गैर आदिवासी भारतीय समाज तो असुर के रूप में महिषासुर को ही जानता है जिसका अनुष्ठान पूर्वक दुर्गा बध करती हैं, लेकिन हमारे लिए असुर आदिवासी बिरादरी का एक सदस्य है. और 26 नवंबर को स्थानीय प्रेस क्लब में आयोजित जयपाल-जुलियस- हन्ना पुरस्कार वितरण समारोह में असुर समाज की दो महिलाओं ने भावपूर्ण गीत सुनाये. इसमें असिंता असुर तो ‘असुर रेडियो’ की मुख्य स्टोरी टेलर हैं और दूसरी कम उम्र रेशमी असुर उनकी सहयोगिनी. दोनों नेतरहाट क्षेत्र के जोबी पाट गांव की रहने वाली हैं. नेतरहाट क्षेत्र में असुरों के अनेक गांव हैं. वहां के एक गांव की कहानी मैंने ‘मोर’ शीर्षक से लिखी है जो मेरे प्रकाशित कहानी संग्रह में शामिल है.

असुर गीत उनके जीवन की छोटी मोटी घटनाओं को सहज भाव व शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं. असिंता ने जो गीत गाया उसका भाव है कि उसके घर कुछ मेहमान आये हैं और पति शराब पी कर धुत पड़ा है. वह क्या करे.. . तो, रेशमी के गीत का भावार्थ यह कि दो लड़कियां जंगल में लकड़ियां चुनने जाती है. उनमें से एक लकड़ी चुनते आगे बढ़ जाती है और गुम हो जाती है.. . दूसरी लड़की असमंजस में है कि वह उसे कैसे ढ़ूढ़े.. . अब क्या करे! दोनों गीतों में उनके जीवन का कठोर यथार्थ और जीवन संघर्ष की अभिव्यक्ति हुई है. गेयेता उनका वैशिष्ट है, जो आधुनिक कविताओं से गायब होता जा रहा है.

सहज जिज्ञासा होती है कि महिषासुर इसी बिरादरी का पूर्वज रहा होगा? वह देवताओं का दुश्मन कैसे बन गया होगा? उसने किस तरह के अपराध किये होंगे जिसके लिए देवताओं को अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित कर दुर्गा के द्वारा उसक बध कराया गया होगा? वैसे इतिहास को थोड़ा कुरेदेंगे तो इन प्रश्नों के जवाब मिल सकते हैं.

बौद्ध धर्म के पतन के बाद ईस्वी सन् के प्रारंभ से तीसरी तौथी शताब्दी तक आर्य संस्कृति और मनु द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम धर्म का तेजी से विस्तार हुआ और उस क्रम में अनर्य जातियों से, जिनमें बड़ी आबादी आदिवासियों की थी, से उनका सतत संघर्ष हुआ. हंटर ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स आॅफ रूरल बंगाल’ में इसकी विस्तार से चर्चा की है. उनका कहना था कि हिमालय के नीचे और विघ्याचल के उपर के ईलाके में तो उन्हें फैलने में बहुत ज्यादा अवरोध नहीं हुआ लेकिन बंगाल के मुहाने और फिर दक्षिण दिशा में प्रचंड विरोध का सामना करना पड़ा और उनका टकराव आदिवासियों से हुआ. उनके प्रति उनकी घृणा इतनी प्रचंड थी कि वे उन्हें विरूपित कर असुर, दानव, राक्षस, दैत्य जैसे नामों से संबोधित करने लगे और संघर्ष की अतिरंजित कहानियों से हिंदू वांगमय भर गया.

अंग्रेजों के आने के बाद यह संघर्ष नये रूप में प्रकट हुआ. यहां ध्यान देने की बात है कि महिषासुर वध पर केंद्रीत दुर्गा पूजा अब तो देश के विभिन्न हिस्सों में मनाया जाता है, लेकिन इसका जन्म पश्चिम बंगाल में शुरु हुआ. और शुरु किया उन बंगाली हिंदू जमींदारों ने जिन्हें अंग्रेजों ने आदिवासीबहुल इलाकों की जमींदारी सौंपी थी. 1765 में मीर कासिम को पराजित कर बंगाल की जमींदारी प्राप्त की जिसमें उस वक्त बिहार और ओड़िसा शामिल थे. पहले उन्होंने आदिवासी मुंडाओं के माध्यम से आदिवासी इलाकों में लगान वसूलने की कोशिश की, जिसमें असफल होने के बाद उन्होंने बंगाल के हिंदू सामंतों को जमींदार बना कर आदिवासी इलाकों में लगान वसूलने की का काम किया. उन जमींदारों और उनके कारिंदों से परेशान होकर ही सिदो, कान्हू के नेतृत्व में हूल हुआ था.

इसलिए हम तो मान कर चलते हैं कि असुर कोई मायावी शक्तियों वाले मानवेतर प्राणी नहीं, वही असुर समुदाय है जिनकी दो महिलाएं हमे गीत सुना रही थी और जिन गीतों में मानव जीवन की कठिनाईयों - संघर्षों की भावपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है. और दर्द की काव्यमय अभिव्यक्ति भी मधुर ही लगती है.