मुझे बचपन से स्कूल टीचर बनने का बहुत मन था। उस समय मैं बमुश्किल 7 या 8 साल की थी। यह वो उम्र थी जब मैं स्त्रियों के लिए स्कूल टीचर से अलग कोई दूसरा काम भी होता है, जानती ही नहीं थी। तो घर में मैं टीचर -टीचर खेला करती थी। उसके लिए मैं कमरे में बिस्तर पर कुर्सी पर तकिया रख दिया करती और उसे पढ़ाना शुरु। एक डंडा भी मेरे साथ, मेरे हाथ में हमेशा रहा करता था। जिसे मैं कभी-कभी तकिया बने विद्यार्थियों पर इस्तेमाल करती थी। मार- मार कर उसका गर्दा उड़ा दिया करती थी। अम्मा देखती तो गुस्सा करती। समझाने की भी कोशिश करती कि टीचर बच्चों को मारती नहीं हैं। उन्हें कैसे बताती कि मेरी टीचर मुझे डंडे से तो नहीं, लेकिन डस्टर के दूसरी तरफ लकड़ी वाले हिस्से की तरफ से मेरी छोटी हथेलियों को एक दो बार लाल कर चुकी थीं। उनके पास डंडा रखने की इजाजत नहीं थी, तो डस्टर से ही काम चला लिया करती थीं और मेरे पास डस्टर कहाँ से आता, तो मैं डंडे से ही काम चलाती थी।

एक छुट्टी के दिन दोपहर में मेरा खेल चालू था। उस दिन मैंने तकिया रूपी बच्चों की जो धुनाई की कि एक बेचारे तकिये की सिलाई खुल गई, और रुई बाहर आने लगी। मैं डर गई थी, जैसे किसी बच्चे की चमरी फट गई हो। अम्मा ने उसे देखा तो मेरी भी धुनाई ऐसी हुई कि टीचर बनने की मेरी हवा निकल गई। मैं भूल ही गई कि मैं क्या बनना चाहती थी।

यह तो हुई बचपन की बात, लेकिन फिर बड़े होने पर मुझे कालेज में प्रोफेसर बनने का धुन लगा। मैंने जम कर पढ़ाई की। ‘पी एच डी’ में निबंधन कराया। वैसे मैं शुरु के क्लासेस में पढ़ाई में बहुत अच्छी नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे पढ़ाई आगे बढ़ती गई मेरे रिजल्ट अच्छे होने लगे थे। मैं एक योग्य प्रोफेसर बनने की योग्यता प्राप्त करने के करीब पहुँचने लगी थी, कि तभी जयप्रकाश नारायण के विचारों पर केन्द्रित संगठन के संपर्क में आ गई और मैंने सामाजिक कार्यकर्ता बनना तय कर लिया। तय यह हुआ कि सरकार की नौकरी नहीं करनी है। सरकार के आदेशों के पालन करने, उनकी गुलामी करने के बदले समाज बदलने का काम करना है।

पटना विश्वविद्यालय के श्रम एवं समाज कल्याण विभाग में जब मैं पढ़ रही थी, उस समय ही कोल इंडिया में ‘कल्याण पदाधिकारी’ के पद के लिए विज्ञापन निकला था। हम सभी ने (पूरे क्लास ने) इस पद के लिए आवेदन कर दिया था। कुछ दिनों बाद उस पद पर नियुक्ति के लिए लिखित परीक्षा के लिए पत्र आए। मेरे सभी सहपाठी इस परीक्षा की तैयारी में जुट गए। चूंकि तब तक मैंने सोच लिया था कि मुझे नौकरी नहीं करनी है, तो मैं परीक्षा की कोई तैयारी नहीं कर रही थी।

हमारी लिखित परीक्षा रांची में होने वाली थी। तो मेरी एक मित्र विनीता ने, जिसका रांची में कोई नहीं था, और उसके ठहरने की परेशानी थी, उसने मुझसे गुजारिश की कि मैं उसके साथ परीक्षा के लिए रांची चलूँ। उसका कहना था, परीक्षा में बैठने में क्या बुराई है। नौकरी नहीं करनी है, मत करना। वैसे भी तुमने कोई तैयारी तो की नहीं है, तो नौकरी जॉइन करने का सवाल नहीं उठता है। मेरे लिए चलो न! और मैं उसके लिए लिखित परीक्षा में बैठ गई, उत्तीर्ण हो गई, फिर साक्षात्कार में भी पास और मेरी नौकरी भी कॉल इंडिया में हो गई। समय के साथ निर्णय बदलता गया और एक सफर पूरा हुआ।

लेकिन यह कसक रह गयी कि मैं शिक्षक नहीं बन पायी.