प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर के उद्घाटन में प्रमुख भूमिका निभाएँगे, यह निर्णय किन लोगों ने, किस प्रक्रिया के तहत लिया?
इस निर्णय का आधार क्या था?
क्या इसलिए कि वे प्रधानमंत्री हैं?
यदि अभी केंद्र में किसी और दल की सरकार होती, कोई और प्रधानमंत्री होता, क्या तब उनको यह भूमिका दी जाती?
यदि सोनिया गांधी, मायावती, ममता बनर्जी या मल्लिकार्जुन खड्गे प्रधानमंत्री होते, तब भी? ध्यान रहे, एक केंद्रीय मंत्री (महिला) ने सोनिया गांधी को ‘धर्म विरोधी’ घोषित कर दिया है. किस आधार पर, पता नहीं.
क्या मोदी जी को यह महत्त्व इसलिए मिला कि मंदिर निर्माण ट्रस्ट के प्रमुख चम्पत राय के मुताबिक वे ‘विष्णु के अवतार’ हैं? क्या आप भी उनको ‘अवतार’ मानते हैं?
मंदिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बना (हालाँकि अभी शायद निर्माण पूरा भी नहीं हुआ हुआ है), यह तथ्य है. मोदी इसका श्रेय खुद को, भाजपा को और अपनी सरकार को दे रहे हैं. यह उचित है? सही है कि यह सरकार नहीं होती, तो फैसले में कुछ और विलम्ब हो सकता था. लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट ने वह फैसला सरकार के दबाव में दिया? नहीं, तो मंदिर निर्माण का श्रेय मोदी को कैसे?
मंदिर के उद्धाटन और प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन क्या सरकारी या एक दल विशेष का आयोजन है या होना चाहिए?
अभी पता चला है कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव की ओर से राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों को एक परिपत्र भेजा गया है. उसमें लिखा गया है कि ‘उच्च स्तर’ से प्राप्त निर्देशों के क्रम में 14 जनवरी से 22 जनवरी तक प्रदेश के सभी राम मंदिरों, हनुमान मंदिरों, वाल्मीकि मंदिरों में राम कथा, पूजा और भजन कीर्तन आदि आयोजित करना प्रस्तावित है. क्या सरकार और प्रशासन का काम भजन-कीर्तन आयोजित करना है? यह संविधान के अनुरूप है?
इन तथ्यों के आलोक में क्या इसे सचमुच धार्मिक आयोजन कहा जा सकता है? ऐसा नहीं लग रहा कि यह एक दल और एक व्यक्ति की उपलब्धि और उसके महिमामंडन का आयोजन बन गया है? क्या यह आपके आराध्य ‘राम’ का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं है?
क्या भारत के सभी हिंदू भाजपा और मोदी के ‘भक्त’ या समर्थक हैं? यदि नहीं, तो क्या आस्थावान हिंदू होने के नाते इस मुद्दे पर (यदि आपको इसमें कुछ गलत लगता है तो) बोलना आपका दायित्व नहीं है?
आपको कुछ गलत नहीं लगता, तो इस हिंदू समाज का ‘राम’ ही रखवाला. बशर्ते कि राम सचमुच सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हों. जिस तरह उनके नाम और मंदिर का निहित स्वार्थ के लिए ‘उपयोग’ हो रहा है और वे मूकदर्शक बने हुए हैं, इसका तो यही मतलब हो सकता है कि- या तो वे शक्तिहीन हैं, सर्वज्ञ नहीं हैं या उनको भी चापलूसी और तामझाम पसंद है! एक बात यह भी हो सकती है कि वे इस इस सबसे निर्लिप्त हैं.
प्रसंगवश, अब तो खुद मोदी जी ने प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन से दूर-अलग रहने का फैसला कर लिया है. संभवतः शंकराचार्यों के विरोध के कारण. लेकिन क्या आपके मन में यह सवाल उठा कि मोदी जी विवाहित हैं, इसलिए कायदे से उनको अकेले नहीं, सपत्नीक कर्मकांड में शामिल होना चाहिए? अकेले शामिल होते, तब भी वह सही करते, अब शामिल नहीं होंगे, तब भी सही करेंगे!
हां, तो शायद इसलिए कि आपकी समझ से मोदी ‘अवतार’ हैं, वे ‘बुद्धत्व’ को प्राप्त हो गये हैं! कि यहां पत्नी-त्याग की सुदीर्घ परंपरा रही है. जिस राम का मंदिर बना है, उन्होंने भी किया ही था. इससे प्रेरित ‘नव-भक्तों’ ने तो सीता से राम को अलग ही कर दिया. तभी तो ‘जय रामजी’ या ‘जयसियाराम’ अब सिर्फ ‘जय श्रीराम’ का नारा लगता है. यह भी आपको बुरा नहीं ही लगा शायद! हालांकि वाल्मीकि के राम ने अश्वमेध यज्ञ के बाद सीता की स्वर्ण प्रतिमा बगल में रख कर पूजा की थी.
अंत में-आज किसी संगठित धर्म या कथित ईश्वर- खुदा आदि में मेरी आस्था नहीं है. मगर यकीन कीजिए कि मेरा इरादा आपकी आस्था को ठेस पहुंचाने का नहीं है. मेरा जन्म हिंदू परिवार में हुआ, उसी परिवेश में पला- बढ़ा. इसलिए हिंदू धर्म और इसकी परंपराओं को भी अन्य धर्मों की तुलना में अधिक जानता हूं. साथ ही यह समाज कुछ ‘अपना’ भी लगता है. मेरी पहचान तो ‘हिंदू’ की बनी हुई ही है, जो मेरे न चाहने पर भी बनी रहेगी. अतः इस समाज के क्षरण और पतन से कुछ अधिक दुख होता है.
यह भी मानता हूं कि इस देश की बेहतरी मुख्यतः इस समाज के चरित्र और मिजाज से नत्थी है. देश की करीब 85 फीसदी आबादी वाला यह समाज जैसा होगा, जो चाहेगा, देश वैसा ही बनेगा, उसी दिशा में जायेगा. मेरे सवाल इसी धारणा और चिंता की उपज हैं. और यकीन करना चाहता हूं कि बुद्ध, महावीर, कबीर, विवेकानंद, गांधी, टैगोर, फुले, विवेकानंद, आंबेडकर जैसी महान हस्तियों (मैंने इस क्रम में राम-कृष्ण का नाम नहीं लिया है, क्योंकि उन्हें ऐतिहासिक नहीं, मिथकीय पात्र मानता हूं. बावजूद इसके कथा में वर्णित इनके जीवन और कृतित्व में बहुत कुछ ऐसा है, जिन्हें आदर्श और अनुकरणीय मानता हूं.) का यह देश अपने गौरवशाली अतीत को धूमिल नहीं होने देगा. और यह दायित्व मूलतः हिंदू समाज का है. इसका भविष्य आप पर निर्भर है.
यदि मेरे सवालों से किसी की भावना को ठेस पहुंची हो तो क्षमा. वैसे आपकी आस्था को ठेस पहुँचती भी है, तो ऐसी आस्था राम और धर्म के प्रति नहीं, एक दल और एक व्यक्ति के प्रति ही हो सकती है. आशा करता हूं कि आप संकीर्णता से ऊपर उठ कर विचार करेंगे.