नए विपक्षी गठबंधन ने गोदी मीडिया के चैदह एंकरों के वहिष्कार का फरमान जारी किया है. वे उनके कार्यक्रमों में नहीं जायेंगे. जिन एंकरों के वहिष्कार का निर्णय लिया गया है, उन पर आरोप है कि विगत कई वर्षों से वे सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए सतत विष वमन कर रहे हैं, तथ्यों को गलत ढ़ंग से पेश करते हैं. वैसे तो इंडिया गठबंधन में कुछ दलों के नेता इस फैसले के साथ नहीं, बावजूद इसके यह उम्मीद की जा रही है कि इस वहिष्कार का कुछ असर पड़ेगा और मीडिया की गिरती छवि में कुछ सुधार होगा.
लेकिन मेरी अपनी व्यक्तिगत समझ यह है कि इसका कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है. बिना अधिक विस्तार में गये कुछ बातें मैं यहां रख रहा हूं.
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मैं लंबे अरसे तक मुख्यधारा की पत्रकारिता से जुड़ा रहा हूं और मेरा अनुभव यह है कि पत्रकार या एंकर एक विशाल मशीनरी में बदल चुके पत्रकारिता जगत का एक अदना सा पुर्जा मात्र है. वह मीडिया मालिकों के इशारे पर काम करने के लिए कटिबद्ध है. वह मालिकों के दिशा निर्देश पर ही काम करता है. उसकी यह औकात नहीं रह गयी है कि वह अपने स्व विवके से कुछ भी करे.
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सामाजिक सरोकारों वाले कुछ प्रतिबद्ध समाजसेवियों/पत्रकारों के निजी प्रयास से चली पत्रकारिता की क्षीण धारा से इतर संस्थागत रूप से चली पत्रकारिता का चरित्र शुरु से सत्तामुखी रहा है. अब जब तक सत्ता का चरित्र जनोन्मुख रहा, तब तक मीडिया भी जनोन्मुख दिखाई देती रही, लेकिन सत्ता का चरित्र बदलने के साथ साथ उसका चरित्र भी बदलता चला गया. और आज तो सत्ता ही कारपोरेट के अनुसार चल रही है, फिर मीडिया की क्या बकत?
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मीडिया का अंतरंग और बहिरंग दोनों बदल चुका है. वह भारी भरकम ऐसे धंधे में बदल चुकी है जिसे कारपोरेट और निवेश के बलबूते ही चलाया जा सकता है. जाहिर है उस पर कारपोरेट का शिकंजा कस चुका है. एनडीटीवी जैसे कमिटेड पत्रकारों द्वारा संचालित चैनल का जब इतनी आसानी से पतन हो सकता है, तो अन्य चैनलों की क्या बात की जाये. जाहिर है कुछ अपवादों को छोड़ कर तमाम चैनल अब गोदी मीडिया में बदल चुके हैं. और वे वही करेंगे जिससे इस कारपोरेट पोषित सत्ता व दल का फायदा हो.
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इस बात को भी समझना चाहिए कि पत्रकार या एंकर उसी समाज से आते हैं जहां से राजनीतिज्ञ, अधिकारी-कर्मचारी, डाक्टर, इंजीनियर, व्यापारी आते हैं. चातुर्दिक पतन के दौर से पत्रकार या एंकर अछूता रहेगा, इसकी उम्मीद करना दिवास्वप्न जैसा है. धार्मिक उन्माद, नस्ली हिंसा, कट्टरता, नफरत हमारे समाज के एक बड़े हिस्से का स्थाई भाव बन गया है. राजनीतिक नेतृत्व करने वाले खुले आम हिंदू राष्ट्र की बात कर रहे हैं. अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत उनका राजनीतिक हथियार है. आज के एंकर व पत्रकार इसी समाज से आते हैं.
आप उन चैनलों का ही वहिष्कार क्यों नहीं करने का आह्वान करते जो नफरत और सांप्रदायिक उन्माद फैलाते हैं? शायद इसलिए, फिर देखने लायक कोई चैनल ही नहीं बचेगा.