अपनी इस समझ के प्रति कर्पूरी ठाकुर में कोई संदेह नहीं था कि गैरकांग्रेसवाद समाजवाद का विकल्प नहीं है। वह कांग्रेसवाद के सिक्के का ही दूसरा पहलू है - ‘हेड’ और ‘टेल’ की तरह। एक पहलू दूसरे को पराजित करेगा, लेकिन मारेगा नहीं, क्योंकि दूसरे के बिना पहला भी जिंदा नहीं रहेगा। दूसरे को मारकर कौन अपनी मौत को न्योतना चाहेगा?
इसलिए कर्पूरी जानते थे कि संविद सरकार कुल मिलाकर एक ही संस्कृति के दो पक्षों के बीच के ऐसे सत्ता-खेल का परिणाम है, जो हारने वाले पक्ष में विफलता के ठीकरे से एक दूसरे के सर फोड़ने की प्रवृत्ति को उकसाता है और जीतने वाले पक्ष में सत्ता की सूखी हड्डी को भी अधिक से अधिक अकेले चूस लेने की आग को हवा देता है। पराजित पक्ष में जनसंघर्ष के नाम पर अपने अस्तित्व की रक्षा की दुरभिसंधियां चलती हैं। विजयी पक्ष में जनता की भलाई के नाम पर अपनी-अपनी (निजी) भलाई की होड़ मच जाती है। ऐसे खेल का परिणाम जो भी हो, उसे अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता।
संविद सरकार का गठन और जय-जयकार होते ही यही हुआ। एक तरफ प्रतिपक्षी कांग्रेस के दिग्गजों पर राजनीतिक अवसान की तलवारें लटक गयीं। दूसरी तरफ सरकार में शामिल घटक दलों के दिग्गजों की महत्वाकांक्षाएं आपस में टकराने लगीं। कुर्सी पर प्रतिपक्ष के गुरिल्ला प्रहार के बीच सत्तापक्ष में अंदरूनी मारामारी शुरू हो गई।
यानी यह तय हो गया कि सरकार अल्पजीवी है। ऐसी सरकार में कर्पूरी जी जैसे व्यक्ति इसके सिवा क्या सोचते कि सामूहिक क्षमता और अधिकार होने के बावजूद जो काम बरसों में संभव नहीं होता, उसे व्यक्तिगत स्तर पर कुछ दिनों में कर जाओ, भले इससे अल्पजीवी सरकार की उम्र कुछ और घट जाय!
कर्पूरी जी ने इसीलिए फैसले जल्द किये और उन पर अमल के और भी तेज कदम उठाये। जो सही हो और जिस पर समय पर अमल हो वही फैसला युगान्तरकारी होता है!
लिफ्ट सबके लिए
उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर पहली बार पुराना सचिवालय स्थित अपने कार्यालय कक्ष में जाने के लिए चले। ऊपरी तल पर ले जाने के लिए उन्हें लिफ्ट के पास ले जाया गया। लिफ्ट के ऊपर अंग्रेजी में लिखा था - “ओनली फौर अफिसर्स ”, यानी केवल राजपत्रित पदाधिकारी ही लिफ्ट का प्रयोग कर सकते हैं! शेष कर्मचारियों का आना-जाना सीढ़ियों से।
कर्पूरी ठाकुर सीढ़ियों से ऊपर पहुंचे। अपने कक्ष में गये और पहला आदेश जारी किया - ‘आम लोग भी लिफ्ट का प्रयोग कर सकते हैं।’
वरीय अधिकारियों के प्रतिरोध के बावजूद तब से आम कर्मचारी के साथ-साथ सचिवालय में काम से आने वाले अन्य लोग भी लिफ्ट का प्रयोग करने की आजादी पा गये!
अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म
शिक्षा मंत्री की हैसियत से कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर उसे वैकल्पिक विषय बनाने का आदेश जारी किया!
इस फैसले ने बिहार में सदियों से शिक्षा और सम्मान से वंचित सामाजिक जीवन पर जादुई असर डाला। अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण, गांव-देहात के लाखों बच्चे मैट्रिक की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते थे। ज्यादातर पिछड़े-दलित। ये ‘नन-मैट्रिक’ हो कर पहले कदम पर ही उच्च शिक्षा से वंचित हो जाते। एक विदेशी भाषा की अनिवार्यता राज्य में शिक्षा के प्रचार-प्रसार को सीमित कर देती है! अपने ही समाज के युवक-युवतियां केवल अंग्रेजी में अनुत्तीर्णता के कारण ऊंची शिक्षा के वरदान से वंचित कर दिये जाएं? क्या यह आजाद देश के सत्ताधीशों की गुलाम मानसिकता का प्रमाण नहीं?
कर्पूरी ठाकुर के इस निर्णय की ‘कर्पूरी डिविजन’ कहकर खिल्ली उड़ायी गयी। समाज के हर वर्ग में काबिज - राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक संपन्नता से लैस - ब्राह्मणवादी सत्ता ने कर्पूरी ठाकुर को शिक्षा-जगत में अराजकता फैलाने वाला करार दिया। अधूरी योग्यता और अधकचरी क्षमता रखनेवालों ने कर्पूरी जी के निर्णय का भीषण विरोध किया। उनका उपहास करने के लिए जगह-जगह चर्चा चलाई और नाटक खेले। लेकिन जल्द ही वे स्वयं उपहास के पात्र हो गये।
सातवीं कक्षा तक निःशुल्क पढ़ाई
कर्पूरी ठाकुर ने दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय लिया - सातवीं कक्षा तक निःशुल्क पढ़ाई की सुविधा का। उन दिनों कक्षा 6 से ही सरकारी विद्यालयों में छात्रों को ढाई से तीन रुपये प्रतिमाह फीस भरनी पड़ती थी। इस ढाई-तीन रुपये की कीमत तब ज्यादा थी और गरीब छात्र इसका वहन नहीं कर पाने के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने के लिए विवश हो जाते थे। वे ‘ड्रॉप आउट’ हो जाते थे!
कर्पूरी ठाकुर के इस निर्णय ने ऐसे छात्रों को पढ़ाई के प्रति उत्साहित कर दिया। कर्पूरी ठाकुर के शब्दों में - “यह फैसला पिछड़ों, गरीबों और साधनहीनों को हीनता की ग्रन्थि से मुक्त होने का अवसर प्रदान करने के लिए किया गया।”
भ्रष्टाचार पर प्रहार
संविद सरकार के गठन के कुछ ही माह बाद उपमुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति टी.एल. वेंकटरामन की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया - अपदस्थ मुख्यमंत्री के.बी. सहाय और राज्य के अन्य मंत्रियों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए।
कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संसोपा ने सन् 1967 के आम चुनाव के समय ही यह घोषण कर दी थी कि अगर वह सत्ता में आयेगी, तो केबी सहाय और अन्य मंत्रियों के भ्रष्टाचार की जांच करायेगी।
जांच-आयोग का गठन 1 अक्टूबर, 1967 को हुआ और उसने चार माह में अपना काम पूरा कर अपनी अंतिम रिपोर्ट 5 फरवरी, 1970 को सौंप दी।
आयोग की रिपोर्ट ने बिहार सहित पूरे देश में सनसनी फैला दी।
जांच के दायरे में सिर्फ अपदस्थ मुख्यमंत्री केबी सहाय नहीं, बल्कि और भी कई दिग्गज आये - मंत्री श्री महेश प्रसाद सिन्हा, मंत्री श्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, मंत्री श्री रामलखन सिंह यादव, मंत्री श्री राघवेन्द्र नारायण सिंह और मंत्री श्री अम्बिका शरण सिंह जैसे दिग्गज!
बिहार में संविद सरकार और कर्पूरी ठाकुर जिंदाबाद के नारे गूंजने लगे।
लेकिन यूं गिरी सरकार
संविद सरकार को गिरना ही था, वह गिरी। गिरने की वह कथा सिर्फ कल का सच नहीं, आज का भी सच है! संविद सरकार ऐसी थी, जिसमें होनी-अनहोनी के कई जोड़-घटाव थे। 1967 के लोकसभा चुनाव में बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव के लिए संसोपा के टिकट पर चुने गये थे। वे राज्य की संविद सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बन गये। डॉ. लोहिया ने उन्हें राज्य मंत्रिमंडल से त्याग-पत्र देकर सिर्फ लोकसभा सदस्य के रूप में ही कार्य करने का निर्देश जारी किया, जो बिन्देश्वरी बाबू को स्वीकार नहीं हुआ। इधर डॉ. लोहिया ने जिद पकड़ी।
सो बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल ने संसोपा, सी.पी.आई तथा जनसंघ के विक्षुब्ध विधायकों को साथ लेकर 25 अगस्त, 1967 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में ‘शोषित दल’ नामक एक नई पार्टी का गठन कर दिया। शोषित दल ने कांग्रेस के समर्थन से 25 जनवरी, 1968 को बिहार विधानसभा में महामाया मंत्रिमंडल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 163 और सरकार के पक्ष में 150 मत पड़े। 13 मतों से महामाया सरकार गिर गयी!
इसके बाद पूरे पांच महीने तक कांग्रेसी और गैरकांग्रेसी नेताओं के बीच सत्ता के लिए समझौता, सौदेबाजी, खींच-तान का खेल चला।
1 फरवरी, 1968 को बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल ने कांग्रेस के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री-पद की शपथ ली। लेकिन यह सरकार सिर्फ दो महीने चली। पंडित विनोदानंद झा के नेतृत्व में कांग्रेस के 16 विधायकों ने विद्रोह किया। 18 मार्च, 1968 को सदन में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान मंडल सरकार 17 मतों से गिर गयी।
इन विद्रोही विधायकों के सहयोग से 22 मार्च, 1968 को भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार तीन माह में ही लड़खड़ाने लगी।
अंततः 29 जून, 1968 को बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया!
पहला मध्यावधि चुनाव, सत्ता के लिए उठा-पटक
सन् 1969 के फरवरी माह में बिहार विधानसभा के लिए पहली बार मध्यावधि चुनाव हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सका। संसोपा की सीट 69 से घटकर 53 हो गई। रामानंद तिवारी संसोपा विधायक दल के नेता बने। कर्पूरी ठाकुर ताजपुर क्षेत्र से ही कांग्रेसी उम्मीदवार को पराजित कर विधानसभा में पहुंचने में सफल रहे। संसोपा, प्रजा समाजवादी पार्टी, लोकतांत्रिक कांग्रेस और निर्दलीय सदस्यों ने सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन राज्यपाल ने उसे अस्वीकार करते हुए कांग्रेस के सरदार हरिहर सिंह को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। सरदार हरिहर सिंह के नेतृत्व में क्रांतिदल, शोषित दल एवं निर्दलीय विधायकों की मिली-जुली सरकार बनी।
इसी दौरान कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर विभाजन हो गया। सरदार हरिहर सिंह ने संगठन कांग्रेस में रहना पंसद किया, जबकि कांग्रेस विधायक दल के अधिकांश सदस्य इंदिरा कांग्रेस में चले गये। परिणामस्वरूप 22 जून, 1969 को पशुपालन बजट पर मतदान के दौरान सरदार हरिहर सिंह की सरकार 21 मतों से पराजित हो गयी।
22 जून, 1969 को ही गैरकांग्रेसी साझा सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में लोकतांत्रिक कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री ने पुनः शपथ ली। शास्त्री मंत्रिमंडल में शोषित दल घटक से किसे मंत्री बनाया जाय, इस पर विवाद शुरू हो गया। शोषित दल में जगदेव प्रसाद और महावीर प्रसाद ने मनचाहा विभाग के साथ मंत्री पद के लिए दवाब बनाना शुरू किया। लेकिन उनके भयादोहन के सामने झुकने से इंकार करते हुए भोला पासवान शास्त्री ने 4 जुलाई, 1969 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। स्थायी सरकार के गठन की कोई संभावना बनती नहीं देखकर बिहार दूसरी बार राष्ट्रपति शासन के गिरफ्त में फंस गया। करीब सात माह तक कोई सरकार नहीं बन सकी।
भोला पासवान शास्त्री सरकार के पतन के बाद सन् 1970 के शुरुआती महीने से ही बिहार में मिली-जुली सरकार बनाने की कोशिशें शुरू हो गईं।
कोशिश रंग लायी। संसोपा, संगठन कांग्रेस, जनसंघ तथा कुछ निर्दलीय सदस्यों ने एकजुटता दिखाकर बहुमत का जुगाड़ भी कर लिया। संसोपा विधायक दल के नेता रामानंद तिवारी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए आपस में सहमति भी बन गई। उन्हें सिर्फ मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने का काम बाकी रह गया था।
लेकिन तभी संसोपा के भीतर रामानंद तिवारी के मुख्यमंत्री बनने को लेकर अचानक मतभेद हो गया। संसोपा के एक बड़े धड़े ने जनसंघ जैसी ‘सांप्रदायिक पार्टी’ के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने की कोशिश के लिए रामानंद तिवारी की आलोचना शुरू कर दी। इस धड़े ने यह बात भी प्रचारित करना शुरू किया कि जिस पार्टी का नारा ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ हो, उस पार्टी की ओर से किसी सवर्ण नेता का मुख्यमंत्री पद पर आसीन होना पिछड़ों के साथ विश्वासघात होगा। तिवारी समर्थकों ने इसे कर्पूरी की साजिश करार दिया। संसोपा के अंदर रामानंद तिवारी और कर्पूरी ठाकुर के परस्पर विरोधी खेमे बनने लगे। एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी भी शुरू हो गई। संसोपा के टूटने की भी भविष्यवाणी की जाने लगी।
लेकिन तभी अचानक रामानंद तिवारी ने जनसंघ विरोधी रुख अख्तियार कर सबको हतप्रभ कर दिया। उन्होंने जनसंघ की आलोचना करते हुए एक पर्चा निकाला और उसे देश भर के अखबारों में वितरित कराया। पत्र-पत्रिकाओं को दिये गये साक्षात्कारों में भी उन्होंने जनसंघ के सांप्रदायिक रुख की आलोचना शुरू कर दी।
जनसंघ के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने से रामानंद तिवारी के इंकार के बाद 16 फरवरी, 1970 को कांग्रेस के दारोगा प्रसाद राय ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन दारोगा प्रसाद राय की सरकार मात्र नौ महीने ही चल पायी। तब कर्पूरी ठाकुर ने मिली-जुली सरकार का नेतृत्व करने के लिए 22 दिसंबर, 1970 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। कर्पूरी ठाकुर की यह सरकार उसी जनसंघ के सहयोग से बनी, जिसके समर्थन से सरकार बनाने से कुछ माह पूर्व रामानंद तिवारी ने इंकार कर दिया था। दिलचस्प बात यह रही कि कर्पूरी मंत्रिमंडल में रामानंद तिवारी बतौर पुलिस मंत्री शामिल हुए! कर्पूरी ठाकुर का यह मुख्यमंत्रित्व काल सिर्फ 163 दिनों का रहा। सौदेबाजी व दल-बदल के कारण उनकी सरकार 2 जून, 1971 को गिर गयी।
163 दिनों का मुख्यमंत्री: औरों से अलग
एक: मुख्यमंत्री बनते ही कर्पूरी जी ने फरमान जारी कर दिया - ‘सचिवालय के सभी आला अधिकारी हिन्दी में टिप्पणी लिखें। सिर्फ अंग्रेजी में टिप्पणी लेखन दंडनीय होगा।’
इसके बाद ही बिहार सरकार के कार्यालयों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हुई और हिन्दी भाषा को प्रोत्साहन मिला। हालांकि उनके इस निर्णय की यह कहकर कटु आलोचना की गई कि कर्पूरी बिहार के नवयुवकों को उच्च सरकारी पद पाने से रोक रहे हैं, क्योंकि अंग्रेजी की उच्च शिक्षा प्राप्त किये बिना कोई उच्च पदाधिकारी कैसे बन सकता है?
कर्पूरी ने ऐसे आलोचकों का मुंहतोड़ जवाब दिया। उन्होंने कहा - ‘हमें ऐसे पदाधिकारी चाहिए जो जनता की भाषा समझे, जनता की भाषा बोले और जनता की भाषा में काम कर सके। जो अधिकारी ऐसा नहीं कर सकता है उसके लिए यहां स्थान नहीं है।’
दो: कर्पूरी ठाकुर ने सचिवालय स्थित मुख्यमंत्री कक्ष में आमजनों के प्रवेश पर जारी प्रतिबंध हटाने का फैसला किया। छूट का आदेश जारी किया।
सामंत-नौकरशाह और कांग्रेसियों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई। कर्पूरी ठाकुर ने जवाब दिया - ‘मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी शासनाधिकारी या राजा की नहीं, जनता के सेवक की होती है। मैंने जनता से सीधा सरोकार के लिए ऐसा किया है, ताकि जनता अपनी व्यथा, सुख-दुख सीधे मुख्यमंत्री को बता सके।
तीन: कर्पूरी ठाकुर की पत्नी बीमार पडीं। कर्पूरी जी के निकटतम सहयोगी अमीरलाल राय उन्हें डाक्टर के यहां ले जाने लगे। कर्पूरी जी ने पूछा - गाड़ी कहां ले जा रहे हैं? अमीरलाल राय ने कहा - डाक्टर के यहां इन्हें दिखाने ले जा रहा हूं। कर्पूरी जी ने कहा - अमीरी लाल जी! ये गाड़ी मुख्यमंत्री की है, मेरी नहीं। आप इन्हें रिक्शा से ले जाएं।’ और, अमीरलाल मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की पत्नी को रिक्शा से डॉक्टर के यहां ले गये।
चार: कर्पूरी जी के पिता गोकुल ठाकुर बीमार पड़े। तेज बुखार। चलना-पिफरना भी बंद। तभी गांव के एक जमींदार का बुलावा आया। गोकुल ठाकुर ने हलकारे के जरिये अपने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए जाने में अपनी असमर्थता जतायी। जमींदार आग-बबूला हो उठा। उसने हलकारे को वापस भेज कर गोकुल ठाकुर को जबरन अपनी ड्योढ़ी पर बुलाया। और, उनकी जमकर धुनाई कर दी। पिटाई में गोकुल ठाकुर के हाथ की हड्डी टूट गयी। मुख्यमंत्री के पिता के साथ हादसा! सूचना मिलते ही सरकारी महकमे में हलचल मच गयी। जमींदार को तुरन्त गिरफ्तार कर हाजत में बंद कर दिया गया। समस्तीपुर के सदर अस्पताल में गोकुल ठाकुर का प्राथमिक उपचार हुआ। इसकी सूचना कर्पूरी ठाकुर के आप्त सचिव लक्ष्मी साहु को दी गई। लक्ष्मी साहु के माध्यम से कर्पूरी ठाकुर को जैसे ही सारे घटना-क्रम की जानकारी मिली, उन्होंने तत्काल अपने पिता को पटना इलाज के लिए बुला लिया और फिर समस्तीपुर के जिलाधिकारी से दूरभाष पर बातचीत कर जमींदार को छोड़ देने का अनुरोध किया। चकित जिलाधिकारी ने इसमें अपनी असमर्थता जतायी। तब कर्पूरी ठाकुर ने कहा - ‘मेरे पिता को यह प्रताड़ना कोई पहली बार नहीं मिली है। हम तो बचपन से ही यह सब देखते-झेलते आये हैं।’ फिर उन्हांने मुख्य सचिव के माध्यम से सूचना भेजवाई और जिलाधिकारी को जमींदार को छोड़ने के लिए विवश किया। जमींदार पर कोई मुकदमा भी न हुआ।