सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों द्वारा केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में लगभग 22 फीसदी की वृद्धि करने वाले मोदी ने मजदूर दिवस के उपलक्ष्य में झारखंड के आदिवासी मजदूरों के न्यूनतम वेतन में एक रुपये की वृद्धि की है. सरकार ने मनरेगा मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में 1 अप्रैल से औसतन 2.7 फीसदी वृद्धि की है. असम, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मनरेगा की मजदूरी में एक रुपये की वृद्धि हुई है, जबकि सूखाग्रस्त तमिलनाडु तथा ओड़िसा में 2 रुपये की और आंध्रब प्रदेश तथा तेलंगाना में 3 रुपये की वृद्धि हुई है. यानी सबसे गरीब राज्य के मजदूरों की मजदूरी में सबसे कम वृद्धि हुई है. इस हिसाब से बिहार तथा झारखंड के मजदूरों को 167 रुपये प्रतिदिन की जगह 168 रुपये मिलेंगे. जबकि हरियाणा में सबसे ज्यादा मजदूरी 259 रुपये से बढ कर 277 रुपये हो गई है. पिछले वर्ष इसी मजदूरी दर में औसतन 5.7 फीसदी की वृद्धि हुई थी जो इस वर्ष की तुलना में कुछ अधिक थी. मतलब साफ है कि झारखंड से मजदूर अधिक मजदूरी के लोभ में हरियाणा जैसे विकसित राज्यों की तरफ पलायन करें.
मनरेगा की मजदूरी में वृद्धि की सिफारिश ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की कमेटी ने की थी. कमेटी के अनुसार मनरेगा की मजदूरी कृषि मजदूरी के समकक्ष ही होनी चाहिए. मनरेगा की मजदूरी के निर्धारण का आधार सरकार द्वारा निर्धारित कृषि कार्य में लगे अकुशल श्रमिकों की मजदूरी ही होनी चाहिये. साथ ही उनकी सिफारिश थी कि मनरेगा की मजदूरी में वृद्धि का आधार भी ग्रामीण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक हो, जो ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के उपभोग को सूचित करता है. लेकिन वित्त मंत्रालय ने कमेटी की सलाह पर ध्यान नहीं दिया. उसने ग्रामीण विकास मंत्रालय को यह सलाह दी कि मनरेगा की योजनाओं को ठीक तरह से चलाने का प्रयास करना चाहिए. मनरेगा के लिए ज्यादा से ज्यादा काम की व्यवस्था करना, मनरेगा पर सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था करना आदि. लेकिन मजदूरी कृषि क्षेत्र के मजदूरों से कम हो. क्योंकि यदि मनरेगा मजदूरों की मजदूरी बढा दी जायेगी, तो मजदूर कृषि कार्य में जाना ही नहीं चाहेंगे. इससे कृषि क्षेत्र पर खराब असर पड़ेगा.
इस तरह केंद्रीय सरकार द्वारा निर्धारित मनरेगा की मजदूरी तथा राज्य सरकारों द्वारा निश्चित किये गये न्यूनतम मजदूरी दरों में अंतर के चलते कई राज्यों में मनरेगा की मजदूरी कृषि मजदूरी से बहुत ही कम होती है. तो कुछ राज्यों में यह कुछ ज्यादा. उदाहरण के लिए 2011 में बिहार में मनरेगा तथा कृषि मजदूरी प्रतिदिन 120 रुपये थी, लेकिन आज वहां कृषि मजदूरी दर बढ कर 232 रुपये प्रतिदिन हो गयी, लेकिन मनरेगा की मजदूरी केवल 168 रुपये रह गई.
शारीरिक श्रम करने वाले अकुशल श्रमिकों को अपने मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक मजदूरी पाने का हक है. इसलिए सरकार ग्रामीण तथा शहरी मजदूरों को उनकी जरूरतों के हिसाब से मूल्य सूचकांक के आधार पर मजदूरी का निर्धारण करती है. राज्य सरकारे उसी को आधार बना कर अपने राज्यों के लिए न्यूनतम मजूरी दर निर्धारित करती है. लेकिन मजदूरी में वृद्धि बढती हुई मंहगाई दर के ही अनुसार होनी चाहिए. झारखंड सरकार के प्रधान सचिव राजबाला सिंह ने झारखंड के मनरेगा मजदूरी में 1 रुपये की वृद्धि पर असंतोष जताते हुए कहा है कि विगत दस वर्षों में राष्ट्रीय मजदूरी दर में 20 फीसदी की वृद्धि हुई है, तो मनरेगा की मजूरी में मात्र 4.7 फीसदी की वृद्धि हुई है. यह झारखंड के मजदूरों को निराश करती है और यहां के पलायन दर को और बढाती है.
भारत जैसे देश में जहां गांवों की संख्या ज्यादा है और अकुशल श्रमिकों की संख्या वहीं ज्यादा रहती है, वे एक दिन काम न करें तो उनके घर में चूल्हा नहीं जलता है. मनरेगा के द्वारा गांव के प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को 100 दिन के काम की जो गारंटी दी गई है, उससे उस परिवार के भोजन की व्यवस्था तो किसी तरह हो जाती है, लेकिन उनकी दूसरी जरूरतें या फिर स्वास्थ, शिक्षा आदि की कोई सामाजिक गारंटी उन्हें नहीं मिलती है. बढती हुई मंहगाई दर के हिसाब से यदि उनकी मजदूरी में यदि वृद्धि नहीं होती है, तो यह उनके प्रति अन्याय है. उनकी मजूरी में एक या दो रुपये बढा कर उनके श्रम का अपमान ही करना होता है. सरकार यदि यह तर्क दे रही है कि मनरेगा की मजदूरी बढ जाये तो कृषि कार्य के लिए मजदूर नहीं मिलेंगे, तो सरकार का यह तर्क किस हद तक तर्कसंगत है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए. एक तो पूरे भारत में कृषि कार्य सालों भर चलने वाला नहीं. झारखंड जैसे राज्य में, जहां वर्ष में एक ही फसल होती है, वहां साल में छह महीने ही कृषि कार्य होता है. शेष के छह महीने वहां के किसान या तो बेकार रहते हैं या मजूरी करते हैं, क्योंकि उनके खेतों की उपज से उनके साल भर का भरण पोषण नहीं होता है. यहां पर कृषि श्रमिकों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है. वैसे राज्यों में, जहां साल में दो फसले होती है,ं और खेत का मालिक खुद से खेती नहीं करता है, वहां मजदूरों की जरूरत होती है और बड़े भूखंडों पर मशीनों का प्रयोग भी होता है. इसलिए यह भय दिखाना की मनरेगा में मजूरी बढ जाने से कृषि कार्य के लिए मजदूर नहीं मिलेंगे, तर्कहीन है. इस कमजोर तर्क के आधार पर मनरेगा के श्रमिकों की मजदूरी न बढाना और भी अन्याय है.
इसके विपरीत इसी देश में संगठित क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों को प्रतिमाह निश्चित समय पर वेतन मिलता है. साथ ही शिक्षा, स्वास्थ आदि कई तरह की सुविधायें भी मिलती है. हर पांच साल में सरकार उनके वेतन मान में वृद्धि करती है. समय समय पर मंहगाई भत्ता में वृद्धि कर मंहगाई से उनको राहत भी देती है. इस तरह संगठित-असंगठित तथा कुशल-अकुशल श्रमिकों के बीच एक भारी आर्थिक विषमता पैदा होती है जो साल दर साल और गहरी होती जाती है. संगठित क्षेत्र की बढती हुई आमदनी का असर बाजार पर भी पड़ता है. महंगाई बढती है जिसका सामना मनरेगा जैसे श्रमिकों को पड़ता है.
भारत के लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य खुद को एक ‘कल्याणकारी राज्य’ भी कहता है. असंगठित क्षेत्र के प्रति सरकार का यह रवैया उसकी उदासीनता को ही दिखाता है. गरीबों के कल्याण की बात करते नहीं थकने वाले प्रधानमंत्री का ध्यान क्या इस आर्थिक विषमता की तरफ कभी नहीं जाता? क्या देश की आर्थिक नीतियां सिर्फ मजबूत लोगों को और मजबूत करने के लिए है, या आर्थिक रूप से निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को थोड़ा उपर उठा कर इस विषमता को कम करना भी है? मौके बेमौके सरकार आर्थिक घोषणाओं में यह दावा करती है कि महात्मा गांधी के अंतिम जन के आंख के आंसू पोंछना ही हमारा लक्ष्य है. जबकि मनरेगा, जिस योजना का नाम ही महात्मा गांधी के नाम से जोड़ा गया है, के मजदूरों का शोषण एक तरह से गांधी का ही अपमान है.