प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आगामी एक अक्टूबर को देश भर में एक घंटे के लिए सफाई अभियान का आह्वान किया है. गांधी जयंती (दो अक्टूबर) के एक दिन पहले इस अभियान का मकसद महात्मा गांधी के प्रति आदर प्रकट करना बताया गया है. इसे ‘स्वच्छांजलि’ नाम दिया गया है. बेशक यह एक सकारात्मक कार्यक्रम है. गांधी को याद करते हुए पूरा देश वह काम करेगा, जिस पर गांधी बहुत जोर देते थे. सफाई के साथ एकजुटता भी.

कोई संदेह नहीं कि श्री मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के साथ ही साफ- सफाई को एक देशव्यापी अभियान बना दिया. इसके कुछ सकारात्मक नतीजे भी दिखते हैं. मगर हम क्या करें कि अपने आसपास को साफ रखने का हमारा संस्कार ही नहीं बन पाया है. अब प्रधानमंत्री का आह्वान या फरमान है, पूरा सरकारी तंत्र, सरकारी महकमे, स्कूल-कालेज आदि इसमें लग जायेंगे, तो कुछ सफाई भी हो जायेगी. माहौल तो बनेगा ही. मोदी की जयजयकार भी. भाजपा और उससे जुड़े संगठनों के लिए यह एक विशेष कार्यक्रम होगा ही. कोई हर्ज नहीं. लेकिन आशंका है कि कहीं इस ‘स्वच्छांजलि’ में लोगों को सहज ‘स्वेच्छा’ के बजाय सीधे या मनोवैज्ञानिक दबाव में न शामिल होना पड़े. कहीं यह गांधी के नाम पर एक और कर्मकांड न बन जाये.

यह तो सर्वज्ञात ही है कि श्री मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बने और उसी वर्ष गांधी जयंती के दिन ही देश भर में ‘स्वच्छता’ अभियान की शुरुआत हुई थी. संयोग से मैं उस दिन शिमला में था. विशुद्ध रूप से पर्यटन के मकसद से. शिमला में हेमा मालिनी (माननीय सांसद) को कार्यक्रम की अगुवाई करनी थी. हमारे ‘मॉल’ पहुंचने तक कार्यक्रम संपन्न हो चुका था. लोगों ने बताया कि हेमा मालिनी श्सफाईश् कर सकें, इसके लिए कहीं से लाकर वहां कुछ कचरा डाल दिया गया था. इस तरह शिमला की सबसे साफ सुथरी जगह पर श्स्वच्छता अभियानश् की औपचारिकता पूरी हुई! अगले दिन के अखबारों में खबर इसी रूप में छपी भी. यह श्स्वच्छता’ का कर्मकांड नहीं था?

वर्ष 2017 में महात्मा गांधी के चंपारण आगमन और वहां निलहों (गोरे) के जुल्म के शिकार किसानों के साथध्पक्ष में सफल सत्याग्रह के सौ साल पूरे हुए थे. तब भी बिहार में नीतीश कुमार की सरकार थी. उसमें भाजपा भी थी. केंद्र और राज्य सरकार ने भव्य आयोजन किया. दूसरी और आंदोलन से जुड़े संगठनोंध् लोगों ने अलग कार्यक्रम किया. भितिहरवा आश्रम से वाहनों पर निकली यात्रा दोनों जिलों (पश्चिम और पूर्वी चंपारण) के उन गावों से होते हुए, जहां जहां गांधी ठहरे थे, वहां सभाएं करते, रात्रि विश्राम करते हुए, दस दिन बाद मोतिहारी में समाप्त हुई. मैं उसमें शुरू के पांच दिन शामिल था. सरकारी समारोह मोतिहारी में हुआ. उसमें प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि अब ‘सत्याग्रह’ की आवश्यकता नहीं हैय अब ‘स्वच्छाग्रह’ का समय है! हम आंदोलनकारी साथी और गांधी के विचारों से जुड़े अधिकतर लोग विस्मित थे. क्या सचमुच अब ‘सत्याग्रह’ की जरूरत नहीं रही? आज गांधी होते, तो बस चरखा कातते और झाडू चलाते रहते? केंद्र व राज्य सरकारों (किसी भी दल की) के कामकाज से संतुष्ट रहते? क्या यह देश गांधी के सपनों का देश बन गया या उस दिशा में बढ़ रहा है? निश्चय ही नहीं.

साफ-सफाई गांधी जीवनशैली थी. वे चाहते थे कि हर नागरिक सफाई की अहमियत समझे. मगर उनका मूल मकसद तो बेहतर समाज और देश का निर्माण ही थाय और उस मार्ग में बाधक बने तत्वों और सत्ता से टकराने में न उनको तब हिचक हुई थी, न आज होती. इस बार फिर इस ‘स्वच्छांजलि’ की घोषणा से यह संदेह पुष्ट होने लगा है कि कहीं गांधी को ‘स्वच्छता’ तक सीमित रखने का प्रयास तो नहीं हो रहा है! यह संदेह इसलिए भी कि बीते वर्षों के दौरान गांधी से जुड़ी संस्थाओं के साथ जो सलूक होता रहा है, उसमें तो गांधी से चिढ़ और उनके विचारों का नामो निशां मिटाने की मंशा ही नजर आती है.

अहमदाबाद स्थित ‘साबरमती आश्रम’ का कायाकल्प हो रहा है. अब वह पर्यटन केंद्र बनेगा. श्गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति’ (दिल्ली) से निकलने वाली पत्रिका ‘अंतिम जन’ का बीते वर्ष गांधी जयंती के मौके पर जो अंक निकला वह ‘सावरकर विशेषांक’ था! गांधी के प्रति इससे ‘बेहतर’ श्रद्धांजलि और क्या हो सकती थी? गांधी प्रति इस जमात की ‘श्रद्धा’ का आलम यह है कि अब गोडसे का गुणगान होने लगा है! गोडसे का मंदिर बनाने की चर्चा चलती रहती है.

अभी अभी बनारस (जो मोदी जी का संसदीय क्षेत्र भी है) के राजघाट स्थित गांधी से सम्बद्ध सर्वसेवा संघ परिसर पर प्रशासन ने कब्जा कब्जा कर लिया. वह चार- पांच दशकों से गांधी विचार के प्रचार- प्रसार का एक केंद्र रहा है. विनोबा और जयप्रकाश उससे जुड़े रहे. 1974 आंदोलन के दौरान तत्कालीन जनसंघ के नेता और कार्यकर्ता भी वहां जुटते थे. इस नाजायज कब्जे के खिलाफ सत्याग्रह करते हुए अनेक गांधीवादी कार्यकर्त्ता गिरफ्तार हुए. वह मामला अभी अदालत में विचाराधीन है, मगर परिसर को खाली करा लिया गया. अब भी वहां सत्याग्रह हो रहा है. लेकिन यह सत्याग्रह ही इस जमात को पसंद नहीं. शायद इसलिए इस शब्द का गांधी से जुड़ा होना भी पसंद नहीं.

गांधी का चरखा और झाडू महज प्रतीक है, विचार पर आधारित उनका कर्म तो सत्याग्रह ही है. याद रहे, गांधी मायनस सत्याग्रह का नतीजा जीरो ही होता है, होगा.