कल भारत- पाक क्रिकेट मैच में भारत जीत गया. क्रिकेट में अक्सर भारत जीत दर्ज करता है. और जीत के बाद जश्न का माहौल रहता है. कल भी स्टेडियम में जमा अपार भीड़ तिरंगा लहरा रही थी, नाच रही थी. उनके चेहरे की रंगत, उनके डीलडौल यह बताने के लिए काफी थे कि वे इसी देश के वो लोग थे जिन्हें हम संक्षेप में समाज के खाये, पीये, अघाये लोग कहते हैं. उनके लिए क्रिकेट मैच के दौरान चेहरे पर तिरंगा बनाना और हर चैके, छक्के पर तिरंगा लहराना राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा पैमाना है. देशभक्त होने का सबसे बड़ा सबूत.

लेकिन उनको शायद यह पता नहीं या यह तथ्य जान कर भी परेशान नहीं करता कि अपना देश भारत क्रिकेट में तो झंडे गाड़ता रहता है, लेकिन भूख के खिलाफ जंग में लगातार हारता रहा है. हाल में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 125 देशों की सूची में 111 वें स्थान पर है. और यह स्थिति सिर्फ 2023 की हंगर इंडेक्स में नहीं, बल्कि पिछले कई दशकों से है. 2019 के वैश्विक भूख सूचांक में भारत 102 वें स्थान पर था और पिछले चार वर्षों में वह नीचे जाते-जाते 111 वें स्थान पर पहुंच गया है.

यह भूख सूचांक 2006 से जारी हो रहा है. पहले इसे अमेरिका स्थित अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान और जर्मन स्थित वेल्टुहंगर हिलफा द्वारा संयुक्त रूप से जारी किया जाता था, बाद में आईरिश एनजीओ कंसर्न वल्र्डवाईड भी इसका सहभागी बन गया., हालांकि बाद में अमेरिकी संस्था इस अभियान से अलग हो गयी. लेकिन हंगर इंडेक्स हर वर्ष जारी हो रहा है. जाहिर है भारत सरकार इस हंगर इंडेक्स को खारिज करती रही है.

लेकिन सवाल उठता है कि यदि वास्तव में भारत की अर्थ व्यवस्था मजबूत है, फिर करीबन देश की 80 करोड़ आबादी को मुफ्त राशन देने की जरूरत क्यों है? सभी सरकारों को नाममात्र की कीमत में आम जनता को राशन उपलब्ध कराने की मजबूरी क्या है?. सीधे खातों में हजार दो हजार रुपये डालने की घोषणा सबसे लोकप्रिय स्कीमें क्यों हैं? जिस मुख्यमंत्री को देखो, वही मुफ्त पानी, बिजली आदि की घोषणा करता दिखता है और जनता कटोरा हाथ में लिए खड़ी दिखती है. सुनने में तो यह सब अच्छा लगता है, लेकिन उससे ही इस बात का भी पता चलता है कि हमारी अर्थ व्यवस्था की ऐसी स्थिति नहीं कि देश की एक बड़ी आबादी अपने श्रम के बल पर खुद्दारी से जीवन यापन कर सके.



हम अपने चारो तरफ यदि आंख खोल कर जरा गौर से देखें तो भूख और कुपोषण का मंजर दिख जायेगा. एनीमिक औरतें, कुपोषित बच्चे, हर चैक चैराहों पर भीख मांगते लाचार हथेलियां, गटर और कूड़े के ढ़ेर में जीवन तलाशते लोग. अब वैश्विक भूख सूचांक को तो आप नकार सकते हैं, इन्हें कैसे नकारेंगे? कोई विदेशी राजकीय मेहमान भारत आता है तो आपको उन रास्तों की घेराबंदी करनी पड़ती है, उंचे-उंचे बाड़ लगाने पड़ते हैं ताकि उन्हें यहां की गरीबी न दिख जाये.

चलिये, खेल की ही दुनियां की बात करें, ओलंपिक खेलों में हमारी क्या सिथति है? दुनिया में विश्व फुटबाल प्रतियोगिता एक बड़ा आयोजन है और हमारी टीम वहां पहुंच ही नहीं पाती. औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहा चीन भी दासता से मुक्त हमारे साथ ही हुआ, लेकिन एशियाई खेलों में वह 300 से उपर मेडल जीतता है और हम सौ का आकड़ा पार कर उसे ऐतिहासिक जीत बताने लगते हैं. हम विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में विश्व गुरु बनने का दावा करते हैं और सारे नोबल पुरस्कार बाहर के मुल्क ले गये.

इस बात को स्वीकार कीजिये की हमारे विकास के दावों में कहीं कोई बड़ा झोल है. हमारा देश एक विशाल आबादी वाला देश जरूर है, लेकिन इस विशाल आबादी का बड़ा हिस्सा भूख और कुपोषण का शिकार है. और इससे तन और मन-मस्तिष्क दोनों नकारातमक रूप से प्रभावित होते हैं.