नीयत की खोट पर बाद में. पहला सवाल तो ठीक चुनाव के पहले इसे लागू करने के मकसद और औचित्य का ही है. पांच वर्ष पहले यह कानून बन गया था. देश भर में इसके विरोध में आंदोलन हुआ. ‘शाहीनबाग’ उसका प्रतीक बन गया. देश में जगह जगह ‘शाहीनबाग’ जैसा नजारा दिखने लगा. उस विरोध का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि विरोध करने वालों की मंशा, उनकी देशभक्ति पर संदेह किया गया. उसी दौरान दिल्ली में एक केंद्रीय मंत्री ने भीड़ से ‘गोली मारो…’ का नारा लगवाया. दिल्ली में दंगे हुए या कराये गये. म्युनिसिपल चुनाव के समय गृह मंत्री ने वोटरों से कहा- ऐसा बटन दबाना कि उसका झटका ‘शाहीनबाग’ में महसूस हो. उसी बीच कोविड का प्रकोप हुआ. उस कारण भी विरोध ढीला पड़ा. वह दौर बीत गया. पर सरकार ने इस दिशा में कुछ नहीं किया, सिवाय बीच बीच में गृह मंत्री की ‘धमकी’ वाले अंदाज में इस घोषणा के कि ’सीएए’ तो लागू होकर रहेगा. वह ‘एनआरसी’ (नागरिकता) रजिस्टर लागू करने की बात भी करते रहेय वहीं प्रधानमंत्री दावा करते रहे कि ‘एनआरसीश् पर तो कोई चर्चा ही नहीं हुई है! प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के कथन में इस विरोधाभास से भी समझा जा सकता है कि ‘एनआरसीश् विवादस्पद है, जिसका भाजपा शासित असम में भी भरी विरोध होता रहा है, आज भी हो रहा है. ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ को एक साथ देखने से कारण स्पष्ट भी हो जाता है. पर जब चुनाव आसन्न हैं, अचानक ’सीएए’ लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी गयी!
भाजपा को पता है कि ’सीएए’ का विरोध कहां से होगा और उस विरोध की प्रतिक्रिया किधर से और कैसे होगी. जाहिर है, इस फैसले का तात्कालिक मकसद उस ‘वोट बैंक’ (हालांकि वे इस शब्द से ही बिदकती और अन्य दलों पर ‘वोट बैंक’ राजनीति करने का आरोप लगाती रही है), को समृद्ध करना है, जिसके लिए वह राम मंदिर निर्माण का श्रेय लेने, प्राण-प्रतिष्ठा जैसे धार्मिक आयोजन को अपने प्रचार का माध्यम बनानेय और अयोध्या के वाद काशी और मथुरा को मुद्दा बनाने में लगी रही है.
इस लिहाज से, इस समय इस कानून को लागू करना सीधे धार्मिक विभाजन और उन्माद पैदा करने का प्रयास है, जो चुवावी आचार संहिता के खिलाफ भी है. कुछ दिन पहले ही चुनाव आयोग ने दलों से अपील की थी कि धर्म और आस्था को चुनावी मुद्दा नहीं बनायें. बेशक अभी (इन पंक्तियों के लिखने तक) चुनावों की विधिवत घोषणा नहीं हुई है, लेकिन यह उस अपील में निहित भावना का उल्लंघन है.
अब देखते हैं के ’सीएए’ (संशोधित) में ऐसा क्या है, जिस कारण इसका विरोध होता रहा है. शरणार्थियों को, यदि वे चाहें, भारत की नागरिकता देने का प्रावधान तो नागरिकता कानून में पहले से है. कृष्णकांत नाम के एक पत्रकार ने सरकारी आंकड़ों के आधार पर बताया है कि 2017 में 817 और 2018 में 628 विदेशी नागरिकों को भारत की नागरिकता दी गयी. तब तक नागरिकता कानून में संशोधन भी नहीं हुआ था. फिर 2019 में 987, 2020 में 639 और 2021 में 1773 विदेशी नागरिकों को नागरिकता दी गयी. इसके पहले की सरकारें भी ऐसा करती रही हैं. इसी सरकार ने एक पाकिस्तानी कलाकार अदनान सामी को नागरिकता दी. यानी किसी को नागरिकता देने में कोई बाधा नहीं थी, नहीं है. यह बाध्यता भी नहीं है कि जो भी इसके लिए आवेदन करे, उसे देना ही होगा, उसके मानक तय हैं. इसमें ‘नया’ यह हो गया कि अब तीन पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान- से आने वाले ‘सिर्फ’ मुसलिम शरणार्थियों नागरिकता नहीं मिलेगी.
अव्वल तो इस बदलाव के पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है. पहले भी सवाल किया गया था कि यह बदलाव सिर्फ तीन देशों के लिए क्यों? पकिस्तान और बांग्लादेश तो भारत से अलग होकर बने. यदि अफगानिस्तान को जोड़ा गया तो म्यांमार को क्यों छोड़ दिया, जो कभी ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा था?
‘सीएए’ में सिर्फ इन तीन देशों से, वह भी धार्मिक प्रताड़ना के शिकार होकर आने वाले गैर-मुसलिमों को नागरिकता देने की बात है. यह अपने आप में संविधान के विरूद्ध है. उस बात को फिलहाल छोड़ भी दें, तो क्या इन देशों में किसी मुसलिम व्यक्ति का समूह का उत्पीड़न नहीं होता या नहीं हो सकता? उन देशों में नास्तिकों के साथ कैसा सलूक होता है? किसी के भिन्न विचार के कारण उसका उत्पीड़न होता है, उसे क्या कहेंगे? तब तसलीमा नसरीन को किस श्रेणी में रखेंगे, जो बांग्लादेश के कट्टरपंथी मुसलिम संगठनों के निशाने पर हैं?
मुझे नहीं पता कि संशोधित ‘सीएए’ की शर्तें अन्य देशों पर लागू हैं या नहीं? यानी इन तीन देशों के अलावा किसी देश में रह रहे ‘भारतीय’ मूल के लोग प्रताड़ना के शिकार होकर आते हैं, तो उनमें से मुसलिम को नागरिकता मिलेगी या नहीं. अगर यह सभी देशों पर लागू है, तब तो और भी खतरनाक और भेदभावपूर्ण है. और यदि नहीं है, तब भी सवाल बनता है कि सिर्फ तीन देशों के लिए ही ऐसी शर्त क्यों?
श्रीलंका में तमिल बनाम सिंहली (बौद्ध) का विवादध्संघर्ष अब भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है. कल श्रीलंका में बहुसंख्यक बौद्ध यदि तमिलों को प्रताड़ित करेंगे तो उसे धार्मिक आधार पर उत्पीड़न नहीं माना जायेगा? वहां से प्रताड़ित होकर आनेवालों में मुसलमान भी होंगे. उनके साथ क्या बर्ताव करेंगे? वहां जब गृहयुद्ध की स्थिति बन गयी थी, तो हजारे लाखों श्रीलंकाई तमिल भारत आ गए थे. सभी वापस भी नहीं गए हैं. वहां फिर ऐसे टकराव की स्थिति बन सकती हैय तमिल भारत में शरण ले सकते हैं, नागरिकता लेना भी चाह सकते हैं. तो क्या देश के नागरिकता कानून को फिर संशोधित करने की जरूरत नहीं पड़ेगी? या तमिल मुस्लिमों पर यह निषेध लागू नहीं होगा?
श्रीलंका के अलावा म्यांमार, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के पचासों ऐसे देश हैं, जहां भारतीय मूल के लोग रह रहे हैं. केनिया, युगांडा, फिजी आदि देशों में समय समय पर भारतवंशी प्रताड़ना के शिकार होते रहे हैं. उनको पलायन करना पड़ा. उनमें शायद ही कोई स्वेच्छा से गया था, उनको बंधुआ मजदूर बना कर ले जाया गया था, वे ‘गिरमिटिया’ कहलाये. कल को यदि उन मुल्कों से श्भारतवंशियों को खदेड़ा गया तो क्या उनमें धर्म के आधार पर भेदभाव होगा, यानी हम उन मुसलमानों को भी शरण नहीं देंगे, जो यूपी, बिहार और झारखंड आदि से ही गए थे? उनसे कहेंगे कि अब आप पाकिस्तान या बांग्लादेश जाओ?
नेपाल की तराई में बसे ‘मधेसी’ तो भारतीय मूल के ही हैं. नस्ल, समाज की बनावट, परंपरा और मन से श्भारतीयश् हैं. उनमें मुसलमान भी हैं. नेपाल में पहाड़ी और मधेसियों के बीच तनाव और टकराव की स्थिति बनी रहती है. भारत के बंटवारे के पचड़े से उनका (मुसलमानों का) कोई रिश्ता नहीं था. कल कोई अनहोनी हो, ‘मधेसियों’ को खदेड़ा गया तो उनमें से मुसलमानों के साथ क्या करेंगे?
सरकार ने विदेशों में, वहां के नागरिक के रूप में रह रहे भारतीय मूल के लोगों को भारत की श्विदेशी नागरिकताश् देने का फैसला किया है. इससे जुड़ी एक खबर को (13 मार्च) एक अखबार ने ‘‘राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का मारीशस को तोहफा’य ओआईसी कार्ड से घर वापसी का मौका” शीर्षक से प्रकाशित किया है. हालांकि उसमें यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उसमें भी ‘सीएए’ का फार्मूला लगा हुआ है. क्या उनमें मारीशस के किसी मुस्लिम भारतवंशी को भी ऐसी नागरिकता मिल सकेगी?
बेशक इस कानून से भारत के मुसलिम नागरिक को ‘फिलहाल’ कोई खतरा नहीं है. सही है कि यह नागरिकता छीनने का नहीं, देने का कानून है. इसी आधार पर अमित शाह पूछते हैं, तो इसमें हर्ज क्या है? हर्ज है श्रीमान, क्योंकि आप ही कहते हैं कि वोटर आईडी, आधार या पासपोर्ट किसी की नागरिकता का प्रमाण नहीं है. इसके लिए सरकार एक एनआरसी बनायेगी. उस एनआरसी के लिए हर नागरिक को अपने भारतीय होने के प्रमाण स्वरूप कुछ कागजात की जरूरत पड़ेगी. यही तो पेंच है, जिससे मुसलमान सशंकित है.
गौरतलब है कि सीएए के तहत उन तीन देशों से आनेवाले ‘मुसलिम शरणार्थी को नागरिकता नहीं दी जायेगीश् ऐसा लिखा नहीं है. लेकिन किन धर्म के लोगों को दी जायेगी, यह लिखा हुआ है. और उस सूची में ‘मुसलिम’ नहीं है. तो लिखे बिना भी सपष्ट कर दिया गया कि किसी मुसलिम को शरणार्थी नहीं मानेंगे और जो पहले आ गये हैं, उनको (‘एनआरसी’ लाकर) खोज कर निकाल बाहर करेंगे. अमित शाह बार बार क्रोनोलोजी समझाते रहे हैं. वे साफ साफ कहते रहे हैं कि पहले सीएए आयेगा, फिर ‘एनआरसी’ आयेगा. यानी हम हर नागरिक की पहचान करेंगे और घुसपैठियों को भागायेंगे. अब जो गैर-मुसलिम हैं, वे तो संदेह से परे रहेंगे. किसी हिंदू, ईसाई, बौद्ध, जैन या पारसी के पास जरूरी कागज नहीं भी हुआ, फिर भी उसे ‘घुसपैठिया’ तो नहीं ही माना जायेगा. हर हाल में वह शरणार्थी ही रहेगा, लेकिन ऐसा हर मुसलमान संदिग्ध ‘घुसपैठिया’ बन जायेगा. यदि बांग्ला बोलता हो तब तो शर्तिया ‘बांग्लादेशी’ मान लिया जायेगा. गैर हिंदुओं में भी गरीब और बेघर लोगों को जरूरी कागजात दिखाने में परेशानी हो सकती है. मगर मुसलमान पर तो संदेह की तलवार लटक जायेगी, जो करीब दस साल से लटकी हुई ही है.
कमाल है कि फिर भी यह कानून ‘मुसलिम विरोधी’ नहीं है!
जाहिर है, सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन करने के पहले गंभीर विचार विमर्श नहीं किया. या कहें कि बहुत ‘सोच समझ’ कर यह संशोधन किया. लगता तो यही है कि सरकार का उद्देश्य महज इस आधार पर राजनीति करना, मुसलिमों के प्रति बजबजाती नफरत से भरे संकीर्ण हिंदुओं को संतुष्ट कर उनका वोट लेना था और है.
इस संदर्भ में एक और बात पर ध्यान देने की जरूरत है-जब ये कहते हैं कि जल्द ही ‘अखंड भारत’ बनेगा, यानी पाकिस्तान और बांग्लादेश पुनः भारत का हिस्सा हो जायेगा, तब तो उल्टे इन मुल्कों के नागरिकों के प्रति और उदार होना चाहिए. रणनीति के तहत भी. वे कल भारतीय थेय और आपके मुताबिक कल फिर भारतीय हो जायेंगे. फिर तो अपनी तरफ से कोई पाबंदी ही नहीं रहनी चाहिए- धर्म के आधार पर तो नहीं ही. इनके मुताबिक इन देशों के सभी नागरिक जल्द ही भारतीय ही हो जायेंगे! या कि श्अखंड भारतश् भी एक जुमला ही है?
इस घोषणा की टाइमिंग (सुप्रीम कोर्ट के इलेक्टोरल बांड संबंधी फैसले के अगले ही दिन) के कारण एक संदेह यह भी होता है कि कहीं इस जल्दबाजी का एक मकसद उस निर्णय से हुई फजीहत की खबरों का शोर कुछ कम करना भी तो नहीं था!