देश के प्रभुवर्ग के लिए आदिवासी ईलाके कचड़ादानी से ज्यादा महत्व नहीं रखते हंै. औद्योगिक विकास के नाम इन इलाकों में ज्यादातर ऐसे कल कारखाने लगे है जो यहां के प्राकृतिक संसाधनों और मानवीय श्रम का अकूत दोहन करके बदले में यहां की प्राकृतिक सुषमा को विरुपित करते हैं और अपने आस पास के इलाकों में कचड़ा फैलाते है. यह नजारा झारखंड, छत्तीसगढ़ और उससे सटे आदिवासीबहुल इलाकों से गुजरते आप बखूबी देख सकते हैं.

झारखंड की बात करें तो चाहे जादुगोड़ा का यूरेनियम कारखाना हो, झिंगपानी का सीमेंट कारखाना हो, बीसीसीएल के खुले खदान हों, चांडिल और रामगढ़ के आस पास के स्पंज आईरन कारखाने हों, नये पुराने पावर प्लांट हों. वे रोजगार कम पैदा करते हैं, प्रदूषण ज्यादा फैलाते हैं- फलाई और बाॅटम ऐश के रूप में, जले कोयले के चूड़ के रूप में, जहां तहां कचड़े का बनता पहाड़, बिरुपित धरती.

इसका एहसास शहरी क्षेत्र में बस गये लोगों को कम होता है. वायुमंडल तो यहां का भी प्रदूषित रहता है और बिगड़ते पर्यावरण का प्रभाव तो उन पर भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पड़ता ही है, लेकिन ग्रामीण ईलाके इससे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं. अब तो लगभग सभी दिशाओं में बसे ग्रामीण अंचल प्रदूषण की भीषण मार झेल रहे हैं. जादूगोड़ा यूरेनियम कारखाना से निकला प्रदूषित पानी, ऐश पौंड से बहकर निकला जहरीला कचड़ा और पानी अपने आस पास के ग्रामीण ईलाकों को जहरीला बना रहा है, चाईबासा के कोल्हान क्षेत्र और वहां लौह अयस्क के खदानों के बेतरतीब खनन से लाल हो चुकी नदी, चांडिल से हाता तक स्पंज आईरन कारखाने का चारो तरफ फैला कचड़ा, चिमनियों से निकला काला धुआं, सुवर्णरेखा नदी में मिलता या बहा दिया गया कचड़ा, कोयलांचल के खुले खदान और अब तो संथाल परगना के खदान व अडानी का पावर प्लांट, इन सब ईलाकों में एक बार घूम कर देख आईये, तब आपको स्थिति की गंभीरता का पता चलेगा.

लेकिन अपनी जमीन से कट चुका शहरी युवा कल कारखाना लगने के नाम से ही उत्साह से भर जाता है. उसे लगता है कि यह उसकी बेरोजगारी का हल है. हांलाकि यह भ्रमजाल से ज्यादा कुछ नहीं. तथाकथित विकास का पहला दौर, जो सार्वजनिक क्षेत्र के छाता तले आया और जिसने रोजगार भी पैदा किया, समृद्धि के द्वीप जैसे कई औद्योगिक शहर बने, वह दौर लगभग खत्म हो चुका है. उस वक्त स्थानीय लोगों को रोजगार इसलिए नहीं मिला, क्योंकि कहा गया कि उनमें ‘योग्यता/स्किल’ की कमी थी. कुछ स्थानीय लोगों को काम मिला भी तो निहायत दोयम दर्जे का. खलासी और कुली का. जो नये शहर बने, वहां से आदिवासी-मूलवासी हमेशा के लिए उजड़ गये. टाटा, बोकारो, धनवाद आदि शहरी क्षेत्र में आदिवासी ढ़ूढें से नहीं मिलेंगे. रांची शहर में ही एचईसी के अस्तित्व में आने के बाद शहर किस कदर बदल गया, यह नजारा आसानी से देखा जा सकता है.

और अब तो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान एक एक कर बंद हो रहे हैं. जो बचें है, उनमें रोजगार घटता जा रहा है. जमाना अब निजी क्षेत्र का है. वे रोजगार का सब्जबाग तो दिखाते हैं, लेकिन उनके यहां नई तकनीक की वजह से रोजगार कम है, बाबू किस्म के लोगों के लिए थोड़े बहुत रोजगार, शेष काम उनका दिहाड़ी मजदूरों से चल जाता है. श्रम कानूनों में परिवर्तन कर स्थाई प्रकृति के कामों में भी ठेका मजदूर लगाये जाते हैं. गोड्डा के पावर प्लांट में पता करना चाहिए कि कितने स्थानीय लोगों को स्थायी नौकरी लगी. तमाम स्पंज आईरन कारखानों में 7 से 10 हजार रुपये प्रतिमाह में लोग खट रहे है. सत्ता चाहे जिनकी हो, वे तो इन बातों के प्रति उदासीन हैं ही, आम युवा भी इन सब बातों से उदासीन. बस, एक ही लड़ाई बची है, वह है आरक्षण की लड़ाई और उसके इर्द गिर्द मची छीना झपटी.

हालत यह है कि यदि मुफ्त राशन का सहारा न रहे तो जीना दुश्वार हो जाये. जरूरत है कि हम विकास के वैकल्पिक माॅडल पर विचार करें, लेकिन यह काम सामाजिक संगठनों और झारखंडी बुद्धिजीवियों के लिए प्राथमिक काम नहीं, वे तावक्त पहचान के संकट में उलझे हुए हैं.