वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने संविधान में संशोधन कर धारा 370 को निरस्त कर दिया. इस धारा के द्वारा जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त था. इसके चलते वहां के मामलों में केंद्र सरकार का दखल पूर्णरूप से नहीं हो पात था. इस धारा को निरस्त कर केन्द्र सरकार ने वहां के विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त कर दिया. उसी समय जम्मू कश्मीर राज्य पुर्नगठन बिल भी लाया गया जो लोकसभा से पारित हो गया.

इसके अनुसार जम्मू कश्मीर राज्य को तीन भागों में विभाजित कर दिया गया और यह कानून 31 अक्टूबर 2019 से लागू हो गया. अब जम्मू, कश्मीर, तथा लदाख तीन अलग-अलग केंद्र शासित राज्य बन गये. जम्मू और कश्मीर में शासन कार्य के लिए विधान सभा का प्रावधान किया गया, लेकिन लदाख में कोई विधानसभा नहीं होगी. बल्कि स्थानीय मुद्दे जैसे, स्वास्थ्य शिक्षा तथा अन्य कुछ समस्याओं के निबटारे के लिए दो हिल डेवलेपमेंट काउंसिल बने. जिसमें वहां के लोगों की कोई भागीदारी नहीं होती है. कौंसिल के सदस्य केंद्र सरकार द्वारा ही मनोनीत होते हैं. इस तरह वहां की शासन व्यवस्था पूर्ण रूप से केन्द्र सरकार के हाथों में होती है. इसके पहले जम्मू कश्मीर की विधान सभा में लद्दाख से चार विधायक तथा लोकसभा में दो सांसद चुनकर भेजे जाते थे.

जम्मू कश्मीर राज्य के अंतर्गत रहते लदाख के लोगों को यह शिकायत रहती थी कि उनकी उपेक्षा होती थी. वहां पर रहने वालों में 97 फीसदी आदिवासी हैं. उनकी भाषा, संस्कृति, खान-पान सब शेष जम्मू-कश्मीर से अलग है. वे प्रकृति के संरक्षक हैं. पर्वतीय क्षेत्र होने के साथ-साथ वह सीमवर्ती क्षेत्र भी है. ऐसा संवेदनशील क्षेत्र कभी भी उपेक्षित नहीं रखा जा सकता. 2019 के चुनाव के समय भाजपा ने अपने चुनावी मेनीफेस्टों में यह वादा किया था कि चुनाव जीतकर सरकार बनाते ही वे धारा 370 हटाकर जम्मू कश्मीर राज्य के विशेष दर्जे को हटायेंगे और लदाख में छठी अनुसूचि लागू करेंगे.

लेकिन चुनाव के बाद लदाख को विधानसभा विहीन केंद्रशासित राज्य बनाकर उसे दो हिल डेवलेपमेंट कौंसिल के अधीन कर दिया गया. इस तरह एक लोकतांत्रिक देश में लदाख अपने प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया गया. 2019 के चुनाव के बाद भाजपा सरकार ने लदाख के लिए किये गये अपने वादे को भुला ही दिया. समय समय पर वहां के लोग केंद्र सरकार को याद दिलाने के लिए प्रदर्शन कर छठी अनुसूचि की मांग करते रहे. उन्होंने जम्मू कश्मीर में प्रदर्शन किया और दिल्ली के जंतर मंतर पर भी प्रदर्शन किया.

केंद्र सरकार ने यदा कदा उनलोगों के साथ बैठकें करने का नाटक तो किया, लेकिन नतीजा शून्य ही रहा. केंद्रशासित राज्य बनने के बाद लदाख के लोगों के सामने अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की भी समस्या आ खडी हुई, क्योंक कारपोरेट के लोगों के लिए वे अब सुलभ हो गये थे. उन लोगो की पोषक केंद्र सरकार विकास के नाम पर लदाख के जल जंगल जमीन को अधिकृत करने लगी. ऐसे में उनके सामने एक ही रास्ता था कि वे लदाख में छठी अनुसूचि की मांग करें जिससे जल, जंगल, जमीन पर उनका अधिकार बना रहे. उनकी अनुमति के बिना कोई भी उन पर अधिकार नहीं कर सके.

2024 के चुनाव के पहले वहां के लोग चाहते हैं कि उनकी मांगें पूरी हो. फरवरी 3 तारीख को लेह एपेक्स बॉडी तथा कारगिल डेमोक्रेटिक एलाइंस के नेतृत्व में लदाख में बंद का आह्वान किया गया. लेह और कारगिल लदाख के दो जिले हैं. लेह में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग रहते हैं और कारगिल में मुस्लिम धर्म को मानने वाले रहते हैं. वे आपसी मतभेद को भूलकर लदाख के हित में लेह के पोलो ग्राउंड में बड़ी संख्या में एकत्र हुए. वहां उन्होंने अपनी मांगे सरकार के सामने रखी. लदाख को राज्य का दर्जा मिले, छठी अनुसूचि लागू हो, और नौकारियों में उन्हें आरक्षण मिले.

इन मांगो को लेकर धरना प्रदर्शन हुए. वहां के पर्यावरण विद और सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुंग ने अपने पांच साथियों के साथ अनशन शुरू कर दी . बाद में अनशन करने वालों की संख्या बढ़ कर सत्तर हो गयी. वे लोग रात दिन वहीं डटे रहे. जबकि उस समय वहां दिन में 0 डिग्री तापमान होता था और रात में माइनस 9 डिग्री से लेकर माइनस 15 डिग्री सेलिसियस तापमान होता था. नमक और पानी पीकर ये लोग मौसम की मार को झोलते हुए वहीं डटे रहे. लेकिन इनकी ओर न तो सरकार का ध्यान गया, न मुख्य धारा की मीडिया का. इनके इस शांतिपूर्ण ढंग से किये जाने वाले पदर्शन या अनशन की खबरे न अखबारों में छपी, न टीवी समाचारों में दिखाया गया.

सरकार उनकी मांगो को पूरा करेगी या नहीं और उनका अनशन कब तक चलेगा इसकी जानकारी हमलोगों तक पहुंचने का कोई जरिया भी नहीं है. अब तो 2024 के चुनाव की तारीखों का एलान भी हो चुका है. आचार संहिता का बहाना तो सरकार को मिल ही चुका है.

दो तरह के प्रदर्शन हमारे सामने है. एक है मणिपुर का हिंसक प्रदर्शन जिसका दमन सरकार ने पुलिस और सेना की सहायता से करना चाहा. इसके परिणाम स्वरूप कई हजार लोग बेघर हो गये, सैकडों लोग मारे गये. स्कूल कालेज बंद हो गये. इस तरह लोग अविश्वास के माहौल में अफरा तफरी का जीवन जी रहे हैं. अभी भी रह रह कर हिंसक घटनायें घट ही रही हैं. करीब दस महीने से चल रहे इस स्थिति का समाधान सरकार अब तक नहीं निकाल पायी है.

दूसरी ओर लदाख का यह शांतिपूर्ण पदर्शन हैं. पक्के गांधीवादियों की तरह इन्होंने अपने अनशन और प्रदर्शन को शांतिपूर्ण रखा और अपनी मांगे मनवाने की कोशिश कर रहे हैं. सरकार यहां पर बल प्रयोग कर अडचन तो पैदा नहीं कर सकती है इसलिए लोगों को इसमें शामिल होने से रोकने के लिए कई दूसरे तरह के हथकंडे अपनाये. सरकार का यह प्रयास नहीं रहा कि इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन का सामाधान तत्परता से करे. शांति, अहिसा, विकास, उन्नति आदि की दलील देती सरकार की इमानदारी पर इसीलिए प्रश्न चिन्ह लगता है.

लोकतंत्र में धरना, पदर्शन, तथा अनशन आदि के द्वारा अपनी समस्याओं को सरकार के सामने रखने का अधिकार लोगों को है. सरकार का भी यह कर्तव्य है कि वह दमन की नीति न अपना कर लोगों की समस्याओं पर ध्यान दे उनके समाधान का रास्ता ढूंढें. साथ ही साथ इस तरह थी खबरों को लोगों तक पहुंचाने का दायित्व मीडिया का है.