एक देश, एक चुनाव मुद्दे पर अकादमिक या संवैधानिक दृष्टि से जितनी बहस कर लें, पर मूलतः यह राजनीतिक सवाल है और इसका निहितार्थ और इसके पीछे मंशा भी राजनीतिक ही है. इसलिए संविधान (मैं बहुत जानकार भी नहीं हूं) की कसौटी पर यह कितना आसान या कठिन, इस पर चर्चा तो होती ही रहेगी, मगर इसके पीछे कई मंशा को इग्नोर नहीं किया जा सकता.
दरअसल यह इस जमात का पुराना चिंतन है. इससे इसके सोच की दिशा का पता चलता है- ‘एक देश, एक निशान, एक प्रधान’ जनसंघ के समय का नारा रहा है. फिलहाल ‘एक प्रधान’ छोड़ दिया गया है, वक्त अनुकूल होने पर फिर लगेगा. भारत में मतदाता अपने क्षेत्र का प्रतिनिधि का चुनाव करता है. फिर वे सांसद अपने नेता का चुनाव करते हैं. बहुमत प्राप्त दल का नेता प्रधानमंत्री बनता है. लेकिन भाजपा हर चुनाव को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की शैली का रूप देने का प्रयास करती है. मोदी बनाम…
‘एक प्रधान’ का सामान्य अर्थ तो मजबूत केंद्र है, जिसमें संघीय व्यवस्था और धारणा का एक तरह से नकार है. बीते नौ वर्षों में राज्यों के अधिकार कम करने का हर संभव प्रयास होता रहा है. मजबूत केंद्र से आगे बढ़ कर अब नरेंद्र मोदी की छवि एक ‘बाहुबली’ की बनायी जा रही है. बीते दिनों इसकी पराकाष्ठा तब हुई, जब पार्टी की ओर से हालीवुड के एक मूलतः मारधाड़ के लिए प्रसिद्ध अभिनेता के गेटअप में मोदी जी का पोस्टर जारी किया गया, उनको नाम दिया गया- टर्मिनेटर. ‘
बहरहाल, इस समय ‘एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा उठाने के पीछे फिलहाल इनका मकसद जो भी हो, मेरी समझ से यह फिजूल है, जुमला है. अब कुछ दिन लोग इसी बहस में उलझे रहेंगे.
कुछ दिन से यह कयास लगाया जा रहा था कि सरकार समय से पहले संसदीय चुनाव करा सकती है. तो इसके लिए कोई तर्क और बहाना तो चाहिए, तो फिर से यह मुद्दा उठा दिया. जरा सोचिये कि इसी साल जिन चार राज्यों- कर्नाटक, हिमाचल, गुजरात और पंजाब- में चुनाव हुए, वहां आप विधानसभा भंग कर फिर चुनाव करा देंगे! लेकिन क्या गारंटी है कि उन राज्यों में सरकार किसी कारण गिर नहीं जायेगी और कोई वैकल्पिक सरकार बन ही जायेगी? इसका मतलब वहां अगले संसदीय चुनावों तक राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा? यानी प्रकारांतर से केंद्र का यानी भाजपा का!
क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल होगा? और यदि केंद्र सरकार ही अल्पमत में आ जाये तो? केंद्र में राष्ट्रपति शासन का कोई प्रावधान तो है नहीं. तो क्या वही अल्पमत सरकार अगले चुनाव तक कायम रहेगी? इस संदर्भ में किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करते समय विपक्ष को ‘वैकल्पिक सरकार कैसे बनेगी, यह बताना होगा, जैसा तर्क भी बेतुका ही है. मान लीजिये, विपक्षी दलों में ऐसी एकता नहीं है या न बन सके कि वे मिल कर सरकार बना सकें, तब भी क्या अल्पमत सरकार कायम रहेगी? अभी झारखंड में झामुमो, कांग्रेस और राजद की गंठबंधन सरकार है. अब यदि कांग्रेस सरकार से अलग हो जाये, सरकार को समर्थन भी नहीं करे, तो क्या होगा? सरकार अल्पमत में होगी. भाजपा और कांग्रेस मिल कर सरकार बनाने की स्थिति में हों भी, लेकिन ये एक साथ होने को तैयार नहीं हों, तो झामुमो की अल्पमत सरकार चलती रहेगी?
आज यदि सभी सभी राज्यों और लोकसभा का चुनाव हो जाये, तो क्या गारंटी है कि केंद्र की सरकार पांच साल चले ही. 1989 के बाद 1991 में चुनाव हुआ. 1996 के तीन साल बाद 1999 में चुनाव कराना पड़ा. इसका एक उपाय ये यह सुझाते हैं कि किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाते समय बताना होगा कि दूसरी सरकार कैसे बनेगी. यदि यह संभव नहीं है, तो वही सरकार, जो अल्पमत अल्पमत में आ चुकी हो, चलती रहेगी. इसे किसी तर्क से लोकतांत्रिक माना जा सकता है? सरकार बहुमत में नहीं होगी तो वह काम कैसे करेगी? उसके द्वारा पेश बजट या कोई विधेयक पारित कैसे होगा? यदि ऐसी स्थिति केंद्र में हो जाये, तो संसद में बिना बहुमत के वह सरकार काम कैसे करेगी? कोई विधेयक कैसे पारित करायेगी? क्या यह प्रावधान कर दिया जायेगा कि बिना बहुमत के भी कोई नया कानून बन सकता है, बजट को मान्य करने के लिए भी बहुमत की जरूरत नहीं है? फिर लोकतंत्र की अहम् शर्त ‘बहुमत का शासन’ का क्या होगा?
यदि ऐसा किया गया, तो इसका मतलब यह होगा कि किसी राज्य की गठबंधन सरकार के किसी घटक के अलग हो जानेय या एक दल का बहुमत होने पर भी सत्तारूढ़ दल में टूट हो जाने से यदि सरकार अल्पमत में आ गयी, तब ‘एक साथ’ चुनाव के नाम पर या तो वहां अगले चुनाव तक अल्पमत सरकार शासन करती रहेगीय या फिर वहां केन्द्रीय शासन लगा दिया जायेगा, यानी वहां व्यवहार में केंद्र में सत्तारूढ़ दल का ही शासन होगा. मान लें कि कोई मुख्यमंत्री पूर्ण बहुमत में रहते हुए चुनाव के एक साल के बाद या पहले ही इस्तीफा दे देता है. उसका दल किसी अन्य को मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहता है. (श्री केजरीवाल ऐसा कर चुके हैं) किसी मुद्दे पर वह नये सिरे से जनादेश चाहता है. विपक्ष की सरकार बनने की कोई सूरत नहीं है. तब भी क्या वहां नया चुनाव नहीं करा कर बाकी चार साल केंद्रीय शासन लागू रहेगा?
जिन राज्यों के चुनावों और आम चुनाव में कुछ महीनों का अंतर हो, उनकी विधानसभाओं को थोड़ा पहले भंग कर या कुछ का कार्यकाल कुछ आगे बढ़ा कर उनके चुनाव लोकसभा के साथ कराये जा सकते हैं. लेकिन हर हाल में केंद्र व राज्यों के चुनाव एक साथ ही हों, यह नाहक और नासमझ जिद के अलावा और कुछ नहीं है. यह तर्क कि इससे अलग अलग चुनाव कराने से होनेवाला खर्च बचेगा, तो एकदम बेतुका है. लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी कवायद-चुनाव पर होनेवाले खर्च को ही आप फिजूलखर्ची कह रहे हैं, हद है! यदि सरकार अपनी फिजूलखर्ची ही बंद या कुछ कम कर दे तो बहुत बड़ी राशि बच जायेगी. केंद्र व् राज्य की सरकारें, अपनी योजनाओं के प्रचार पर कितना खर्च करती है, इसका आंकड़ा ही बता दे. प्रधानमंत्री की देश-विदेश की यात्राओं, उनकी छवि निर्माण के लिए बीते नौ साल में कितना खर्च हुआ है, यह भी सामने आना चाहिए. एक स्वागतयोग्य सुझाव यह है कि हर सरकार अपनी उपलब्धि का जो विज्ञापन देटी है, उसी विज्ञापन के एक कोने मे उस विज्ञापन पर आया खर्च छाप ध् दिखा दे. इससे अंदाजा हो जायेगा कि चुनाव में ज्यादा खर्च होता है या ढिंढोरा पीटने में.
यह सब छोड़ भी दें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना भी खर्च हो, उसे फिजूलखर्ची क्यों मानें! गौरतलब यह भी है कि संसदीय प्रणाली में मतदाता प्रधानमंत्री का नहीं, अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि का चुनाव करता है. प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री कौन होगा, यह पहले से तय और घोषित हो, जरूरी नहीं. लेकिन लोकप्रिय नेता की छवि का लाभ संबद्ध दल को मिलता ही है. इसी कारण इन दिनों भारत में भी अमेरिका की तरह पक्ष विपक्ष के दो शीर्ष नेताओं के बीच मुकाबले का माहौल बनाने का प्रयास होता है. शायद भाजपा (और श्री मोदी) को लगता है कि विपक्ष के पास कोई दमदार चेहरा नहीं है, तो आम चुनाव के साथ ही विधानसभा के चुनाव होने से वह लाभ में रहेगी. लेकिन ऐसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण ऐसा कोई फैसला न तो उचित है, न देशहित में.
कुछ लोग विदेशों का उदहारण देकर इसे संभव, व्यवहारिक और जरूरी बताने का प्रयास करते हैं. कृपया 140 करोड़ आबादी वाले देश की तुलना छोटे और लोकतांत्रिक समझ के लिहाज से अपेक्षाकृत विक्सित देशों से न की जाए. अरविंद केजरीवाल भी कभी इसी तरह हर बात का निर्णय जनमतसंग्रह से कराने का सुझाव देते थे औए इसके लिए छोटे यूरोपीय देशों का उदहारण देते थे. अब शायद उनको समझ में आ गया है कि वह अव्यवहारिक सुझाव था.
एक पक्ष व्यवहारिकता का भी है. मुझे याद है, 1977 का लोकसभा चुनाव तीन चरणों में, महज पांच दिनों के अंतर- 16, 18 और 20 मार्च को- करा लिये गये थे. आज एक बड़े राज्य का चुनाव करने में तीन से चार माह तक लग जाता है. कहा जा रहा है कि सुरक्षा कारणों और चुनाव आयोग के पास संसाधनों की कमी के कारण. यह भी अजीब है कि यातायात के बेहतर साधनों और सुरक्षा बलों की बेहतर तैयारी के बावजूद मतदान का समय कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है.
ऐसे में पूरे देश में- लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करना कितना व्यावहारिक और संभव होगा, यह भी विचारणीय है.