देश-दुनिया में ऐसी कई शक्तियां हैं जो सचेतन रुप से और जानबूझ कर युद्ध की ओर ले जाती हैं। उनके प्रति लगभग हर देश के आम लोग आम तौर पर उदासीन या गाफिल नजर आते हैं। लेकिन जनसाधारण की कुछ ऐसी अव्यक्त भावनाएं होती हैं, जो अधिकांश सभ्य देशों में ‘नेताओं’ के एक इशारे पर युद्ध-उन्माद के रूप में फूट पड़ने को हमेशा तैयार रहती हैं। जो लोग ‘शांति’ के लिए इस तरह के युद्ध-उन्माद में फंस जाने के जन-सामन्य के भावावेग को कम करना चाहते हैं, उन्हें अपने काम की सफलता के लिए पहले यह समझना होगा कि युद्ध-उन्माद आखिर क्या होता है और वह क्यों पैदा होता है?

जो लोग संसार में महत्वपूर्ण प्रभाव कायम करना चाहते हैं, चाहे भलाई की दिशा में यह बुराई की दिशा में, उन पर नियमतः तीन इच्छाओं का प्रभुत्व रहता है। पहली इच्छा - कोई ऐसा कार्यक्षेत्र खोजना, जिसमें उनके उन गुणों का पूरा-पूरा उपयोग हो, जिनमें वे अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं। दूसरी इच्छा - यह महसूस करना कि उन्होंने ‘विरोध’ को सफलतापूर्वक कुचल दिया। तीसरी इच्छा - दूसरे लोग उनकी सफलता के कारण उनका सम्मान करें।

कुछ लोग जो दुनिया में महान कहलाए उनमें देखा गया कि कभी-कभी तीसरी इच्छा मौजूद नहीं भी रही। यानी उनमें यह अंतिम कमजोरी नहीं थी कि दूसरे लोग उनकी सफलता के कारण उनका सम्मान करें य उन्होंने अपनी सफलता को खुद महसूस कर के, अपने दुःसाध्य प्रयास करने के उल्लास पर ही संतोष किया। परंतु नियमतः ये तीनों ही इच्छाएं उन सब में होती हैं, जो राजनीति, पूंजी और ज्ञान की सत्ता (तीनों में से एक या दो या तीनों पर) पर काबिज होना चाहते हैं। वस्तुतः उनकी इच्छाएँ ‘सत्ता’ पर काबिज होने का आवेग पैदा करती हैं। और सत्ता हाथ में आने पर वे इच्छाएँ उनके लिए सफलता की कसौटी बन जाती हैं।

निजी जीवन हो या राज्य-सत्ताओं के पारस्परिक संबंध दृ सब में एक जैसा यह फार्मूला चलता है कि वे किसी ऐसे शत्रु का विरोध करने या उस पर आक्रमण करने में दूसरों से सहयोग कर सकते हैं जो समान रूप से सभी का शत्रु हो। फिर, अधिकांश लोगों में यह प्रवृत्ति भी होती है कि जब वे अपने आप को काफी ताकतवर महसूस करने लगते हैं, तो वे यह चाहते हैं कि दूसरे लोग उनसे डरें, न कि यह कि वे उनसे प्यार करें।

दूसरी तरफ यह भी एक नियम जैसा है कि अपने बारे में दूसरों की राय अच्छा बनाने की इच्छा उन्हीं लोगों में होती है जिनके हाथ में ताकत नहीं होती! लड़ने-झगड़ने और अपनी बात मनवा लेने का आवेश, विरोध के बावजूद अपनी जैसी करवा लेने का आनंद अधिकांश लोगों के स्वभाव का अंग होता है। इसलिए ‘युद्ध’ किसी पूर्व निर्धारित स्वार्थ को पूरा करने की कोशिश का नहीं, बल्कि इसी आवेग का परिणाम होता है। यह आवेग किसी एक देश या राष्ट्र तक सीमित नहीं है, बल्कि अलग-अलग हद तक संसार के सभी राष्ट्रों में पाया जाता है।

जिंदादिल आदमी को किसी ना किसी तरह की प्रतिस्पर्धा की जरूरत होती है। ताकि वह यह अनुभव कर सके कि वह अपनी क्षमताओं का उपयोग कर रहा है। लेकिन जो आदमी अपनी क्षमता की सीमाओं को जानता है वह अगर किसी प्रतिस्पर्धा में जानबूझ कर पड़ता है तो उसके लिए जीत का तात्कालिक अर्थ होता है यह एहसास कि उसने उस विरोधी को नीचा दिखाया है, जिसे उसने प्रतिस्पर्धी के रूप में चिन्हित कर रखा है। जैसे, आम जिंदादिल आदमी के दिल-दिमाग पर आज के अर्थशास्त्र का एक प्रभाव बिलकुल साफ नजर आता है - उसकी एक धारणा के रूप में। धारणा यह है कि मनुष्य केवल ‘पैसा’ (दौलत - संपदा’) चाहता है। यह धारणा इतनी सामान्य यानी कॉमन है कि कोई भी व्यक्ति कह सकता है कि यह उसकी निजी इच्छा नहीं, बल्कि लगभग सब लोग और सब समाजों की इच्छा है। और हर काल यानी पुराण-काल, इतिहास काल, वर्तमान बाढ़-सुखाड़-अकाल का आपदा काल, और आपात्-काल से लेकर अमृत-काल तक में यह धारणा निरंतर पुष्ट होती आती है, क्योंकि लोगों का आचरण बहुधा उनकी वास्तविक इच्छाओं से न निर्धारित होकर उन चीजों से निर्धारित होता है, जिन्हें वे अपनी इच्छा समझते हैं।

हर समाज के सक्रिय सदस्य निश्चय ही दौलत चाहते हैं, क्योंकि उसके सहारे वे बिना कुछ किये ही सुख भोग सकते हैं। इससे बिना प्रयास किये वे सम्मान प्राप्त कर सकते हैं। जो लोग बहुत दौलत पैदा करते हैं, उन्हें बहुधा धन की लालसा नहीं रहती, लेकिन वे प्रतिद्वंद्विता में दूसरे को नीचा दिखा कर अपनी शक्ति का आभास और सफलता का उल्लास प्राप्त करते रहना चाहते हैं। यही कारण है कि जो लोग पैसा कमाने में सबसे अधिक निर्मम होते हैं, वे ही ‘दान’ देने को सबसे आगे नजर आते हैं। हमारे देश के करोड़पतियों की जमात में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। जबकि हमारे ही देश में आम पब्लिक मानती है कि अधिक से अधिक पैसा चाहने की धारणा के पीछे ‘धन लोलुपता’ की प्रेरणा काम करती है।

हालाकि केवल इतना ही सच नहीं है। कम से कम भारत और पाकिस्तान की आम पब्लिक यह देखती-सुनती है, लेकिन अजानी रहती है और जानती है तो समझती नहीं कि पैसा या धन सब लोगों के लिए वांछनीय है, लेकिन जिसे सफलता की कसौटी माना जाता है वह ऐसी सफलता है जिसे सब देख सकें, जिसमें किसी को शंका न हो। यह सफलता प्राप्त करने के लिए उसे गिनती के लोगों में होना जरूरी है, जो उस लक्ष्य तक पहुंच गये हैं और जहां तक बहुत से लोग पहुंचना चाहते हैं। अमेरिका में करोड़पति का सम्मान किसी महान कलाकार से अधिक होता है, इसलिए जिन लोगों के सामने दोनों में से कोई एक बनने की संभावना होती है वह करोड़पति बनना ज्यादा पसंद करते हैं। इटली में पुनर्जागरण काल में बड़े कलाकारों का करोड़पतियों से बढ़कर सम्मान होता था। फलस्वरूप वहां की परिस्थिति अमेरिका की मौजूदा परिस्थिति की उल्टी हुई।

भारत हो या पाकिस्तान, दोनों देशों में सत्ता-राजनीति पर काबिज या काबिज होने के लिए लालायित ‘प्रभुओं’ की एक जैसी मान्यता यह है कि पार्टियों की राजनीति का संघर्ष, पूंजीपतियों और श्रमिकों की टक्कर, और आमतौर पर किसी भी सिद्धांत को लेकर होने वाली हर वक्त की टक्कर ‘युद्ध’ का रूप धारण करे, तो बहुत उपयोगी होती है। उससे उनकी हानि कम होती है। सार्वजनिक मामलों में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती है। प्रतिद्वंद्विता की भावना को उकसाने या कुंद करने का एक निरापद मार्ग मिलता है। और जब बदलती हुई परिस्थितियों या बढ़ते हुए ज्ञान के कारण परिवर्तन की इच्छा पैदा होती है, तो इनसे कानूनों और संस्थाओं को बदलने में सहायता मिलती है।

लेकिन जिस बात के फलस्वरूप ‘युद्ध’ होता है वह आर्थिक या राजनीतिक नहीं होती और न ही उसका आधार अंतर्राष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्वक तय करने के उपाय खोज निकालने में किसी यांत्रिक बाधा पर होता है। जिस कारण ‘युद्ध’ होता है वह अंततः यह बात लगती है कि मानव जाति का बहुत बड़ा भाग सामंजस्य की अपेक्षा संघर्ष के आवेग का शिकार रहता है।