हम सब की यह सामान्य समझ है कि मुस्लिम तथा ईसाई धर्म में जातिगत भेदभाव नहीं है. हिन्दू समाज तो अपनी वृत्ति के अनुसार बँटा जो बाद में जाति में बदल गया. चैथे स्थान पर आने वाली जातियाँ शेष समी जातियों की सेवा करती हैं, तो वह सबसे निकृष्ठ, नीची तथा अछूत जातियाँ बन गयी. ठीक यही जातिगत भेदभाव इस्लाम तथा ईसाइयों में भी है. सबसे निचले पादान पर जो जातियाँ हैं, उनको भी अस्पृष्य माना जाता है .
यह बात लेखक, पत्रकार अली अनवर की लिखी दो किताबो को पढ़ने के बाद और भी स्पष्ट हो जाती है. ‘मसावात की जंग ‘ जिसका दूसरा संस्करण 2021 में छप चुका तथा ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन’ 2023 में आया. इन दोनों किताबों को पढ़ने का अवसर मुझे अब मिला.
मुसलमानों में भी लोग तीन वर्गों में बैट हुए हैं - अशराफ यानि उच्चवर्ग जिसमें सैयद, शेख , पठान , मुगल , मलिक, तथा मिर्जा आते हैं . अजलफ - खेती करने वाले शेख जो मूलतः हिन्दू थे, जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार किया इसके अलावे दर्जी, जुलाहा, रंगरेज, भाट, धोबी तथा इस तरह की अन्य जातियां. अरजल - यानि निकृष्ट वर्ग . हलालखोर , मेहतर, भानार तथा हिजडा जैसी जातियाँ.
कठोर सत्य यह है कि इन सारी जातियों में भेदभाव है. इनमें आपस में विवाह नहीं होते हैं. इनके मस्जिद अलग हैं. नीच जाति के मृत देह को ऊँची जाति के लोगों के कब्रगाह में दफनाया नहीं जा सकता . पेट्रोडालर की उपलब्धता से ऊँची जाति के संपन्न लोग अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए अलग मस्जिद भी बनवाने लगे हैं. इन सारे जलालतों को सहते दलित मुसलमान गरीबी , अशिक्षा तथा बेरोजगारी जैसी समस्यायों को झेलता हुआ एक निकृष्ट जीवन जी रहा है . इक्कीसवीं शताब्दी में पहुंचा भारत जो अपने को आर्थिक रूप से विकसित देश बताता है , ऐसे में कुछ लोग ऐसा जीवन जी रहे हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि उनके समकक्ष हन्दू जातियां जिन सुविधाओं को आरक्षण के रूप में प्राप्त कर रही हैं, वह आरक्षण इनको प्राप्त नहीं हैं.
दलित मुसलमानों को आरक्षण नहीं मिलने का मुख्य कारण अली अनवर साहब खुद मुसलमानों की उच्च जातियों के बुद्धिजीवियों को मानते हैं. जातिगत भेदभाव के होते हुए भी ये बुद्धिजीवि यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इल्साम में यह अलगाव है . इसके अलावे जब जब दलित मुसलमानों के आरक्षण की बात उठती है तो राजनीति में प्रतिष्टित उच्चवर्ग के मुसलमान अल्पसंख्यक सारे मुसलमानों के आरक्षण की बात उठा देते हैं. यहां गौर करने की बात यह है कि आरक्षण का आधार धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक , आर्थिक तथा शैक्षणिक पिछडापन है.
भारत की जनसंख्या के 14से 16 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. उनमें भी ऊँची तथा नीची जाति के लोगों का अनुपात 20 - 80 का है लेकिन सारे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 20 फीसदी ऊँची जाति के लोग ही करते हैं. राजनीति में हो या आर्थिक या सामाजिक क्षेत्र में इन्हीं का वर्चस्व है . ये लोग 80ः लोगों को बहका कर इनसे केवल वोट लेने का काम करते हैं. ईसाइयों में भी ये सारे भेदभाव होते हुए भी वे लोग एक होकर दलित ईसाइयो के आरक्षण की बात करते हैं. इन्हीं सबका नतीजा यह है कि मुसलमानों का बहुत बडा वर्ग बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित है.
इन अछूत मुसलमानों के समकक्ष हिन्दू दलित भी यह नहीं चाहते कि इनको भी आरक्षण मिले . यहाँ पर यह तर्क दिया जाता है कि दलित मुसलमानों को भी आरक्षण मिलने लगे तो धर्मांतरण की घटनाएँ बढ़ जायेंगी और इस तरह मुसलमानो की संख्या बढ़ने के साथ हिन्दुओ के अल्पसंख्यक हो जाने की संभावना है. इसे मात्र ‘कुतर्क ही कहा जायगा.
अली अनवर जी की उक्त दोनों किताबों. में मुसलमानों के संबंध में एक विस्तृत अध्ययन है जो ज्ञानवर्द्धक तथा रोचक है.