ऐतिहासिक निर्णयों के कारण न्यायालय का महत्व आजकल बढ़ता जा रहा हैं. 2007 में आप्पा साहब के केस में आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भी एक ऐतिहासिक फैसला ही कहा जाएगा. न्यायाधीश जे.पी. माथुर और आर.वी रविन्द्रन की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा है कि पति अगर आर्थिक संकट के समय, नितांत आवश्यक घरेलू खर्च या कृषक खाद खरीदने के लिए, अपनी पत्नी के मायके से किसी तरह से पैसों की मांग करता हैं तो यह दहेज की श्रेणी में नहीं आएगा. दहेज की संज्ञा से दूर, यह पारिवारिक सहायता समझा जाएगा. विद्वान न्यायाधीशों का यह महत्वपूर्ण फैसला महिलाओं के खिलाफ जाता है.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति दोयम बनी हुई है. अपने संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों को भी प्राप्त करने के लिए महिलाएं संघर्षरत हैं. अपने इंसानी दर्जे को हासिल करने की जद्दोजहद में लगी स्त्री, आज भी अपने पति की छाया या अर्धांगिनी मात्र बन कर रह गई है, क्योंकि उसकी समस्याओं को मानव अधिकार हनन के रूप में नहीं देख जाता है.

राजस्थान के संजखेडा गांव के आपासाहेब की पत्नी भीमबाई उनके साथ सात वर्षों के वैवाहिक जीवन जीने के बाद, जहर खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेती है. कारण है घर की अति आवश्यक आर्थिक जरूरत को पूरा करने के लिए उस पर अपने पिता के घर से धन लाने का दबाव.

आप्पासाहेब और उनकी मां पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए (महिला के ऊपर दहेज के लिए अत्याचार) 304 बी दहेज ह्त्या और 306 (आत्महत्या के लिए मजबूर करना) की धारा के अंतर्गत केस दर्ज किया गया था.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आपासाहेब को उनके ऊपर लगे हर आपराधिक मामलों से बरी कर दिया. उसके लिए न्यायालय ने दहेज निषेध अधिनियम 1961 की धारा को तोड़ मरोड कर विश्लेषित किया. विद्वान न्यायवादियों ने अपने फैसले में दहेज की परिभाषा ही बदल दी. कहा कि दहेज और आवश्यकता में अंतर होता है. दोनों अलग -अलग है. उनके निर्णय के अनुसार आम नागरिक इस परिभाषा, इन स्थितियों से परिचित नहीं था.

वैसे, परिवार समाज में दहेज स्वीकार्य है. कानून बन जाने के बाद भी लोग इसे अपराध नहीं मानते. परिवार में दहेज संबंधी जब भी कोई समस्या आती है तो, परिवार-समाज के लोग मिलकर उन समस्याओं का निबटारा करते हैं. सवाल सहज और स्वाभाविक है कि अगर केवल सहायता मांगी गयी होती तो क्या भीमबाई इतनी अपमानित होती कि अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर लेती?

क्या उस पर इस हद तक दबाव नहीं डाला गया होगा कि अपमान की आग में जलकर उस दुखी, आहत मन स्त्री ने अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर डाली. पत्नी के परिवार वालों से पैसो की मांग (चाहे वह कोई भी काम हो) को दहेज नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? दहेज से अभिप्राय आखिर होता क्या हैं? किसी से सहायता मांगने और दहेज की मानसिकता और उसके व्यवहारिक प्रभाव में गुणात्मक अंतर होती है. कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस अंतर के मर्म को समझ सकता है. सर्वोच्च न्यायालय के समाज विरोधी, स्त्री विरोधी इस तरह के फैसलों की निंदा की जानी चाहिए.