो. अदालत लगे, वकीलों की फौज हो. तब चलेगा यह यह हमारी सभ्य दुनियां.

आपको यह बात जरूरत से ज्यादा आदर्शवादी लगे, लेकिन आपको नहीं लगता कि कोई समाज मूल रूप से अच्छे-बुरे, सही-गलत के बोध से चलता है और जिस समाज में यह बोध न रहे, वहां लाख कानून बना लो, अपराध रुकेगा नहीं?