हमारे लिय यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए कि भारत यदि अर्थ व्यवस्था के पांचवें पायदान पर पहुंच गया है और जीडीपी में निरंतर सुधार हो रहा है तो फिर देश में भूख और बदहाली क्यो? ग्लोबल हंगर सूची में हमारा देश 111 स्थान पर क्यों?

वैसे, भारत सरकार ने हाल में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आकड़ों को सिरे से खारिज कर दिया है. इसे भारत के विरुद्ध एक साजिश करार दिया है.

सवाल उठता है कि यदि हमारी अर्थ व्यवस्था इतनी ही मजबूत है तो देश की आबादी के एक बडे हिस्से को मुफ्त सरकारी राशन की दरकार क्यों? सरकारी दावों के अनुसार ही सरकार करीबन 80 करोड लोगों को मुफ्त राशन मुहैया कर रही है पिछले कई महीनों, सालों से? सबसे लोकप्रिय सरकारी योजनाएं और घोषणाए जनता की जेब में हजार दो हजार रुपये डालना, मुफ्त बिजली, पानी, आदि क्यों? कोई भी खुद्दार व्यक्ति खैरात पर जिंदा रहना क्यों चाहेगा? हमे इस बात को समझना होगा कि हमारी अर्थ व्यवस्था की मजबूती के दावों में कहीं न कहीं झोल है.

  • अर्थ व्यवस्था पांचवे पायदान पर लेकिन अमेरिका और चीन से बहुत पीछे. ताजा आकड़ों के मुताबिक:

अमेरिका की अर्थ व्यवस्था- 26.95 ट्रिलियन डालर

चीन की अर्थ व्यवस्था-17.70 ट्रिलियन

जर्मनी की अर्थ व्यवस्था- 4.43 ट्रिलियन

जापान की अर्थ व्यवस्था-4.23 ट्रिलियन

और भारत की मात्र- 3.73 ट्रिलियन डॉलर है.

यानी, हम भले पांचवे पायदान पर हैं, लेकिन हमारी अर्थ व्यवस्था अमेरिका और चीन से बहुत पीछे है.

  • दूसरी बात हम बढे चढ़े और निरंतर बढ़ते व्यापार का दावा जरूर करते हैं, लेकिन इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि हम निर्यात से ज्यादा आयात करते हैं. इस वर्ष मई में व्यापार घाटा - 22.12 बिलियन डालर था. चीन और अमेरिका से हमारा सर्वाधिक कारोबार और दोनों का व्यापार घाटा बहुत ज्यादा. चीन से व्यापार घाटा 2022 में 101.02 बिलियन डालर का था.

इसकी व्याख्या इस रूप मे की जा सकती है कि देश के भीतर शोषण और विषमता बढ़ा कर हमने एक ऐसा उपभोक्ता बाजार तो बना रखा है जो विदेशी माल का खरीदार है, लेकिन रोजगार पैदा करने वाले उद्योग धंधों का विस्तार नहीं किया.

  • शोषण और विषमता पैदा करने की एक प्रमुख वजह मजदूरी दुनियां भर में सबसे कम होना है. इंग्लैंड में प्रति घंटा मजदूरी यदि 647.31 रुपये, नीहरलैंड में 647. 31 रुपये, जर्मनी में 634.50 रु, ईजराईल में 474.21 रुपये, अमेरिका में461.45 रुपये, जापान में 429.41 रुपये, चीन में 51.27 रुपये और रूस में 32.05 रुपये है, वही भारत में एक घंटे की मजदूरी मात्र 19.22 रुपये है.

अमेरिका में सफाई कर्मी एक घंटे में 30 से 40 डालर यानी न्यूनतम 2800 रुपये कमाता है, वहीं हमारे यहां नगरनिगम का सफाईकर्मी पूरे दिन में तीन चार सौ रुपये मात्र.

इसलिए भारत में गरीबी और विषमता की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है. मुट्ठी भर लोग अमीर और एक विशाल आबादी गरीबी रेखा के नीचे अथवा उसके आस पास. लेकिन यह छोटा सा अमीर तबका दुनियां के लिए एक विशाल उपभोक्ता बाजार बन गया है. मान लीजिए खाये, पीये लोगों की आबादी यदि देश में 20 फीसदी भी है तो वे करीबन 25 करोड़ का उपभोक्ता बाजार है जो विकसित देशों को आकर्षित करता है.

एक बात और.. दुनिया भर में भारतीय मजदूरों की मांग है. अनुमानतः दो करोड़ से अधिक लोग विदेशों में काम करते हैं, और यह मांग इसलिए कि भारत का श्रम सस्ता बिकता है. जैसे देश के भीतर के पिछड़े राज्यों के मजदूर विकसित राज्यों में मजदूरी करने जाते हैं, वैसे ही देश के मजदूर विकसित देशों में मजदूरी करने जाते हैं. यह बहुत गर्व करने वाली स्थिति नहीं.

दबे कंठ से यह बात कही जाने लगी है कि अमेरिका, इंग्लैंड जैसे मुल्क के हुक्मरान और अर्थ शास्त्री भारतीय अर्थ व्यवस्था की झूठी प्रशंसा भी करते रहते हैं ताकि देश के हुक्मरान और जनता एक दिवास्वपन में खोयी रहे.