कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि यदि आदिवासियों को संविधान में मिले कुछ विशेष प्रावधान व आरक्षण आदि न रहे, तो कितने लोग, किस समुदाय विशेष के लोग आदिवासी बनना चाहेंगे? क्या तब भी आदिवासी बनने के लिए आंदोलन होंगे? क्योंकि सामान्य जीवन में आप किस तरह रहते हैं, किस तरह के उपनाम लगाते हैं या नहीं लगाते हैं, इससे किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ता. पूंजीवादी व्यवस्था और उपभोक्तावादी संस्कृति सभी को अपने रंग में रंगती जा रही है. ऐसे में अब कोई समुदाय विशेष आदिवासी बनने के लिए आंदोलनरत हो तो आश्चर्य होता है.
जिज्ञासा यह भी होती है कि क्या हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी या सिख बनने के लिए, या होने के लिए भी हमें सरकार से सर्टीफिकेट लेने की जरूरत है? क्या सरकार यह तय करेगी कि हम हिंदू हैं या मुसलमान, सिख और ईसाई? इस तरह का कोई मसला मेरे देखे नहीं आया है. फिर आदिवासी कौन है और कौन नहीं, यह तय करने का अधिकार सरकार के हाथ में कैसे चला गया? क्या इसलिए कि दलित, ओबीसी, या पिछड़ा होने का लाभ लेने के लिए जब हम दावा करते हैं, उस वक्त इस बात को प्रमाणित करने की जरूरत है कि हम किसी वंचित समुदाय से आते हैं. और उस वक्त हमें इस तरह के सर्टीफिकेट की जरूरत पड़ती है कि हम किस समुदाय विशेष के हैं. और सर्टीफिकेट सरकारी तंत्र देता है. और फिर यह अधिकार भी सरकार के पास चला जाता है कि वह सुनिश्चित करे कि सर्टीफिकेट मांगने वाला शख्स उस समुदाय विशेष का है या नहीं. वरना यह अधिकार तो समाज का होता है.
आदिवासी और गैर आदिवासी समाज में नस्ल, भाषा, संस्कृति और जीवन दृष्टि में भारी भिन्नता है. सामान्यतः गैर आदिवासी समाज के लोगों में आदिवासी समाज के प्रति एक गहरा उपेक्षा भाव रहता है. उन्हें आदिवासियों के उदात्त जीवन दृष्टि से कोई खास मतलब नहीं. उनकी नजर में आदिवासी असभ्य और जंगली हैं. अंधविश्वास के शिकार हैं. विकास की राह के अवरोधक हैं. स्वयं आदिवासी समाज का भरसक संपन्न तबका अपने प्रति एक हीन भावना से ग्रसित रहता है. भोजपूरी बोलने वाले या मैथिली बोलने वाले, बंगभाषी और अन्य भाषाभाषी यदि कहीं बाहर मिल जाते हैं, तो भरसक अपनी मातृभाषा में बातचीत करने में मशगुल हो जाते हैं. लेकिन आदिवासी भाषाभाषी यदि कही महानगर में मिल भी जाये ंतो भरसक अपनी भाषा में बातचीत करने में हिचकते हैं. वे अपने प्राकृतिक परिवेश में ही सहजता से व्यवहार कर पाते हंै.
नस्ल और भाषा के आधार पर आदिवासी और गैर आदिवासी में फर्क करना बहुत आसान है. यह संभव है कि लंबी अवधि तक साथ रहने के कारण भिन्न समुदायों के लोग, उनकी भाषा, संस्कृति, यहां तक की रूप रंग में समरूपता आ जाती है. लेकिन फिर भी आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच में फर्क करना बहुत कठिन नहीं. आप आसानी से इस फर्क को देख और महसूस कर सकते हैं.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इतिहास के लंबे दौड़ में एक ऐसा मोड़ भी आया जब प्रशासनिक दृष्टि से आदिवासी के रूप में परिगणित अनेक समुदाय के लोग खुद अपना रिश्ता आदिवासीयत से तोड़ गैर आदिवासी समाज से जुड़ कर गौरव का अनुभव करने लगे.
सवाल उठता है कि यदि आप खुद को आदिवासी कहते हैं या आदिवासी बनना चाहते हैं तो रोका किसने हैं? आदिवासी जीवन मूल्यों को अंगीकार कीजिये, आदिवासियों में प्रचलित उपनामों को अपना उपनाम बनाईये, मूर्ति पूजा और देवी देवता से बाज आईये, पकृति पूजक बन जाईये. प्रकृति का उतना ही दोहन कीजिये जितना जीवन के लिए जरूरी हो. लेकिन आदिवासी बनना और उनकी तरह जीवन जीना आसान नहीं. डा. रामदयाल मुंडा कहा करते थे कि दिखते तो मुसलमान भी हिंदू जैसे ही हैं. और यह भी मान लेते हैं कि सभी आदिवासी ही हैं, बस हम ‘थोड़े ज्यादा आदिवासी’ है. क्या आप भी ‘थोड़े ज्यादा आदिवासी’ बनना चाहते हैं? इस पर आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण को हटा कर विचार कीजिये.