कम्युनिस्ट आंदोलन का एक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय नारा है- ‘दुनियां के मजदूरों एक हो’. हमारा भी मानना है कि जब तक वे एक नहीं होंगे, तब तक मानव मुक्ति संभव नहीं. इसलिए संघर्ष के हर रण क्षेत्र में यह नारा जोश भरे स्वर में लगाया जाता है. लेकिन दिनों दिन व्यावहारिक दृष्टि से यह अपनी अर्थवत्ता खोता जा रहा है. आदतन हम इस नारे को, जो बदली हुई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, परिस्थितियों में खोखला हो चुका है, पूरे जोशो खरोश से लगाते रहते हैं, इस सवाल से कभी जूझने या उसके रूबरू खड़े होने की कोशिश नहीं करते कि दुनियां के मजदूर एक कैसे हो सकते हैं?
दरअसल, इस नारे की जान यह अवधारणा थी कि समाज वर्गों में विभाजित है. उन वर्गों में निरंतर संघर्ष चलता रहता है और उससे एक नया समाज और नई सामाजिक- आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था खड़ी होती है. वर्ग संघर्षों की इसी प्रक्रिया से सामंतवाद का उदय हुआ. औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवाद का दौर आयेगा. समाज दो बड़े खेमों में बंट जायेगा. पूंजीपति व सर्वहारा. सर्वहारा यानी जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं, गुलामी की जंजीरों के सिवा और यह वर्ग पूंजीवाद का नाश कर साम्यवादी या समाजवादी व्यवस्था कायम करने में अहम भूमिका निभायेगा. भारत में तो कभी औद्योगिक क्रांति हुई ही नहीं, लेकिन जिन देशों में औद्योगिक क्रांति हुई भी, वहां भी समाज दो सुस्पष्ट खेमें-. पूंजीपति व सर्वहारा- में नहीं बंटा. अनेक पेशों के अलावे हुआ यह भी कि औपनिवेशिक शोषण के द्वारा शक्तिशाली देशों ने दुनियां भर से धन बटोरा और अपने देश के मजदूरों को बेहतर वेतन सुविधा देकर उनके भीतर क्रांति की अगुवाई की संभावनाओं को कुंद कर दिया.
और जिन देशों में औद्योगिक क्रांति हुई ही नहीं, जैसे कि अपना देश भारत, वहां मिश्रित अर्थ व्यवस्था चलती रही जिसे हम अर्द्ध सामंती अर्द्ध पूंजीवादी व्यवस्था कह कर चिन्हित करते हैं. इसलिए अपने देश में समाज कभी भी दो बड़े खेमों में विभाजित न हुआ और न दूर दूर तक इसकी संभावना ही नजर आती है. कई ऐसे तबके या वर्ग हैं जो उत्पादन प्रक्रिया से कहीं से भी नहीं जुड़े हैं, लेकिन समाज में उनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत है. दूसरी तरफ मजदूरों वर्ग में भी बेशुमार दर्जाबंदियां हैं. एक विशाल खेमा खेतिहर मजदूरों का है. फिर निर्माण मजदूरों का एक बड़ा वर्ग, संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर और उन मजदूरों में भी एक बड़ा हिस्सा वैसे मजदूर जो वेहतर सुविधाएं प्राप्त कर रहे हैं. जिन्हे सामान्य भाषा में हम ‘वाईट काॅलर मजदूर’ कह सकते हैं. इन सब की वेतन सुविधाओं में तो अंतर है ही, इनके स्वार्थ भी आपस में टकराते रहते हैं. जानकारों के अनुसार बंगाल की सरकारों ने नरेगा को लागू करने में तत्परता नहीं दिखाई, वजह यह कि इससे खेतिहर मजूरों को ताकत मिलती और वे वहां अधिक न्यूनतम मजूरी की मांग कर किसानों को परेशान कर देते. झारखंड के ग्रामीण इलाकों में जब खेतिहर मजूर चार पैला धान, यानी दो किलो चावल पर खटा करते थे, उस वक्त सार्वजनिक औद्योगिक प्रतिष्ठानों के श्रमिक मूल्य सूचांक पर आधारित वेतन, साप्ताहिक अवकास, बोनस, इनसेंटिव, एलटीसी, एलएलटीसी की सुविधायें उठाया करते थे और छठे व सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद तो यह तफरका और ज्यादा हो गया है.
विडंबना यह कि मजदूर वर्ग ने अपने जुझारु संघर्ष और कुर्बानियों से जो कुछ भी हासिल किया, उसका फायदा संगठित क्षेत्र ने उठाया, असंगठित क्षेत्र की हालत पहले जैसी ही रही, क्योंकि ट्रेड यूनियन मूवमेंट केे नेताओं ने कभी भी असंगठित क्षेत्र को संगठित करने की कोशिश ही नहीं की. संगठित क्षेत्र में काम करने के अपने फायदे थे. कुल मिला कर परिणाम यह हुआ कि उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े श्रमिकों में भी अनेकानेक वर्ग बन गये और उनके बीच का द्वंद्व लगातार बढता गया. हम दुनियां के मजदूर एक हों का नारा जरूर लगाते हैं लेकिन दुनियां के मजदूरों के भौतिक हालात में इतना अंतर पैदा हो गया है कि उनमें एका संभव ही नहीं. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में श्रमिकों की संख्या 487 मिलियन है. चीन में 795 मिलियन और अमेरिका में 154 मिलियन और इस कुल श्रमशक्ति का 94 फीसदी असंगठित क्षेत्र में है जिनका न्यूनतम वेतन भारत में सबसे कम 45 डाॅलर प्रतिमाह, चीन में 182 डाॅलर प्रतिमाह, जबकि अमेरिका में 1242 डाॅलर प्रतिमाह है. इस भारी अंतर के रहते आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दुनियां के मजदूर एक हो सकेंगे.
अपने देश में और दुनियां में भी एक समस्या यह है कि आद्योगीकरण और तकनीकी विकास के बावजूद भी वैज्ञानिक सोच की जगह जातीय, सांप्रदायिक और नस्ली भेद भाव बढे हैं. जातीय अस्मिता और पहचान का संघर्ष तीव्र हुआ है. काले और गोरों का संघर्ष, ईसाई और गैर ईसाई दुनिया का संघर्ष, अपने देश में अगड़े- पिछड़े और दलितों का संघर्ष तीव्र हुआ है और इसका प्रभाव ट्रेड यूनियन मूवमेंट पर पड़ा है. थोड़ी बारीकी से देखने पर हम इस प्रभाव को विभिन्न श्रमिक संगठनों में देख सकेंगे. उदाहरण के लिए झारखंड का कोयलांचल श्रमिक आंदोलन का गढ रहा है, लेकिन यहां श्रमिक संगठनों की स्थिति पर गौर करें तों इंटक पर ब्राह्मणों का प्रभाव है, तो एटक पर भूमिहारों का, इसी तरह सभी श्रमिक संगठन और उसके नेताओं का उनकी जाति के श्रमिकों पर प्रभाव है और निर्णायक संघर्ष के दौरान जातीय राजनीति प्रभावी हो जाती है.
और सबसे कठोर यर्थाथ यह कि श्रमिक संगठनए यानी ट्रेड यूनियन मूवमेंट देश के करोड़ों असंगठित श्रमिकों की परवाह नहीं करती. दूसरी तरफ नई तकनीक की वजह से औद्योगिक मजदूरों, खास कर नियमित मजदूरों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है. बोकारो स्टील प्लांट में 52 हजार नियमित श्रमिक काम करते थे, अब करीबन आधे, टिस्को के नियमित श्रमिकों की संख्या चालीस हजार थी, अब लगभग एक चैथाई. इसके अलावा औद्योगिक कारखानों में भी अब बड़ी संख्या में ठेका श्रमिक ही काम करते हैं और औद्योगिक क्षेत्र के बाहर एक विशाल आबादी है दिहाड़ी पर खटने वाले मजदूरों, निर्माण मजदूर व खेतिहर मजदूरों की. लेकिन श्रमिक आंदोलन ने इनकी कभी सुध नहीं ली. पिछली बार हड़ताल की एक मुख्य मांग यह थी कि औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले ठेका श्रमिकों को भी न्यूनतम 15 हजार मासिक का वेतन मिला चाहिए. यानी श्रमिक संगठनों ने ठेका श्रमिकों के हित का सवाल उठाया था. सवाल उठता है कि जब दिल्ली विवि में काम करने वाले नियमित शिक्षकों के वेतन और एडहाॅक शिक्षकों के वेतन को भरसक बराबर रखने की कोशिश है तो औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले नियमित और स्थाई प्रकृति का काम करने वाले मजदूरों का वेतन एक क्यों नहीं हो सकता?
सवाल यह भी है कि यदि नरेगा में काम करने वाले श्रमिकों का न्यूनतम वेतन छह. हजार मासिक के करीब पड़ता है, उस वक्त औद्योगिक मजदूरों का न्यूनतम वेतन पंद्रह हजार क्यों हो? क्या वे जमीन खोदने वाले श्रमिकों से ज्यादा श्रम करते हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि हम औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले ठेका श्रमिकों के वेतन सुविधाओं में वृद्धि नहीं चाहते, हम सिर्फ श्रमिक आंदोलन के विरोधाभासों की तरफ इंगित करना चाहते हैं. और इन विरोधाभासों को जब तक पाटा नहीं जाता, तब तक ‘दुनियां के मजदूरों एक हो’ का नारा छलावा ही रहेगा. अनुत्तरित सवालों का जवाब ढूंढे बगैर श्रमिक आंदोलन को बचाये रखना निरंतर कठिन होता जायेगा.