गांधी जी ने 1936 में ‘हरिजन’ में लिखा था कि जिस दिन भारतीय महिला रात में सड़कों पर स्वतंत्र रूप से चलने लगेगी उसे दिन हम कह सकेंगे कि भारत में महिलाओं ने स्वतंत्रता हासिल कर ली है. इस दृष्टि से देखें तो महिलाओं की स्थिति पहले से बद्तर ही हुई है. रात की बात छोड़िए, वह तो दिन में भी सही सलामत रहेगी इसकी कोई गारंटी नहीं. वह शिक्षा, व्यवसाय, नौकरी, साहित्य, खेल, हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी निभा रही है आगे बढ़ रही है, लेकिन यौन उत्पीड़न, बलात्कार, भ्रूण हत्या, दहेज प्रताड़ना इत्यादि की घटनाओं में आई वृद्धि उसे पीछे की ओर ले जाते हैं. समाज और राजनीति में व्यापक भागीदारी में महात्मा गांधी के शांतिमय आंदोलन का महत्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने पूरे देश में महिलाओं के लिए ऐसा माहौल बनाया कि उनके घर से बाहर निकलना आसान हो गया. बड़ी संख्या में वह नेतृत्वकारी भूमिका में आई. सरोजिनी नायडू, अमृत कौर, एनी बेसेंट, विजयलक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफ अली, सुचिता कृपलानी इत्यादि कई नाम हंै, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के साथ स्त्री मुक्ति के संघर्ष को भी जोड़ा. उनकी व्यापक सहभागिता को देखते हुए आजादी के बाद संविधान निर्माण में उनको पर्याप्त स्थान दिया गया. यही कारण है कि दूसरे देशों की तुलना में भारतीय महिलाओं को संवैधानिक अधिकार पाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा. हमारा संविधान लिंग समानता की रक्षा करता है. लोकतंत्र, समता, न्याय के लिए महिला पुरुष को एक दर्जा दिया गया है.
लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो सत्ता के गलियारे में उनकी उपस्थिति बहुत कम है. पंचायत स्तर पर 73वें, 74वें संशोधन के तहत 33फीसदी आरक्षण मिला. फलस्वरुप बड़ी संख्या में वे मुखिया सरपंच चुनी गई, पर अपनी स्पष्ट समझ, दृष्टि, एवं विचार न होने के कारण कई बार उनके पति, पुत्र या पिता ने ही कामकाज संभाला है. यह स्थिति बदलनी होगी. वैसे कई बार बिना आरक्षण का लाभ लिए भी औरतें चुनाव जीती हैं, पर लोकसभा विधानसभा में उनका आरक्षण बाकी है.
देश की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी आबादी के अनुपात से बहुत कम है. महिला मतदाताओं की संख्या 43.78 करोड़ यानी 48 फीसदी है, लेकिन मौजूदा संसद में उपस्थित लोकसभा में 15 फीसदी एवं राज्यसभा में 13फीसदी मात्र है. विधानसभा में तो इससे भी काम भागीदारी है. ‘नारी शक्ति वंदन बिल’ के नाम से संसद में 33 फीसदी आरक्षण संबंधित बिल दोनों सदनों में लगभग सर्वसम्मति से पास होने के बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद स्वीकृत हो गया है. तत्काल इसे लागू भले ही ना किया जाएगा पर 27 वर्षों से लंबित इस विधेयक को कानून बनना देश के लिए एक महत्वपूर्ण स्वागत योग्य कदम है. इसे लागू करने में कई अडचनें हैं. 33 फीसदी आरक्षण में एससी, एसटी, एग्लो इंडियन के लिए उप आरक्षण तो किया गया है, पर ओबीसी को आरक्षण न देने से एक विवाद शुरू हो गया है.
प्रत्येक चुनाव के बाद आरक्षित सीटों को रोटेट करने का भी प्रस्ताव है. एक प्रश्न यह भी जुड़ा है कि क्या तहसीलों की संख्या बढ़ाई जाएगी? क्योंकि पुरुष सांसद अपनी सीटों में कमी स्वीकार नहीं करेंगे. यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि इससे महिलाओं को कितना लाभ मिल पाता है. लोकसभा, राज्यसभा और संभवत विधानसभा में भी आरक्षण के कारण महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो जाए पर बुनियादी फर्क ना पड़े तो क्या होगा? यह प्रश्न इसलिए भी चिंता में डालते हैं क्योंकि भ्रूण हत्या से लेकर कई कानून बने हैं जो महिलाओं को उनको स्थिति को मजबूत करने का काम कर सकते हैं, लेकिन इन कानून के बाद भी इन समस्याओं से छुटकारा नहीं पाया जा सका है.
ऐसे में फिर गांधी की याद आती है, जब उन्होंने कहा था की समानता का लक्ष्य राजनीतिक भागीदारी पाने मात्र से संभव नहीं होगा, बल्कि उसे अबला से सबला बनना होगा. समाज में स्थापित कमजोर दयनीय छवि को बदलनी होगी. वे मानते थे की औरत के सहभाग बिना समाज सुधार, समाज का विकास संभव नहीं है. लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी स्त्री समानता की बात कहते थे. उन्होंने कहा की जन्म से ही लड़की को हीन दृष्टि से देखना विवाह के नाम किसी के मत्थे मढ़ देना, बेमेल विवाह करना, लड़के को बिक्री का माल समझना इत्यादि को बदलना होगा. जब जब देश में आंदोलन हुआ है, औरतों की भागीदारी हुई ह,ै उनकी समस्याएं खुद-ब-खुद जुड़ गयी हैं. 1947 हो या 1974 या फिर चिपको आन्दोलन, बड़े बांध के खिलाफ आंदोलन, महिलाओं की व्यापक भागीदारी से छेड़खानी, जाति प्रथा , दहेज प्रथा इत्यादि की घटनाओं में अपेक्षाकृत कमी आती है. समाज में औरतों की भागीदारी जितनी ज्यादा होगी, स्त्री पुरुष के बीच सहज सरल संबंध बने, दोनों मिलकर पढ़े, काम करें एक दूसरे पर विश्वास रखें तो महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में भी कमी आएगी. समाज में औरतों की भागीदारी जितनी ज्यादा होगी वह राजनीतिक रूप से भी चेतन सेल होगी. यानी, उनकी भागीदारी से ही समाज सुंदर और सभ्य बन सकता है. जब समाज की गतिविधियों में हिस्सेदारी बढ़ेगी तो जाहिर है राजनीतिक हस्तक्षेप भी बढ़ेगा और उनकी भूमिका व्यापक होगी.