नजरिया

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सौंदर्य प्रतियोगिता और भारतीय संस्कृति

सबसे पहले विश्व सुंदरी चुनी गयी भारत (हरियाणा) की मानुषी छिल्लर को मुबारकबाद. हालांकि हम (संघर्ष वाहिनी धारा के) लोग सौंदर्य प्रतियोगिता को पसंद नहीं करते. मानते हैं कि किसी महिला/युवती (पुरुष की भी) की ‘सुंदरता’ उसकी चमड़ी के रंग, ऊंचाई, बदन के अंगों की नाप-जोख आदि से नहीं मापी जा सकती. सुंदरता किसी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर करती है. इसमें उसकी बौद्धिकता, दृष्टि, उसके विचार और व्यवहार आदि भी शामिल होते हैं. इसलिए बाजार के प्रभाव में और उसकी जरूरत के लिए दुनिया भर में जो सौंदर्य प्रतियोगितएं हो रही हैं, उसे हम मूलतः स्त्री विरोधी मानते हैं. फिर भी जो युवतियां इनमें हिस्सा लेती हैं, उनको बेहया-बेशर्म और कहने का कोई अर्थ नहीं है. खास कर इस बाजारवादी और उपभोक्ताक्तावादी समाज व दौर में, जिसमें हम सब, चाहे-अनचाहे और कम या ज्यादा शामिल हैं, उसका हिस्सा हैं.

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झारखंड और पंजाब की किसानी का फर्क

यह धान कटाई का मौसम है. पंजाब, हरियाणा सहित उत्तर भारत में और झारखंड सहित अन्य इलाकों में धान कट रहे हैं. धान, यानि, वह फसल जिससे चावल बनता है और जो देश की आबादी का एक मुख्य खुराक है. इसलिए अधिकत इलाकों में पके धान का मौसम खुशियों की सौगात लेकर आता हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से धान की इस फसल का मौसम पंजाब और उससे सटे इलाकों के लिए भयानक तबाही का मौसम बन गया है. इस संकट को घनीभूत रूप से हम देख रहे हैं दिल्ली में जो कोहरा-धुआं बन कर दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों को लपेटे हुए है और सांसों को दूभर बना रहा है. हजारों लोग इस मौसम में भीषण प्रदूषण की वजह से मर रहे हैं. स्कूलों को बंद करना पड़ा है. सड़कों पर घने कोहरे की वजह से दुर्घटनाएं बढ़ गई हैं.

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काहे का ढ़ोंग

बहुत हुआ लोकतंत्र-फोकतंत्र का नाटक. बहुत हुआ समाजवाद और सेकुलरिजम का दिखावा, बहुलता और गंगा-जमुनी संस्कृति की चोंचलेबाजी. और बहुत हुआ बोलने की आजादी और स्वतंत्र न्यायपालिका का महिमामंडन. इस पाखण्ड को जारी रखने के बजाय अब इस बात को डंके की चोट पर कहने का वक्त आ गया है कि भारत एक ‘हिंदू देश’ है; और अब यथाशीघ्र इसे विधिवत ‘हिदू राष्ट्र’ घोषित कर दिया जाना चाहिए. तभी हमारा यह महान देश समृद्ध, खुशहाल और शक्तिशाली बन सकेगा. लेकिन इसके लिए और भी बहुत कुछ करना पड़ेगा. यह काम तो आजादी के तत्काल बाद हो जाना चाहिए था. इसी उद्देश्य से यहाँ देशवासियों, संसद और खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचारार्थ कुछ प्रस्ताव प्रस्तुत हैं :

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सत्याग्रह बनाम सत्ताग्रह

स्वतंत्रता संग्राम की एक अचूक नीति-रणनीति के रूप में ‘सत्याग्रह’ ने देश के आम जन में एक निष्ठा जगाई। आम जन को इतिहास की एक जागरूक, दायित्वयुक्त इकाई के रूप में सार्थकता प्रदान की। क्योंकि सत्याग्रह शब्द की गरिमा संकल्पयुक्त आचरण से समर्थित थी - ऐसे आचरण से जो गलत और सिद्धांतहीन समझौते करने के लिए तैयार नहीं था। ‘सत्याग्रह’ शब्द को गांधी की जीवन-दृष्टि, आचरण पद्धति और मूल्य समन्वित राजनीति ने नैतिक साहस का सम्बल प्रदान किया। साधन और साध्य के मामले में, सत्य के मामले में, और अन्य कितनी ही दिशाओं में उस जीवन-दृष्टि ने सिद्धांत के मामले में कोई या किसी भी तरह के समझौते से इनकार किया।

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अपनी संवेदना को बचाइये

आपने गौर किया है कि अब हम किसी बात से विचलित नहीं होते. चाहे वह हिंसा की घटना हो, जघन्य बलात्कार की वारदात हो या फिर भ्रष्टाचार का बड़ा से बड़ा मामला. हम अखबार की सुर्खियों को एक बार देखते हैं और पन्ना पलट देते हैं. सार्वजनिक पैसे की लूट खसोट का बड़ा से बड़ा मामला टीवी के चैनलों पर एंकर की ढेर सारी लफ्फबाजी के साथ आंखों के सामने लहराता है और बिना हम पर कोई असर डाले गुजर जाता है. नाबालालिग लड़की से सामूहिक बलात्कार और फिर उस पर किरासन छिड़क कर मार डालने जैसी घटनाएं भी हमे उद्वेलित नहीं करती. हम ब्रेड पर मक्खन लगाते हुए उसे पढते या देखते हैं और फिर उदासीन हो जाते है. ऐसा क्यों हो रहा है? हमारी सामान्य मानवीय प्रवृत्तियां क्यों निष्क्रिय होती जा रही हैं?

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लोकतांत्रिक अवसरों और संसाधनों का अपहरण

झारखंड का बीता पखवारा विवादों और हंगामों का अखाड़ा बनता दिखा. झारखंड सरकार ने सी.एन.टी.-एसपीटी एक्ट के सारे संशोधन वापस ले लिए. साथ ही अधिग्रहण और पुनर्वास कानून 2013 में बेहद घातक संशोधन पारित कर दिया और धार्मिक स्वातंत्र्य विधेयक नाम का नया धर्मातरण अवरोधक विधेयक पास कर दिया. अपने पक्ष में सरकार ने महात्मा गाँाधी का एक उद्धरण भी अखबारों के पहले पन्ने पर विज्ञापित कर दिया. इस उद्धरण की प्रामाणिकता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए गए. प्रभात खबर कानक्लेव में आमंत्रित वक्ता ज्यां द्रेज को झारखंड सरकार के आचरणों की आलोचना करने के कारण -झारखंड के कृषि मंत्री के नेतृत्व में भाजपाइयों ने हंगामा मचाकर आपातकाल के यूथ कांग्रेस या संजय बिग्रेड की याद ताजा करा दी. आयोजक प्रभात खबर के संपादक और कार्यक्रम के संचालक ने खेद प्रकट करने, माफी माँगने की नैतिकता निभाने की जरूरत तक न समझी. झारखंड विधानसभा मंे भाजपा के एक आदिवासी विधायक ने हिन्दुस्तान में छपी खबर के आधार पर (यानि बिना पुस्तक पढ़े) एक सरकारी डाॅक्टर सह पुरस्कार प्राप्त संथाली साहित्यकार की किताब के एक नापसंद प्रकरण को समस्त संथाली महिलाओं का अपमान बताकर लेखक पर कारवाई की माँग की. प्रतिपक्ष के नेता हेमन्त सोरेन समेत कई झामुमो विधायकों ने भी समान राय जाहिर की. सरकार भी अपनी पूरी गति मे आ गई. भाजपा के विचारवान मंत्री सरयू राय ने दूसरे या तीसरे दिन सदन में जानकारी दी कि किताब प्रतिबंधित कर दी गई है, लेखक को सरकारी डाक्टरी की नौकरी से सस्पेन्ड कर दिया गया है और उनपर एफआइआर दर्ज करने का निर्देश दे दिया गया है. झामुमो और अन्य भावुक आदिवासीवादियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक मुल्यों की फिक्र तो नहीं ही आई, यह समझ तक नहीं आया कि वे भाजपा की हिन्दूवादी निरंकुशता के खेल में फँस गये. कल अगर कोई लेखक हिन्दू या ब्राह्मण के बारे में ऐसे तथ्यसंगत प्रकरण रचेगा जिस पर जातिवादी या साम्प्रदायिक व्यक्ति को अपमान महसूस होगा, तो वह साहित्य बैन होगा, लेखक दंडित होगा और उनके पास विरोध के लिए बेशर्मी तो होगी, नैतिक आधार नहीं होगा. फासिज्म की आहट से तिलमिलाये-ं घबराये तथा ज्यां द्रेज के अपमान से बौखलाये मुखर लोगों को भी इस प्रकरण पर अभिव्यक्ति के अधिकार के पक्ष में कुछ कहने की जरूरत महसूस नहीं हुई. लगता है हम सबकी चिन्ता लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने-बनाने से ज्यादा अपनी गोलबन्दियों को पुख्ता बनाने पर केन्द्रित हो गई है.