1965 में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में ‘संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी’ ने कांग्रेस सरकार की जन-विरोधी एवं छात्रा-विरोधी नीतियों के विरोध में सशक्त आन्दोलन की शुरूआत की। राज्य के अधिकांश विरोधी दल इस आन्दोलन के साथ हो गये। कांगेस सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण राज्य में वातावरण बनने लगा। इसी क्रम में 9 अगस्त को पटना बंद एवं शाम में प्रदर्शन का आयोजन किया गया, जिसकी अगुआई राममनोहर लोहिया को करनी थी।
पटना बंद पूर्णतः सफल रहा। शहर में कई जगह लाठियां, गोलियां चलीं। शहर में कर्फ्यू लागू हो गया। इसके बावजूद राममनोहर लोहिया ने पटना के गांधी मैदान में एक विशाल सभा को संबोधित किया। रात में लौटते वक्त पटना जंक्शन पर लोहिया को गिरफ्तार कर लिया गया। पटना से प्रकाशित ‘सर्चलाइट’ के सम्पादक के.एम. जार्ज भी गिरफ्तार कर लिये गये।
इस दमनात्मक कारवाई का विरोध करने के लिए 10 अगस्त, 1965 को पटना के गांधी मैदान में धारा 144 एवं कर्फ्यू को अमान्य करते हुए एक आम सभा का आयोजन हुआ। आम सभा में हजारों की भीड़ जमा थी। उसी दौरान पुलिस ने अचानक मंच पर बैठे हुए नेताओं को निशाना साधते हुए हमला बोल दिया। इस हमले में कर्पूरी ठाकुर के बायें हाथ की हड्डी टूट गयी। रामानंद तिवारी और कम्युनिस्ट नेता चन्द्रशेखर सिंह समेत कई अन्य नेताओं को गंभीर चोटें आयीं।
उस समय कृष्णवल्लभ सहाय राज्य के मुख्यमंत्री थे। लाठी-चार्ज की घटना पर अगले दिन बिहार विधानसभा में जोरदार हंगामा मचा। मुख्यमंत्री सहाय ने कर्पूरी ठाकुर समेत अन्य सभी लोगों पर सरकारी परिसम्पतियों को नष्ट करने का आरोप लगाते हुए कहा दृ “श्री रामानंद तिवारी, श्री कर्पूरी ठाकुर एवं अन्य व्यक्तियों पर लाठी-प्रहार के परिणाम स्वरूप जो जख्म आये थे, वे साधारण हैं…।”
घायल कर्पूरी ठाकुर ने लोकतंत्र की मर्यादा के तहत वाणी में संयम रखते हुए कहा दृ “गांधी मैदान में 10 अगस्त को हमलोगों पर हुए लाठी-प्रहार के संबंध में मुख्यमंत्री जी ने 11 अगस्त को इस सदन में जो बयान दिया, उसमें कई गलत बयानियां हुई हैं। अध्यक्ष महोदय, मुख्यमंत्री ने कहा है कि उस दिन पुलिस ने हमलोगों पर जो जुल्म ढाया, वह सर्वथा उचित था। हम इस मुख्यमंत्री से किसी दूसरी चीज की उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। हमारा यह निश्चित मत है कि इस मुख्यमंत्री से यह आशा करना कि वे असत्य को असत्य, अनुचित को अनुचित और अन्याय को अन्याय कहेंगे, उसी तरह व्यर्थ है जिस तरह पानी को मथकर घी निकालने और बालू को पेरकर तेल निकालने की आशा करना व्यर्थ है।
कर्पूरी ठाकुर की आवाज में जनता बोली 1967 के आम चुनाव में। आम चुनाव में कांग्रेस को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा। केन्द्र में तो वह किसी तरह सरकार बनाने में कामयाब हुई। लेकिन बिहार समेत आठ राज्यों में वह बहुमत खो बैठी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बिहार में 69 जगहों पर जीतकर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आयी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता कर्पूरी ठाकुर थे ही। इसलिए बिहार की जनता ने मान लिया कि वही मुख्यमंत्री बनेंगे।
समाजवाद का सिद्धांत, गैरकांग्रेसवाद की स्ट्रैटजी समाजवादी संस्कृति की तलाश में चले कर्पूरी ठाकुर ने गैरकांग्रेसवाद की स्ट्रैटजी स्वीकार की। स्ट्रैटजी पर तेजी से अमल किया - हर तरह की कीमत दी।
पहली कीमत यह कि दूसरे के लिए मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया। और जो पद मिला, उसका जनता की तकदीर बदलने के लिए कम से कम समय में अधिक से अधिक इस्तेमाल करने का इतिहास रच दिया।
बिहार में गैर-कांग्रेसी दलों के जोड़ से सरकार बनाने की कोशिशें शुरू हुईं, तो सफलता और विफलता की सीमा-संभावना के आकलन के साथ कांग्रेसवाद के खिलाफ रची गयी स्ट्रैटजी पर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर ने अमल किया। अथक प्रयास से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ को ‘संविद सरकार’ में शामिल होने के लिए राजी किया।
संयुक्त विधायक दल में शामिल अधिकांश घटक दलों के विधायक कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थे। लेकिन जनक्रांति दल के नेता महामाया प्रसाद सिन्हा ने मुख्यमंत्री पद पर दावा ठोंक कर संविद सरकार बनाने की कोशिशों पर संभावना के ‘जोड़’ की बजाय संदेह के ‘घटाव’ का निशान लगा दिया। चुनव में जन-क्रांतिदल को 29 सीतें मिली थीं, जो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की 69 की संख्या की आधी भी नहीं थी। लेकिन महामाया प्रसाद सिन्हा ने पटना पश्चिम विधानसभा सीट से मुख्यमंत्री कृष्णवल्लभ सहाय को पराजित किया था। सो उनकी पार्टी की मांग थी - ‘मुख्यमंत्री कृष्णवल्लभ सहाय को हराने वाले इस महामाया प्रसाद सिन्हा को कम से कम एक घंटे के लिए भी मुख्यमंत्री बना दो!
कर्पूरी ठाकुर ने निर्द्वन्द्व भाव से मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी। बिना किसी ना-नुकुर के मुख्यमंत्री पद के लिए महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी। क्योंकि उनकी राजनीतिक यात्रा का प्रथम और अंतिम संकल्प यह था कि सामाजवादी संस्कृति पैदा करने के लिए वह एक घंटा तो क्या, जीवन भर के लिए सत्ताधीशों के बजाय संघर्षशील जनता की कतार में खड़े रह सकते हैं।
तब 33-सूत्री न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर बिहार के इतिहास में पहली बार 5 मार्च, 1967 को महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गैरकांग्रेसी दलों की सरकार सत्तासीन हुई। कर्पूरी ठाकुर को उप मुख्यमंत्री का पद मिला, साथ में वित्त और शिक्षा विभाग दिये गये।
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