पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एवं रविंद्र भट्ट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया. उन्होंने कहा कि सीवरेज टैंक साफ करने के क्रम में मौत होने पर परिवार को 10-10 लाख, दिव्यांगों को 20-20 लाख एवं बीमार व्यक्तियों को 10 लाख मुआवजा दिया जाए. दलितों के हित में लिए गए निर्णय के लिए सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देना चाहिए. सर पर मैल ढोना एवं सफाई के दौरान होने वाली मौत ने देश को विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने एवं चांद पर अपना परचम लहराने के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाया है.

हमारे समाज में जातीय भेदभाव अभी कायम है. दलितों के साथ होने वाले भेदभाव शैक्षणिक संस्थानों में कभी आत्महत्या का कारण बनते हैं, तो कभी वैवाहिक संबंध बनाने पर हत्या की वजह बनते हैं. व्यक्ति द्वारा मैला ढोने, जिसमें ज्यादातर महिलाएं जुड़ी है एवं उसकी सफाई का काम दलितों द्वारा ही किया जाता है, बल्कि हम कह सकते हैं कि सफाई का काम- जैसे मैला ढोने, मरे जानवरों को हटाने, उसका चमड़ा निकालना इत्यादि काम एक खास समुदाय के लोगों के लिए निर्धारित कर दिया गया है. शायद यह भी एक कारण है कि इसके सुधार के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया जाता. 2013 से ही इस अमानवीय प्रथा पर रोक लगाई गई है, पर अभी भी यह रुक नहीं रहा. यह सरकारी प्रणाली की असफलता का सूचक है. आंकड़े बताते हैं कि 5 वर्षों में इस कार्य में लगे 347 लोगों की मौत हो गई. इसमें सिर्फ हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में 40 फीसदी घटनाएं शामिल हैं.

सेप्टिक टैंक की सफाई का जिम्मा नगर निगम का है. मशीन द्वारा कम समय में बिना किसी खतरा के यह काम आसानी से होता है, लेकिन किसी व्यक्ति द्वारा इसकी सफाई जानलेवा हो जाती है. यह मौत के कुएं में उतरने जैसा है. भयानक गंदगी और उससे भी बढ़कर जहरीली गैस के कारण व्यक्ति की मौत हो जाती है. कई बार बचाने के लिए उतरा व्यक्ति भी अपनी जान गंवा बैठता है, या विकलांग हो जाता है.

कितनी विवशता में कोई व्यक्ति इस काम के लिए शरीर और मन से खुद को तैयार करता होगा, इसका सिर्फ अंदाज लगाया जा सकता है. कोई सुरक्षा कवच नहीं, कोई संसाधन नहीं, कोई जिम्मेवारी नहीं. आंकड़े यह तो बताते हैं कि इस काम में कितनी मौतें हुई, पर यह नहीं बताते की कितनों को सजा मिली या जुर्माना लगा.

मशीन से सफाई एवं सफाई कर्मियों के आंदोलन के फल स्वरुप नमस्ते योजना भी बनाई गई. कई राज्यों में पुनर्वास हेतु लाखों करोड़ों का फंड भी बनाया गया, पर जो प्रथा समाज में वर्षों से जमा है उससे छुटकारा पाना मुश्किल है. समाज अपनी गंदगी अपने ही जैसे हाड़ मांस के बने लोगों से साफ करवाने में हिचकते नहीं. महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत जीवन में इसका समाधान निकाला था. लोहिया जी ने इसे पूर्णता बंद कर मशीन द्वारा सफाई की व्यवस्था लागू करने की मांग की थी. इस दिशा में श्री बिंदेश्वर पाठक ने 1973 में में सुलभ इंटरनेशनल की नींव रखी. मैला ढोने के खिलाफ सामाजिक क्रांति की अगुवाई की एवं इसके खिलाफ अभियान चलाया. स्थिति यह है कि सारे प्रयास के बावजूद अभी भी यह प्रथा जारी है. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद शायद उनके हालात सुधरे, लेकिन यह आदेश सिर्फ राहत देता है मूल समस्या से निजात नहीं दिलाता.