भारत मे लिगभेद का कारण धर्म भी रहा है. अब जब धर्म की राजनीति हो रही है तो इस पर चर्चा आवश्यक है. केवल हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि भारत में अन्य जितने भी धर्म हैं, वे महिला और पुरुष के बीच भेद करते हैं और पुरुष को श्रेष्ठ बताते है. समी धर्मों में महिलाओं को पूजापाठ, धार्मिक अनुष्ठानों तथा पूजास्थलों में प्रवेश को लेकर प्रतिबंध लगते रहे है. इसका प्रमुख कारण उसकी शारीरिक अक्षमता बताई गई है. यह माना जाता रहा है कि महिलाओं को महीने में एक बार मासिक धर्म को निभाना पड़ता है, जिससे वे अपवित्र हो जाती हैं. धर्म के नाम पर जो लिंग भेद किया गया, उसके विरुद्ध महिलाओं की लड़ाई आज की बात नहीं है, युगों से महिलाएं अपने धार्मिक अधिकारों की लड़ाई लड़ती आ रही हैं, जो अभी भी जारी है.
जब तक समाज में धार्मिक रुढिवादिता का प्रकोप नहीं हुआ था, महिलाएं धार्मिक परिचर्चाओं में खुलकर भाग लेती थीं और अपने विचार व्यक्त करती थी. कहा जाता है कि शंकराचार्य के साथ धार्मिक वाद विवद में देवी सरस्वती उन पर भारी ही पड़ी थी. बारहवीं शताब्दी में केरल की अक्का महादेवी शिव को अपना पति मानती थी. उनके प्यार में तल्लीन उन्होंने अपने वस्त्रों को भी त्याग दिया था और उनके लंबे केश ही उनके तन को ढकते थे. इस तरह उन्होंने धार्मिक तथा सामाजिक रूढिवादिता को चुनौती दी.
चैदहवीं शताब्दी में कश्मीर में हुई लाल डेड पति तथा सास की यातनाओं से तंग आकर विवाह के बारह वर्ष बाद घर से निकल पडी . शिव की भक्ति में उन्होंने गीत गाना शुरु किया. वहीं उनकी भक्ति थी, पूजा अर्चना थी. इसके लिए उन्हें किसी मंदिर की जरूरत नहीं थी. उनकी रचनाएं भक्तिकाल की उत्कृष्ट गीत माने जाते हैं. इसी तरह सोलहवी शताब्दी में कृष्ण की भक्ति में लीन मीरा बाई पति के घर से निकल गई. कृष्ण प्रेम में गाये उनके गीत आज भी बहुमूल्य भक्ति गीत माने जाते हैं. दूसरे धर्मों की महलाओं ने धर्म के बंधन को तोडकर एक उदाहरण पेश किया. मदर टेरेसा ने ईसाई धर्म में अपनी निष्टा को प्रदर्शित करने के लिए सुदूर भारत में आकर मानवता की सेवा में अपने जीवन को लगा दिया और अंत में संत की उपाधि धारण की.
आधुनिक युग में भी महिलाएं इस तरह की धार्मिक असमानता को झेल ही रही हैं. महिलाएं पुजारी नहीं बन सकती हैं. तमिलनाडु में जब डीएमके की सरकार बनी तो उसने सभी जाति के लोगों तथा महिलाओं को पुजारी बनने का मौका दिया. इस तरह ब्राह्मण पुरुषों के एकाधिकार वाले क्षेत्र में महिलाओं का प्रवेश हुआ. अभी भी पूरे देश में महिलाओं के लिए यह क्षेत्र बंद ही है. हिन्दू धर्म में यह कही भी नहीं लिखा है कि महिलाए पुरोहित नहीं बन सकती हैं. लेकिन पुरुष मानसिकता अपने क्षेत्र में महिलाओं के प्रवेश को सह नहीं पाती है. पुणे के शंकरदेवा समिति तथा जन प्रभोदनी नामक दो संस्थाओं ने महिलाओं को पुरोहती का ट्रेनिंग देकर घरों में होनेवाले पूजा पाठ तथा शादियां करने लायक तो बनाया लेकिन उनको मंदिरों में पुजारी का काम नहीं दिला सकीं. महिला पुजारियांे की कुशलता के कारण उनकी माँग तो बढी लेकिन उनका प्रवेश मंदिरों के पूजारियों के तौर पर अमी भी स्वीकार्य नहीं हुआ. पिछले वर्ष कोलकता के कुछ दुर्गा पंडालों में महिलाएं पूजा संपन्न कराती हुई देखी गईं. कर्नाटका के सरकारी मंदिरों को छोड कुछ निजी मंदिरों में महिलाएं पुजारी नियुक्त हुई हैं. यहूदियों तथा प्रोटेस्टेंट ईसाइयों में नाममात्र की महिला पुजारी हैं. इंडोनेशिया, चीन, मोरको और मिश्र जैसे देशों में बहुत कम संख्या में मुस्लिम महिलाएं मौलवी का काम करती हैं. 1994 में पोप फ्रांसिस ने महिलाओं की नियुक्ति अपने सहायक के रूप में की है. सिख महिलाएं भी धार्मिक कामों में अपनी भूमिका को लेकर अभी तक आंदोलनरत है. इस तरह नारीवाद चिंतन के साथ साथ महिलाए अपने धार्मिक अधिकारों के प्रति भी सचेत होती गई.
मंदिरों में प्रवेश को लेकर भी महिलाओं को लड़ना पडा. अन्नामलाय के अयप्पा मंदिर तथा शिंगणापुर के शनिमंदिर मे प्रवेश को लेकर महिलाओं ने लंबी लड़ाई लड़ी. अयप्पा मंदिर में चालीस वर्ष से उपर की आयु वाली महिलाओं का प्रवेश हो सकता है, लेकिन उससे छोटी उम्र की महिलाएं मंदिर के अन्दर नहीं जा सकती. सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद भी उनके प्रवेश को लेकर एकमत नहीं बन सका है. बेमन से महिलाओं के मंदिर प्रवेश को स्वीकार तो किया गया, लेकिन मंदिर प्रबंधन अभी भी उन्हें गर्भगृह में प्रवेश से रोकती ही है. मात्र चार सौ साल पुराने शिंगणापुर के शनि मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं की लड़ाई 2011 में तब जाकर पूरी हुई, जब उन्हें प्रवेश का अधिकार मिला. मुंबई हाजी अली दरगाह में मुस्लिम महिलाओं को 2016 मे प्रवेश का अधिकार मिला.
एक आजाद देश में रहने वाली भारतीय महिलाओं को संविधान द्वारा धार्मिक समानता का अधिकार प्राप्त है. घर की चारदिवारी में बंद पति तथा पुत्रों के लिए व्रत उपवास करना ही उसका कर्त्तव्य नहीं है, बल्कि मंदिरों में बराबरी से प्रवेश करने तथा हर धार्मिक क्रियाकलापों में बराबरी से भाग लेने का अधिकार भी प्राप्त है. लेकिन विडंबना यही है कि इसके लिए भी उसे लड़ना पड़ता है और सरकार की कृपादृष्टि पर निर्भर रहना पड़ता है.