बात पिछले जनगणना के समय की है। एक दिन दोपहर का समय था कि अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। खोलने पर देखा जनगणना वाले आये हैं। मैंने सहजता से कहा - पूछिए ? उन लोगों ने उतनी ही तत्परता से आग्रह किया - ‘मालिक को बुलाइये न।

मैंने इधर उधर देखते हुए उनके कहे शब्द को समझने की कोशिश की। कहा - यहाँ तो कोई मालिक नहीं है। उन्होंने फिर दोहराया - ‘हम इस घर के मालिक से मिलना चाहते हैं। घर के मालिक अगर घर में हैं तो उन्हें बुला दीजिये न, हम उनसे मिलना चाहते हैं। मेरे उदासीन दिखने पर उन्होंने फिर से कहा, “घर का कोई तो मालिक होगा?” तब मैंने भी स्पष्टता से कहा - इस घर मैं हम पति- पत्नी दो लोग ही रहते हैं। उनमें से कोई मालिक या नौकर नहीं है। मैं भाषण देने के मूड में आ चुकी थी।

हमारी बातों को सुन रहे हमारे पड़ोसी ने मेरी ‘नादानी’ को सुधारते हुए हस्तक्षेप किया - ये आपके मिस्टर को कह रहे हैं। मालिक से इनका तात्पर्य घर के बड़े, पुरुष से है।

खैर, बात को नहीं बढ़ाते हुए मैंने उनको आवश्यक जानकारियां दे दी।

मैंने महसूस किया कि किस तरह से पितृसत्ता बहाने -बहाने से अपने वास्तविक रूप में कदम -कदम पर हमारे सामने न केवल मौजूद होती है, वरन अपनी मौजूदगी के निशान छोडने को कभी भी तैयार नहीं होती है। पितृ सत्ता की कोशिश हमेशा स्त्रियों के वजूद को नकारने की होती है, बौना बनाने की होती है। हम सब जो सालों से पुरुष सत्ता व वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई लड़ते आ रहे हैं, हमें भी अक्सर पितृसत्ता की गहरी होती जड़ों से रूबरू होना ही पड़ता है।

भारत के कुछ राष्ट्रीय दल जातीय आधार पर जनगणना की बात कर रहे है। कारण स्पष्ट है, अगर समाज में जाति है, तो जनगणना जाति के आधार पर होनी चाहिये। भारत की सामाजिक व्यवस्था व्यक्ति की पहचान एक इंसान के रूप में न करके जाति विशेष के रूप में करती है। जाति से इतर किसी की कोई पहचान नहीं होती।

लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि अगर समाज में पितृसत्ता है तो स्त्रियों की जाति तो उसके पति से ही जानी जाएगी। अगर कोई स्त्री किसी दूसरी जाति के पुरुष से विवाह करती है, तो उसकी पहचान उसके पति की जाति से होती है। यानी स्त्री तो पानी की तरह है, जिस रंग में मिलाओ, उसी रंग की हो जाति है। अगर पुराणों, उपनिषदों और धर्मग्रंथों की मानें तो स्त्री जाति, वर्ण- गोत्र विहीन प्राणी है।

ऐसी स्थिति में अगर जातिगत आधार पर जनगणना होती है, तो स्त्री के हकों को, उसकी समता समानता की लड़ाई को नजरंदाज कर दिया जायेगा। और वह केवल अधीनस्थ प्राणी ही मानी जायेगी। जनगणना की यह पद्धति कि एक घर, एक परिवार, परिवार का एक मालिक और अन्य सभी उसकी सल्तनत- महिलायें, बच्चे, यह अजीबोगरीब परम्परा या धारणा, जो सदियों पुरानी हो चुकी है, आखिर कब तक प्रचलन में रहेंगे?

आखिर स्त्री पुरुष के बराबरी के रिश्ते को कब तक अमान्य किया जाता रहेगा? कब तक स्त्री उपनिवेश बनी रहेगी? इस कारण ही स्त्री संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। वे मानती है कि यह स्त्री के सम्मान के खिलाफ है। अतः एक सम्मानजनक रास्ता तलाशने की जरूरत है.